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Sunday, September 23, 2012

घरेलू गैस के छ: सिलेंडर – एक अजीबोगरीब फैसला




 








घरेलू गैस के छ: सिलेंडर – एक अजीबोगरीब फैसला !

इस फैसले के पीछे की कहानी जानना चाहेंगे ?
पिछले दिनों सूचना के अधिकार के तहत यह हकीकत सामने आई कि ऊँचे पदों पर आसीन लोगों और जन नेताओं द्वारा घरेलू गैस का उपयोग औसत से कहीं अधिक किया जा रहा है जो समझ से परे है ! पिछले साल में इन वी आई पीज़ को सप्लाई किये गये सिलेंडरों की संख्या पर ज़रा गौर कीजिये ! 


मायावती – 91
मुलायम सिंह यादव – 108
लालू प्रसाद यादव – 43
रामविलास पासवान – 45
के. जी. बालकृष्णन – 60 ( चीफ जस्टिस )
प्रणीत कौर – 77 ( मिनिस्टर ऑफ एक्सटर्नल अफेयर्स )
हामिद अंसारी – 170  ( उपराष्ट्रपति )
ऐ. राजा – 89
नितिन गडकरी – 35
के. पी. एस. गिल – 79
सलमान खुर्शीद – 62
शरद पवार – 31
सुखबीर सिंह बादल – 31
सुरेश कलमाड़ी – 63
मोहन सिंह – 52   ( रेनबैक्सी वाले )
समीर जैन – 39 ( बोनेट कोलमैन के )
सुनील मित्तल – 27 ( भारतीय ग्रुप )
आदि आदि आदि .....
और ‘मैन ऑफ द मैच’ रहे –  नवीन जिंदल – 369

