कुछ कहावतें
सुनने में बहुत ही अच्छी लगती हैं| कुछ ग्लैमर होता है उनमें, कुछ शोखी होती है और रोचकता तो भरपूर होती ही है| उन्हीं
में से एक कहावत यह है कि ‘दीवारों के भी कान होते हैं|’
छोटे थे तो इस कहावत को पढ़ कर बड़ा रोमांच सा होता था| बड़ी हैरानी भी होती थी| पता
नहीं किस दीवार के कान कितने तेज़ हैं| पता नहीं कौन सी बात सुन कर वह कैसे रिएक्ट
करे| क्या दीवारों के मुँह भी होता है? क्या ये सुनी हुए बात किसीसे कह भी देती
होंगी? या सिर्फ सुन कर अपने तक ही सीमित रखती होंगी? अगर मुँह नहीं होता है तो
क्या खतरा है? किसीसे कुछ कह तो पाएंगी नहीं| गोपनीयता तो बनी
ही रहेगी ना| तो अब बातों का सूत्र पकड़ में आया कि सारा खेल गोपनीयता का है|
दीवारों के कान
होते हैं इसलिए कोई ऐसी बात न कही जाए कि पड़ोसी भी सुन लें और फिर वह जग जाहिर हो
जाए| लेकिन यह तो ग़लत बात हुई ना| यानी कि ये दीवारें तो हमारे बुनियादी अधिकारों
का ही हनन कर रही हैं| हम क्या अपने ही घर में नाप तोल कर बोलें? अब क्या हमें अपने
घर की विश्वासघाती दीवारों को भी गिराना होगा? क्या पक्के मकानों की जगह तम्बू
डेरे में रहने लगें? लेकिन अपनी निजता बरकरार रखने के लिए, पर्दों की ही सही, दीवारें तो वहाँ भी बनानी ही पड़ेंगी ना? तो यह तो तय रहा
कि मनुष्य क्योंकि एक सामाजिक प्राणी है| वह समूह में रहता है तो अपनी निजता बनाए
रखने के लिए उसे एक घर की ज़रुरत तो निश्चित रूप से पड़ेगी ही| फिर सिर्फ निजता ही
क्यों, सर्दी, गर्मी, आँधी, तूफ़ान, ओले, बरसात इन सबसे बचाव के लिए भी तो घर ज़रूरी है| तो जहाँ घर
होगा वहाँ दीवारें भी लाज़िमी तौर पर होंगी और दीवारें होंगी तो उनके कान भी होंगे
और अगर ये दीवारें कहीं चुगलखोर हुईं तो आपकी तो समझ लीजिये कि शामत ही आ गईं| अब
कोई यह कैसे पता करे कि दीवारें कच्चे कान वाली हैं या पक्के कान वाली| आज का युग
होता तो ज़बरदस्त विज्ञापनों की मुहिम शुरू हो जाती अम्बुजा सीमेंट और अल्ट्रा टेक
सीमेंट की तरह| बड़े-बड़े फिल्म स्टार भाँति-भाँति के अजीबोगरीब करतब दिखाते और विचित्र-विचित्र
पोशाकें पहन कर हमें कन्विंस करने की कोशिश करते कि कौन सा उत्पाद लगाएं कि
दीवारों के कान बिलकुल साउण्डप्रूफ़ हो जाएँ और वो एक भी बात इधर से उधर न कर पायें|
खैर यह तो हुई बेबात की बात| सूत न कपास| थोड़ा सा शगल ही सही|
अब ये दीवारें
तो क्या ही बोलेंगी लेकिन कच्चे कान वाली दीवारों के पार क्या हो रहा है इसका व्यौरा
कभी-कभी चकित कर जाता है| यह किस्सा एक अति संवेदनशील, सहृदय लेखक महोदय ने बयान
किया और अपने घर की कच्चे कान वाली खुराफाती दीवारों की करतूत पर अपना सर पीट लिया|
तो किस्सा कुछ इस तरह शुरू हुआ| नए शहर में आने के बाद लेखक महोदय ने जिस घर में
किराये पर रहने के लिए कमरा लिया उसी घर में दूसरी तरफ उनके मकान मालिक का बहुत
छोटा सा परिवार रहता था| परिवार में चलने फिरने से लाचार एक वृद्ध माता जी थीं,
उनकी एक बूटा सी बहू थी और एक बेटा था जो नौकरी के सिलसिले में किसी दूसरे शहर में
रहता था और छुट्टी मिलने पर ही महीने में एकाध बार अपने घर आता था| बहू लम्बे
घूँघट में ढकी बहुत संस्कारी, शालीन, हमेशा चुपचाप काम में लगी रहने वाली, दुबली पतली
नाज़ुक सी लड़की थी जिसकी कभी आवाज़ तक नहीं सुनी थी किसीने| यह उन दिनों की बात है
जब लोगों की ज़िंदगी बड़ी खामोश सी हुआ करती थी| एकदम सीधी सादी| न तो डी जे, लाउड
स्पीकर्स का शोर ही था न घरों में टी वी वगैरह होते थे| शाम के बाद जब सन्नाटा छा
जाता तो उस समय लेखक महोदय के अन्दर का साहित्यकार जाग जाता और वे मनोयोग से अपनी
कलम और कॉपी सम्हाल कर बैठ जाते| लेकिन उनके कमरे की कच्चे कान वाली दीवारें उसी
समय सक्रिय हो जातीं और दीवार के उस पार वाले हिस्से से बूढ़ी माँ जी की डाँट फटकार, चीखने चिल्लाने और अनर्गल प्रलाप का दौर उस सन्नाटे को
