इस
अनन्त, अथाह, अपार सागर की
उद्दाम
लहरों पर
हर
ओर से लगाम कसे
मैं
खड़ी तो हूँ विश्व विजेता सी
कुछ
इस तरह मानो
सृष्टि
का हर रहस्य
हर
आतंक, हर भय
मैंने
वशीभूत कर लिया है
लेकिन
क्या मेरे आकुल मन ने
सच
में अपने भय और
समय-समय
पर सिर उठाती
ज़िद्दी
आशंकाओं पर
विजय
पा ली है ?
क्या
सुनामी की उत्ताल तरंगें
उसे
भयभीत नहीं कर जातीं ?
क्या
तूफानों के प्रचंड वेग से
उसका
सर्वांग थर-थर
काँप
नहीं जाता ?
जब
बेरहम मौसमों की मार से
मेरे
पाल विदीर्ण होकर
तार-तार
हो जाते हैं
तब
चंचल हवाओं की
हल्की
सी शरारत भी
मेरी
राह को डगमगा जाती है !
मुझे
भान हो चला है कि
मैं
बहुत क्षुद्र हूँ ,
पुरातन
हूँ और जर्जर हूँ
इसीलिये
मेरी तुमसे विनती है
जबकि
मेरी बुनियाद ही
सागर
की अस्थिर आंदोलन कारी
लहरों
पर टिकी है
तुम मुझ
पर दायित्वों और
भरोसे
के हिमालय तो न लादो
कि
मैं एक नन्हे से जीव के
टकरा
जाने भर से ही
सागर
की अतल गहराइयों में
समा
जाऊँ और मेरा जीवन
इतिहास
के अध्यायों में
समा
कर ही रह जाये !
साधना
वैद
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