यह हकीकत देख कर चकरा गया ना आपका भी सर ?  
उसके बाद क्या हुआ ? हर बार की तरह पार्लियामेंट की स्टैन्डिंग कमेटी गठित की गयी जिसने सिफारिश की कि छ: लाख प्रतिवर्ष से अधिक आय वाले आम नागरिक, एम पी, एम एल ए व संवैधानिक पदों पर बैठे विशेष व्यक्तियों को प्रतिवर्ष सिर्फ छ: सिलेंडर ही रियायती दरों पर दिये जाएँ बाकी लोगों को आज के नियम के अनुसार इक्कीस दिन में एक के हिसाब से साल के १८ सिलेंडर दिये जाएँ ! लेकिन आम जनता के साथ होता क्या है आप जानते हैं ना ? इक्कीस दिन के बाद तो गैस बुक की जाती है उसके बाद लगभग 10 - 12 दिन के बाद भी यदि गैस सप्लाई कर दी जाये तो इंसान खुद को खुशकिस्मत समझता है ! बहुत पूछने पर एक रटा रटाया जुमला हवा में उछाल दिया जाता है कि "सप्लाई ही नहीं आ रही है कंपनी से तो हम क्या कर सकते हैं !" हाँ ब्लैक में यही सिलेंडर यथेष्ट मिल जाते हैं ! तो देखा आपने आम जनता के लिये कहने भर को १८ सिलेंडर सालाना का प्रावधान है जबकि वास्तविकता में मिलते तो उसे केवल ९ – १० सिलेंडर ही हैं !
पर देखिये ना इतना बड़ा देश, इतने सारे काम और इतने वयोवृद्ध नेता ! कहाँ से इतनी ऊर्जा लायें कि पूरे देश में किसको देना है और किसको नहीं देना है इसकी लिस्ट बना सकें और सिलेंडरों के दुरुपयोग को रोक पायें ! और भी तो ज़रूरी काम हैं जैसे अपनी कुर्सी बचाना, घोटालों पर पर्दा डालना और प्रतिद्वंदियों की टाँग खींचना इत्यादि ! तो इस सबका उन्होंने आसान तरीका ढूँढ लिया ! उनकी नज़र में आम जनता के सारे लोग बड़े आदमी हैं और सब अमीर हैं ! जनता मालिक है और वे सेवक ! मालिक का कद और ओहदा तो हमेशा बड़ा ही होता है और सेवक का छोटा तो कर दिये सबके सिलेंडर छ: ! भली करेंगे राम !
अब इस समस्या के हल की तरफ विचार किया जाये ! सरकार के अनुसार उसकी सबसे बड़ी समस्या है एल पी जी के सिलेंडर पर दी जाने वाली सब्सीडी के कारण बजट पर पड़ने वाला बोझ ! हकीकत यह है कि कुल सप्लाई का आधा ही आम आदमी के पास पहुँचता है ! बाकी आधे ढाबों, होटलों, कारखानों, हलवाइयों और टैक्सियों, स्कूल वैन्स व बड़े सिलेंडर से निकाल कर छोटे सिलेंडर भरने वाले धंधों में खप जाता है ! मज़े की बात यह है ये सब तथाकथित गैर कानूनी रूप से गैस का इस्तेमाल करने वाले लोग एल पी जी को ब्लैक में ही खरीदते हैं ! यानी कि यदि सरकार खुद ब्लैक कर रही होती तो यह धन उसके घाटे की पूरी भरपाई कर देता ! लेकिन यह धन फिलहाल बिचौलियों की जेबों में जाता है ! बिजिनैस सेन्स कहता है कि दो किलो और दस किलो के सिलेंडर की एक नयी सप्लाई लाइन चालू की जाये और कैश एंड कैरी की तर्ज़ पर खुले आम मँहगी दरों पर गैस को बेचा जाये ! उसके ग्राहक वे ही लोग होंगे जो आज भी ब्लैक में सिलेंडर खरीदते  हैं !   
इसी तरह का प्रयोग दिल्ली में दूध की सप्लाई पर हुआ था ! सरकारी डेयरी से दूध लेना हो तो चार पैकिट्स माँगने पर तीन ही मिलते थे ! यानी कि पच्चीस प्रतिशत सप्लाई कम होती थी ! लेकिन वही दूध के पैकिट ब्लैक में अधिक मूल्य पर जितने चाहो उतने मिल जाते थे ! इस समस्या का यह हल निकाला गया कि दूध की एक मँहगी सरकारी सप्लाई व्यवस्था शुरू की गयी जिसे मदर डेयरी कहा जाता है ! यहाँ मँहगा दूध खुले आम जितना चाहो उतना मिलना शुरू हुआ ! जो लोग पहले ब्लैक में मँहगा दूध खरीदते थे वे अब मदर डेयरी का दूध बिना अपराध बोध के खरीदने लगे ! ब्लैक का पैसा अब सरकारी खजाने में जाने लगा ! जनता भी खुश सरकार भी खुश ! यही पॉलिसी गैस सिलेंडरों के साथ भी निश्चित रूप से कामयाब होगी ! लेकिन इस ओर तवज्जो देने की फुर्सत किसे है !  इस समय तो नेताओं का सारा ध्यान जोड़ तोड़ कर सरकार को गिरने से बचाने में और मौके का फ़ायदा उठा अपनी गोट फिट करने में लगा हुआ है ! 