तोड़ता हुआ कुछ इस तरह से शुरू हो जाता कि लेखक महोदय के दिल दिमाग पर हथौड़े से चलने
लगते| वृद्धा क्या कहती थी वह तो समझ में नहीं आता था लेकिन यह बात बिलकुल स्पष्ट
थी कि वह अपनी बहू पर ही चीख चिल्ला रही होती थी और उसीको धिक्कारते हुए गालियाँ देती
रहती थी| वृद्धा की कर्कश आवाज़ देर तक गूँजती रहती और फिर धीरे-धीरे मद्धम होती
हुई बंद हो जाती| थकान के मारे शायद वृद्धा को भी नींद आ जाती होगी| लेकिन लेखक का
मन विचलित हो जाता| बेचारी बहू कैसे इस कठोर निर्दय सास के साथ निर्वाह करती होगी|
उन्हें हैरानी भी होती किस मिट्टी की बनी है यह लड़की| कभी पलट के जवाब नहीं देती|
कितना सब्र दिया है मालिक ने उसे| रोज़ रात का यही सिलसिला था| लेखक महोदय बिलकुल
भी चित्त नहीं लगा पा रहे थे लिखने में| पड़ोसन बहू की व्यथा वेदना उन्हें व्यथित
कर जाती| लेकिन कुछ उपाय भी तो नहीं था सास बहू की सुलह कराने का| उनके घर में कोई
स्त्री नहीं थी जो मकान मालिक के घर में जाकर स्थिति को सम्हाल ले और मकान मालिक के
घर में कोई पुरुष नहीं था जिससे लेखक महोदय स्वयं बात कर लेते| रोज़ रात को वृद्धा
का अनर्गल एकालाप निर्बाध गति से चलता और बहुत कान लगा कर सुनने पर भी बहू का कोई
भी जवाब लेखक को सुनाई नहीं देता| उसके धैर्य और सहनशीलता के लेखक कायल हो गए थे|
मन ही मन उससे पुत्रीवत स्नेह भी करने लगे थे| उस पर उन्हें बहुत दया आने लगी थी|
कभी-कभी मन करता बूढ़ी कर्कशा सास को जाकर जोर से झिंझोड़ दें| क्या उनके हृदय में
ज़रा सी भी माया ममता नहीं है| कैसे वे इस मासूम सी बच्ची के प्रति इतनी निर्दय हो
सकती हैं जो उनका इतना अत्याचार सहते हुए भी दिन रात उन्हीं की सेवा में लगी रहती
है|
एक दिन तो हद ही हो गयी| सासू माँ का प्रलाप और प्रबल हो गया था| साथ ही किसी
बर्तन को फेंक कर मारने की आवाज़ भी आई थी| शायद वृद्धा ने लोटा गिलास जो भी हाथ
में आया हो वही फेंक कर बहू पर निशाना साधा था| लेखक महोदय घबरा गए| आज तो खून
खच्चर होने की नौबत आ गयी है| वृद्धा तो वैसे ही अपाहिज है| बेचारी बहू अगर घायल
हो गयी होगी तो उसे कौन उपचार के लिए ले जाएगा| लेखक महोदय के मन में पड़ोसी धर्म ज़ोर
से करवटें लेने लगा| लेकिन इतनी रात में एकाएक उन स्त्रियों के घर में जाने की
हिम्मत भी वो नहीं जुटा पा रहे थे| उनके कमरे में ऊँचाई पर छत के पास एक वेंटीलेटर
लगा था जो मकान मालिक के आँगन में खुलता था| पहले उन्होंने वहाँ से वस्तु स्थिति
का सही जायज़ा लेने का मन बनाया| अपनी लिखने की मेज़ पर पहले एक कुर्सी और फिर
कुर्सी पर एक स्टूल रख कर उन्होंने हिलती डुलती मीनार सी बनाई और फिर बमुश्किल
अपने बदन को साध किसी तरह वे वेंटीलेटर तक पहुँचे| मकान मालिक के आँगन में झाँका तो
हैरानी से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं| अपाहिज वृद्धा अपनी चारपाई पर औंधी पड़ी
बहू से खाने के लिए रोटी माँग रही थी और बहू उसके सामने ही दूसरी खाट पर अपनी पूरी
थाली सजा कर बैठी थी और चटखारे लेकर अचार से पराँठा खा रही थी और जब सास उससे खाना
माँगती वह बेरहमी से उसे अँगूठा दिखा देती और जीभ निकाल कर उसे चिढ़ा देती| सास का
प्रलाप और तेज़ हो जाता और बहू के मुख पर कुटिलता भरी मुस्कान और भी चौड़ी हो जाती| उसकी
इस हरकत पर सास के मुख से गालियों का निर्बाध झरना बहने लगता था और ‘संस्कारी’,
‘शालीन’ बहू बेपरवाही से सास को मुँह बिराती, अँगूठा दिखाती आम के अचार की फाँक को
मज़े ले लेकर कुतर रही थी|
अब बताइये ऐसे खुराफाती कान वाली दीवारों को आप क्या कहेंगे|
साधना वैद
बहुत ही रोचक विचारात्मक रचना सादर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अभिलाषा जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आलोक जी ! बहुत-बहुत आभार !
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ओंकार जी ! हार्दिक आभार आपका !
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