‘सत्यमेव
जयते’
लिखने
पढ़ने में यह नारा
कितना
अच्छा लगता है,
‘सत्य
का आभामण्डल
बहुत
विशाल होता है’
कहने
सुनने के लिये
यह
कथन भी
कितना
सच्चा लगता है !
लेकिन
नायक
वर्तमान
परिस्थितियों में
‘सत्य’जिन रूपों में समाज में
उद्घाटित
प्रकाशित हो रहा है
उसे
देख कर
क्या
तुम कह पाओगे
कि
इसी ‘सत्य’ की जीत हो,
क्या
तुम सह पाओगे कि
इसी
‘सत्य’ के साथ
सबकी
प्रीत हो ?
बोलो
नायक
क्या
यह सच नहीं कि
हमारे
देश के कर्णधार
मासूम
जनता के कान उमेठ
अपना
उल्लू सीधा कर रहे हैं,
और
भोली जनता को लूट कर
अपनी
तिजोरियाँ भर रहे हैं ?
क्या
यह सच नहीं कि
पेट
की आग बुझाने के वास्ते
कहीं
एक गरीब माँ
चंद
मुट्ठी अनाज के बदले
अपनी
ममता का सौदा
करने
के लिये विवश है
तो
कहीं अनेक लाचार बहनें
अपने
जिस्म की नुमाइश लगा
अपनी
अस्मत को गिद्धों के सामने
परोसने
के लिये अवश हैं ?
क्या
यह सच नहीं कि
आज
भी मंदिरों में
देवी
की मूर्ति के सामने
मिथ्या
भक्ति का ढोंग रचाने वाले
पाखंडी 'सदाचारी' लोग
निर्बल
असहाय नारी को
अकेला
देख उस पर
वहशी
दरिंदों की तरह
टूट
पड़ते हैं,
और
अपनी घिनौनी करतूतों से
इंसानियत
के मुख पर
एक
के बाद एक करारे
थप्पड़
से जड़ते हैं ?
बोलो
नायक
क्या
यह सच नहीं कि
आज
हमारे समाज में
किस्म-किस्म
के भ्रष्टाचार,
अनाचार,
दुराचार, व्यभिचार,
पापाचार
और अपराध
अपने
पूर्ण यौवन पर हैं,
और
इन सबको खुले आम
अंजाम
देने वाले बहुत सारे
असामाजिक
तत्व
अपनी
सत्ता और सामर्थ्य
के
मद में चूर
समाज
के शिखर पर हैं ?
बोलो नायक
क्या
अपने ‘सत्य’ के ऐसे ही
आभामण्डल
पर
तुम
मंत्रमुग्ध हो
या
फिर अपने ‘सत्य’ का ऐसा
वीभत्स
रूप और पतन देख
तुम
भी अपने मन में
कहीं
न कहीं
आहत
और क्षुब्ध हो ?
यदि
ऐसे तामसिक सत्य का
न्याय
करने के लिये
न्याय
तुला
तुम्हारे
हाथ में होती
तो
तुम क्या करते नायक ?
क्या
‘सत्यमेव जयते’
उच्चारण
करते हुए
तुम्हारा
कंठ अवरुद्ध नहीं होता ?
या
तुम्हारे अधर नहीं काँपते ?
या
फिर तुम शतुरमुर्ग की तरह
आँखे
मूँद सब अनदेखा कर देते
और
बस केवल आदतन
बिना
सोचे समझे ही
दोहरा
देते,
‘सत्यमेव
जयते’....???????
साधना
वैद
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