साधना वैद  

Friday, September 21, 2012

एफ डी आई - कितना अच्छा कितना खराब




एफ डी आई उस विदेशी पूँजी को कहते हैं जो इस उम्मीद से किसी देश में लगाई जाती है कि उस पर उचित लाभ कमाया जा सके ! पर इसमें नया क्या है और इस पर इतना बवाल क्यों उठ रहा है ! जबसे हमारा देश स्वतंत्र हुआ हम विदेशी पूँजी का हमेशा स्वागत करते रहे हैं ! पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी तक और फिर अटलबिहारी बाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक जितने भी नेता विदेश यात्राओं से लौटे उनसे यही जानकारी ली जाती रही है कि कितनी विदेशी सहायता मिली ? पहले तो यह पूँजी क़र्ज़ के रूप में मिलती थी और अब जब भारत की क्रय शक्ति कुछ बेहतर हो गयी है यह पूँजी भारत में व्यापार करके धन कमाने के लिये भागीदारी के रूप में मिलने लगी है ! निवेशक इसीलिये प्रोजेक्ट में 51% की हिस्सेदारी भी माँगता है ताकि कंट्रोल उसका बना रहे !
विदेशी निवेशक ऐसे क्षेत्र में निवेश करना चाहता है जहाँ उसे कम मेहनत और कम समय में ही अधिकतम लाभ मिलने लगे ! इस श्रेणी में वे व्यापार आते हैं जो पहले से ही लाभ में हैं अथवा जिनका बाज़ार बना बनाया होता है ! कठिन और जोखिम वाले निवेश वो माने जाते हैं जिनमें या तो भारतीय व्यापारी नाकामयाब रहे हैं अथवा जिनका बना बनाया बाज़ार नहीं है !
जोखिम भरे निवेश हैं बिजली का उत्पादन, सड़कों का निर्माण, नागरिक सुविधाओं का उपलब्ध कराया जाना, अविकसित पर्यटन स्थलों का विकास व अन्य इन्फ्रा स्ट्रक्चर का निर्माण इत्यादि ! यहाँ खतरा अधिक होता है और लाभ की गुंजाइश कम होती है ! एनरौन कंपनी का दिवालिया हो जाना जोखिम भरे निवेश का एक ज्वलंत उदाहरण है ! सन १९९२ में महाराष्ट्र सरकार के साथ इस जानी मानी कंपनी ने 2015 मेगावाट का बिजलीघर दोभाल में लगाने के लिये भारत में निवेश किया ! सन 1996 में कौंग्रेस सरकार हार गयी और नयी सरकार ने इस बिजली को पुरानी तय शर्तों के अनुसार आठ रुपये प्रति यूनिट के रेट्स पर बिजली खरीदने से इनकार कर दिया ! पूरा प्रोजेक्ट बैठ गया ! सन 2001 में एनरौन का दिवाला निकल गया ! उसके सी ई ओ विदेशों में रिश्वत देने के अपराध के दोषी पाये जाने पर जेल भेज दिये गये ! हमें भी आत्म चिंतन करना होगा कि इन हालात के लिये क्या हमारे नेता भी उतने ही ज़िम्मेदार नहीं हैं ? और यह भी कि हमारे यहाँ निवेश करने से अच्छे निवेशक क्यों कतराते हैं ? आज की परिस्थिति में यह विचार करना ज़रूरी है किस प्रकार हम अपने निवेशकों के निवेश को सुरक्षित व लाभकारी बनाने का विश्वास उन्हें दिला सकते हैं तभी अच्छे निवेशक इस दिशा में आगे आयेंगे !
ज़ीरो जोखिम वाले क्षेत्र हैं तैयार खाने पीने के सामान का उत्पादन जैसे मैगी, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स, दही, पनीर, आटा तथा मैकडोनाल्ड, पिज़्ज़ा हट, के एफ सी इत्यादि के उत्पाद ! आखिर इतनी विशाल आबादी को खाना पीना तो चाहिये ही ! सौंदर्य प्रसाधन, कपड़े जूते तथा उच्च शिक्षा आदि भी कम जोखिम वाले क्षेत्रों में आते हैं !
