जब भी अपने
हृदय का बंद द्वार
खोल कर अंदर झाँका है
अपने ‘मैं’ को सदैव सजग,
सतर्क, संयत एवँ दृढ़ता से अपने
इष्ट के संधान के लिये
समग्र रूप से एकाग्र ही पाया है !
ऐसा क्या है उसमें जो वह
सागर की जलनिधि सा अथाह,
आकाश सा अनन्त, धरती सा उर्वर,
वायु सा जीवनदायी व गतिमान एवँ
पवित्र अग्नि सा ज्वलनशील है !
ऐसा क्या है उसमें जो
संसार का कोई भी आतंक
उसे भयभीत नहीं करता,
कोई भी भीषण प्रलयंकारी तूफ़ान
उसे झुका नहीं सकता,
कैसे भी अनिष्ट का भय उसका
मनोबल तोड़ नहीं पाता !
लेकिन जो अपनी अंतरात्मा की
एक चेतावनी भर से सहम कर
निस्पंद हो जाता है,
जो मेरी आँखों में लिखे
वर्जना के हलके से संकेत को
पढ़ कर ही सहम जाता है और
मेरे होंठों पर धरी निषेधाज्ञा की
उँगली को देख अपनी वाणी
खो बैठता है !
मैं जानती हूँ
दुनिया की नज़रों में
मेरा यह ‘मैं’
एक ज़िद्दी, अड़ियल, अहमवादी,
दम्भी, घमण्डी और भी
न जाने क्या-क्या है !
लेकिन क्या आप जानते हैं
मेरा यह ‘मैं’
मेरे आत्मसम्मान का एक
सबसे शांत, सौम्य और
सुदर्शन चेहरा है,
जिस पर मैं अपनी सम्पूर्ण
निष्ठा से आसक्त हूँ !
वह इस रुग्ण समाज में विस्तीर्ण
वर्जनाओं, रूढ़ियों और सड़ी गली
परम्पराओं की गहरी दलदल से
बाहर निकाल मुझे किनारे तक
पहुँचाने के लिये मेरा एकमात्र
एवँ अति विश्वसनीय
अवलंब है !
अपने स्वत्व की रक्षा के लिये
मेरे पास उपलब्ध मेरा इकलौता
अचूक अमोघ अस्त्र है !
हरने के लिये अमृत सामान
मृदुल, मधुर, शीतल जल का
अजस्त्र अनन्त स्त्रोत है !
मुझे कोई परवाह नहीं
लोग मुझे क्या समझते हैं
लेकिन मेरी नज़रों में मेरी पहचान
मेरे अपने इस ‘मैं’ से है
और निश्चित रूप से मुझे
अपनी इस पहचान पर गर्व है !
जिस दिन मेरी नज़र में
इस ‘मैं’ का अवमूल्यन हो जायेगा
वह दिन मेरे जीवन का
सर्वाधिक दुखद और कदाचित
अंतिम दिन होगा क्योंकि
मुझे नहीं लगता उसके बाद
मेरे जीवन में ऐसा कुछ
अनमोल शेष रह जायेगा
जिस पर मैं अभिमान कर सकूँ !
साधना वैद
बहुत जरूरी है इस मैं को बचाए रखना और उससे भी जरूरी है इस मैं को पहचान के रखना। शानदार पोस्ट
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अजय जी ! आभार आपका !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार कुलदीप जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Deleteवाह साधना जी -- अपने मैं की सार्थकता को जताती बेहतरीन रचना |मैं यदि स्वाभिमान से भरा हो तो उसकी सार्थकता है और यदि अभिमान का पर्याय हो तो निरर्थक है | इस एक पंक्ति ने मानों सब कह दिया -
ReplyDeleteअपने स्वत्व की रक्षा के लिये
मेरे पास उपलब्ध मेरा इकलौता
अचूक अमोघ अस्त्र है !
सच है यदि ये स्वाभिमान वाला मन ना हो तो लोग झुके वृक्ष की भांति नोचते हैं --जिसके फल तो क्या पत्ते भी लोग नहीं छोड़ते| सादर
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रेणु जी ! अच्छा लगता है कि आप रूचि लेकर मेरी रचनाओं को पढ़ती हैं और उन पर गहन विश्लेषणात्मक टिप्पणी करती हैं ! आपका आगमन मेरे लिए बहुत सुखकारी है ! एक बार पुन: आभार आपका !
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