मंज़िल
की दूरी को लख कर
राही
तू रुक जाना ना ,
पथ
के सन्नाटों से डर कर
राही
तू मुड़ जाना ना ,
पलक
बिछाये बैठे हैं सब
शूल,
धूल, कंकर, पत्थर ,
स्वागत
को आतुर अपने इन
मित्रों
को बिसराना ना !
चल
उठ राही ! हिम्मत कर ले
यह
पल फिर ना आयेगा ,
तेरे
बुत बनने से निष्ठुर
इस
जग का क्या जायेगा ,
इस
पल को जी ले तू राही
खुशियाँ
बाहों में भर ले ,
जीवन
ज्योत जला कर ही
औरों
का तम हर पायेगा !
चल
उठ राही ! बाँह पसारे
मंज़िल
तुझे बुलाती है ,
कोमल
कर से सहला अलकें
किस्मत
तुझे जगाती है ,
क्यों
बैठा है अंतर्मन के
सब
दरवाज़े बंद किये ,
जो
खुद अपने मन से हारा
दुनिया
उसे भुलाती है !
चल
उठ राही ! गुमसुम रह कर
कुछ
भी ना मिल पायेगा ,
जिसने
मन पर अंकुश साधा
विजय
वही पा जायेगा ,
एक
समूचा गगन पड़ा है
तेरे पंखों के नीचे ,
बाँध हौसला उड़ चल राही
बाँध हौसला उड़ चल राही
दूर
तलक तू जायेगा !
साधना
वैद
No comments:
Post a Comment