भारत में रिटेल व्यापार के दो हिस्से हैं ! पहले हिस्से में वे बड़े व्यापारी आते हैं जो थोक का काम करते हैं और सरकारी भ्रष्टाचार की मिलीभगत से मंडियों पर कब्जा कर लेते हैं ! एक तरफ तो वे किसानों से लागत से भी कम मूल्य पर माल खरीद लेते हैं और दूसरी तरफ छोटे खुदरा व्यापारियों को वही माल मँहगे रेट्स पर बेचते हैं ! वास्तव में यही वह क्षेत्र है जिसमें निवेश की सबसे अधिक आवश्यकता है ! जिससे किसान या उत्पादक को सही मूल्य मिल सके और उत्पाद का रख रखाव, पैकिंग, नापतौल व उसे खुदरा व्यापारियों तक पहुँचाने की व्यवस्था को सुचारू किया जा सके !
दूसरा हिस्सा है खुदरा व्यापार का जो शहरों, कस्बों व गाँवों में बने हुए छोटे बड़े बाज़ारों के माध्यम से कार्य करता है ! अब इस क्षेत्र में भी विदेशी तर्ज़ के मॉल बन रहे हैं ! गौर तलब बात यह है कि यदि हम अपने वर्तमान बाज़ारों को साफ़ सुथरा, ट्रैफिक जाम से मुक्त और टॉयलेट आदि की सुविधाओं से युक्त कर सकें तो क्या ये बाज़ार अपने आप में एक मॉल की तरह ही नहीं हैं ?
आज रिटेल क्षेत्र में एफ डी आई को लेकर घमासान है और वाल मार्ट का नाम आ रहा है ! इस मुद्दे पर सरकार गिराने और बनाने के दांव चले जा रहे हैं ! यह वाल मार्ट अमेरिका में भी विवादित रहा है ! सरकारी नियमों की आड़ लेकर कर्मचारियों  और बड़ा खरीदार होने के नाते छोटे उत्पादकों के शोषण के लिये व अपने देश के व्यापारियों के हितों की अवहेलना करके दुनिया के गरीब देशों से माल बनवा कर अमेरिका में खपाने में यह माहिर माना जाता है ! हमारे चालाक नेताओं के इस वक्तव्य पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि वाल मार्ट को इजाज़त इस शर्त पर दी जा रही है कि वह कम से कम ३०% भारतीय उत्पाद अवश्य बेचेगा ! इस वाक्य को पूरा किया जाये तो यही स्पष्ट होता है को बाकी ७०% सामान चायनीज़ ही होगा ! अमेरिका में भी वाल मार्ट के स्टोर्स ९०% सामान चायनीज़ ही बेचते हैं ! यह गलत है और देश हित में नहीं है ! विदेशों में रिश्वत देकर अपना व्यापार बढ़ाने के सबसे अधिक मुकदमें वाल मार्ट पर ही चल रहे हैं !
इन सब बातों को देखते हुए क्या हमको एफ डी आई से परहेज़ करना चाहिए ? हरगिज़ नहीं ! पूँजी आखिर पूँजी है चाहे देशी हो या विदेशी ! तरक्की के लिये निवेश आवश्यक है ! ज़रूरत इस बात की है कि सही प्रोजेक्ट में सही निवेशक और तजुर्बेकार पार्टनर को छाँटा जाये ! वर्तमान स्थिति में खुदरा व्यापार की जगह हमें मंडियों के आधुनिकीकरण, स्टोरिंग और कोल्ड चेन ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था को और मजबूत करने के लिये बड़ी मात्रा में निवेश और एक्स्पर्टीज़ की आवयकता है ! सही निवेशकों की कमी नहीं है ! बस हमारी नीयत सही होनी चाहिए !

