जाने क्यों
आज सारे शब्द चुप हैं ,
सपने मूर्छित हैं ,
भावनायें विह्वल हैं ,
कल्पनाएँ आहत हैं ,
गज़लें ग़मगीन हैं ,
इच्छाएं घायल हैं ,
अधर खामोश हैं ,
गीतों के सातों
स्वर सो गये हैं
और छंद बंद
लय ताल सब
टूट कर
बिखर गये हैं !
मेरे अंतर के
चिर परिचित
निजी कक्ष के
नितांत निर्जन,
सूने, नीरव,
एकांत में
आज यह कैसी
बेचैनी घिर आई है
जो हर पल व्याकुल
करती जाती है !
कहीं कुछ तो टूटा है ,
कुछ तो बिखर कर
चूर-चूर हुआ है ,
जिसे समेट कर
एक सूत्र में पिरोना
मुश्किल होता
जा रहा है !
मुझे ज़रूरत है
तुम्हारी मुट्ठी में
बँधी उज्ज्वल धूप की ,
तुम्हारी आँखों में
बसी रेशमी नमी की ,
तुम्हारे अधरों पर
खिली आश्वस्त करती
मुस्कुराहट की ,
और तुम्हारी
उँगलियों के
जादुई स्पर्श की !
क्योंकि मेरे मन पर
छाये हर अवसाद
हर उदासी का
घना कोहरा
तभी छँटता है
जब मेरे मन के
आकाश पर
तुम्हारा सूरज
उदित होता है !
साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार
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