साधना वैद !

Wednesday, September 19, 2012

सुबह के साथी - श्री कृष्णमुरारी अग्रवाल



आइये आज आपका परिचय एक और विलक्षण व्यक्तित्व से करवाती हूँ जिनसे हम लोगों का परिचय शाहजहाँ पार्क में सुबह की सैर के दौरान ही हुआ ! ये सज्जन हैं श्री कृष्ण मुरारी अग्रवाल ! पुराने आगरा से कचहरी घाट से ये हर रोज पार्क में आते हैं और इनकी पार्क के हर मोर, तोते, कौए यहाँ तक कि कुत्तों व बंदरों के साथ भी बड़ी अच्छी दोस्ती है ! पिछले बाईस सालों में उनका यह क्रम कभी नहीं टूटा ! उन्होंने बताया कि बाईस वर्ष पहले वे डायबिटीज़ के कारण काफी बीमार और कमज़ोर हो गये थे ! तब डॉक्टर ने उन्हें सुबह पाँच किलोमीटर घूमने की सलाह दी थी ! तब से उन्होंने प्रात:काल सैर का जो यह नियम बना लिया उस पर वे दृढ़ता के साथ आज भी अमल करते हैं ! अग्रवाल जी का कहना है कि डायबिटीज़ शरीर के हर अंग को बीमार और अशक्त बना देती है जबकि सुबह की सैर शरीर के हर अंग को सशक्त एवं स्वस्थ कर देती है ! अग्रवाल जी के तीन बेटे हैं ! एक बेटे का नमक की मंडी में आभूषणों का कारोबार है, दूसरे बेटे का दवाओं का काम है तथा तीसरे बेटे कोचिंग क्लास चलाते हैं ! 
मैं रोज देखती थी कि दोनों हाथों में भारी भरकम थैले उठाये एक वृद्ध सज्जन जवानों को भी मात देते हुए बड़े सधे कदमों से पार्क के हर कोने में जाकर कहीं पंछियों को तो कहीं कुत्तों को और कहीं बंदरों को अपने थैलों से सामान निकाल- निकाल कर खिलाते हैं और सभी पशु पक्षी ना केवल उन्हें पहचानते हैं वरन उनकी प्रतीक्षा भी करते हैं ! पार्क के विशिष्ट स्थलों पर जाकर वे बड़ी लयात्मक टोन में ज़ोर से पुकार लगाते हैं तो ढेरों तोते, कौए, कबूतर, गौरैया और अन्य परिंदे, यहाँ तक कि मोर भी उनके पास आ जाते हैं और फिर वे अपने थैले से मुट्ठी भर-भर कर बाजरा और रागी उनके सामने बिखेर देते हैं तो सब बड़े चाव से उन दानों को चुगते रहते हैं ! मैंने देखा था कि अन्य लोग बेसन की बनी बूँदी या और भी कई प्रकार की चीज़ें पंछियों के लिये लेकर आते हैं जो पंछियों के लिये नुकसानदायक हो सकते हैं ! इसकी चर्चा करने पर अग्रवाल जी ने बताया कि पंछियों को ऐसी चीजें नहीं देनी चाहिए ! ये उन्हें बीमार बना देती हैं ! उन्होंने एक बार का बड़ा दर्दनाक किस्सा सुनाया ! वे भी पहले ऐसा ही करते थे ! पार्क के मोरों से उनकी बड़ी अच्छी दोस्ती हो गयी थी ! वे उनके लिये बूँदी के लड्डू लेकर आते थे जिन्हें मोर बड़े शौक के साथ खाते थे ! पार्क के एक पीपल के पेड़ पर रहने वाला मोर उनसे बहुत हिल गया था और उनकी आवाज़ सुन कर पेड़ से नीचे उतर कर उनके पास लड्डू खाने आ जाता था ! एक दिन जैसे ही अग्रवाल जी ने उसे लड्डू दिया एक कुत्ता वहाँ झपटता हुआ आ गया और मोर से उसकी ज़बरदस्त लड़ाई हो गयी ! मोर घायल हो गया ! उसके बहुत सारे खूबसूरत पंख टूट गये और बचे हुए पंखों से खून निकलने लगा ! अग्रवाल जी को बहुत दुःख और पश्चाताप हुआ ! उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया और उन्होंने तुरंत ही उसे सुधार भी लिया ! उसी दिन से वे पक्षियों के लिये दाने तथा कुत्तों व बंदरों के लिये टोस्ट और ब्रेड रोटी इत्यादि लाते हैं ! अब सब पशु पक्षी अपनी अपनी पसंद का भोजन करते हैं और किसीका किसीसे कोई झगड़ा नहीं होता !
इतनी मँहगाई के चलते पार्क के जीव जंतुओं के लिये प्रतिदिन इस तरह थैले भर भर कर खाने पीने का सामान लेकर आना कोई मामूली बात नहीं है ! मैंने पूछ ही लिया कि इस मिशन पर उनका कितना खर्च हो जाता है तो उन्होंने बताया कि वे प्रतिदिन सौ रुपये का सामान लेकर आते हैं ! उनका मानना है कि किसी बात के लिये अगर ठान लिया जाये तो ऊपरवाला हर तरह से सहायता करता है ! अगर वे पार्क में सैर के लिये ना आते तो इससे भी अधिक रुपये प्रतिदिन दवा इलाज में खर्च हो जाते ! इस तरह ना केवल वे अपने स्वास्थ्य की सुचारू रूप से देखभाल कर पा रहे हैं वरन ढेर सारा पुण्य भी कमा रहे हैं ! है ना लाख टके की बात !
आज का परिचय यहीं तक अगली बार एक और दिलचस्प शख्सियत से आपका परिचय कराउँगी ! तब तक के लिये नमस्कार !

साधना वैद ! 

Saturday, September 15, 2012

वार पर वार



आम आदमी पर आज फिर सरकार का कहर टूटा है ! डीज़ल और रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि ने देश भर में लोगों को सकते में डाल दिया है ! घोर आश्चर्य और क्षोभ होता है मुझे हमारे नेताओं की संवेदनशून्यता पर कि मँहगाई और आर्थिक संकट से पहले से ही जूझ रही जनता पर सरकार इतने अमानवीय फैसले कैसे थोप सकती है ! पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की वस्तुओं के दाम इस कदर बढ़े हैं कि आम आदमी की प्रतिदिन की भोजन की थाली में से अति आवश्यक खाद्य पदार्थ जैसे दूध, फल, साग सब्जियों इत्यादि की मात्रा में क्रमश: गौरतलब कटौती होती जा रही है ! अब रसोई गैस के दाम बढ़ा कर और एक परिवार को साल में केवल छ: सिलेंडर सब्सीडाइज्ड रेट्स पर और बाकी सिलेंडर फुल रेट्स पर देने की घोषणा करके उनकी थाली से सूखी रोटी छीन लेने की भी पूरी तैयारी सरकार ने कर ली है ! जनता संसद में जिन प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है उनसे उम्मीद करती है कि वे उसके हितों की रक्षा करेंगे और उसे संकटों से उबारेंगे ! लेकिन वे संसद में पहुँच कर ऐसे नियम क़ानून बनाते हैं जनता के लिये ? जिन लोगों के पास अथाह पैसा है उनके लिये किसी भी कायदे क़ानून से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि वे तो कुछ भी किसी भी कीमत पर हासिल कर सकते हैं लेकिन जिनकी आमदनी बहुत सीमित है और जिनके हाथों में गिने चुने पैसे आते हैं वे क्या करें और कैसे इन रोज रोज की समस्याओं से पार पायें इसके गुर कोई सिखायेगा उन्हें ?
जो लोग संसद में पहुँच जाते हैं या भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हैं वे येन केन प्रकारेण अकूत धन संपदा अर्जित करके समाज की अति धनाढ्य श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लेते हैं ! उनकी आमदनी, बैंक बैलेंस और तनख्वाह का कोई ठिकाना नहीं होता ! अपने पद और रुतबे का प्रयोग कर हर चीज़ वे चुटकियों में हासिल कर लेते हैं ! इसके बावजूद भी अपने कार्यकाल में ना जाने कितनी बार उनके वेतन में बढ़ोतरी हो जाती है ! ना जाने कितनी तरह के भत्ते उन्हें मिल जाते हैं ! यहाँ तक कि घरेलू नौकर के लिये भी उन्हें अलाउएंस मिल जाता है ! वह एक कहावत है ना ---
अंधा बाँटे रेवड़ी और फिर फिर खुद को देय !
लेकिन आम आदमी क्या करे ! वह कैसे अपनी आमदनी बढ़ाये ! कहाँ से इतना पैसा लाये कि बच्चों की दिन प्रतिदिन मँहगी होती पढाई, स्कूल की फीस, दवा इलाज और खाने की थाली से नज़रों के सामने हर रोज गायब  होते जा रहे अत्यावश्यक खाद्य पदार्थों की त्रासदी से समझौता कर सके ! हमारी भ्रष्ट और असंवेदनशील व्यवस्था क्या इस तरह आम जनता को गलत तरीके अपना कर आमदनी बढ़ाने के लिये उकसा नहीं रही है ? तभी जब होली दीवाली पास आ जाती है सड़कों पर अचानक वाहनों की चैकिंग और ट्रैफिक रूल्स का अनुपालन बड़ी सख्ती से कराया जाने लगता है !
सरकार यदि जनता की समस्याओं, चिंताओं और परेशानियों से वाकई कोई सरोकार रखती है तो समाज में ऐसी विसंगति और विषमता का अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए ! गाँधीजी जब दक्षिण अफ्रिका से भारत लौट कर आये थे तो यहाँ कि राजनीति में प्रवेश करने से पहले वे भारत दर्शन के लिये निकले थे और आम आदमी की गरीबी और लाचारी से इतने द्रवित और विचलित हुए थे कि अपने तन के कपड़े तक उतार कर उन्होंने दान में दे दिये थे ! और उसके बाद से उनके तन पर मात्र एक धोती ही दिखाई देती थी ! उनका मानना था कि जब देश की जनता के तन पर पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं उन्हें सूटेड बूटेड रहने का कोई अधिकार नहीं है ! आज के हमारे नेता छप्पन प्रकार के व्यंजनों से सजे अपने दस्तरखान पर खाना चखने से पहले कभी सोचेंगे कि उनके देश के आम आदमी को आज एक वक्त की रोटी भी पेट भर कर नसीब हुई है या नहीं ? कभी उन्होंने सोचा है कि जिस जनता को निचोड़ कर वो ऐश कर रहे हैं उसके प्रति उनका भी कोई नैतिक दायित्व है ?
मँहगाई का यह दंश कितना चुटीला है और आम इंसान को कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है यदि वे सचमुच इसके प्रति गंभीरता से चिंतित हैं तो उन्हें अपनी सारी सुख सुविधाओं का त्याग कर देना चाहिये ! अपनी बढ़ी हुई आमदनी और वेतन को अस्वीकार कर देना चाहिये ! भारत में प्रति व्यक्ति जो औसत आमदनी है उन्हें भी वही ग्रहण करना चाहिये और जिस तरह एक आम इंसान कदम कदम पर हर एक वस्तु के लिये संघर्ष कर उसे हासिल रहा है उन्हें भी उसी प्रक्रिया से गुजर कर अपनी थाली में भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए ! उन्हें किसी भी प्रकार का फेवर या सुविधा ग्रहण करने से परहेज़ करना होगा ! तभी शायद वे आम आदमी की ज़द्दोज़हद को गहराई से अनुभव कर पायेंगे और तब ही शायद वे ईमानदारी से उसकी इस लड़ाई में उसके साथ उसके हितों के लिये लड़ पायेंगे !
लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि वो ऐसा करना भी चाहेंगे ? यह युग गांधी जी का युग तो नहीं है ना ! ना देश के नेता ही गाँधी जी जैसे हैं ! अब तो सब राम भरोसे चल रहा है ! कहीं यह भी मिस्र के ‘तहरीर चौक’ की कहानी का आगाज़ तो नहीं ?

साधना वैद