१५ अगस्त के उपलक्ष्य में विशेष रचना
वर्षों की गर्भ यंत्रणा सहने के बाद
सन् १९४७ की १४ और १५ अगस्त में
जब कुछ घंटों के अंतराल पर
मैंने दो जुडवाँ संतानों को जन्म दिया
तब मैं तय नहीं कर पा रही थी
कि मैं अपने आँचल में खेलती
स्वतन्त्रता नाम की इस प्यारी सी
संतान के सुख सौभाग्य पर
जश्न मनाऊँ
या अपनी सद्य प्रसूत
दूसरी संतान के अपहरण पर
सोग मनाऊँ
जिसे मेरे घर परिवार के कुछ
विघटनकारी सदस्यों ने ही षड्यंत्र कर
समाज में वैमनस्य का विष फैला
मेरी गोद से दूर कर दिया !
तब बापू थे !
उनके कंधे पर सवार हो मेरी नन्ही बेटी ने
अपनी आँखें खोली थीं
अपने सीने पर पत्थर रख कर
मैंने अपनी अपहृत संतान का दुःख भुला
अपनी इस बेटी को उनकी गोद में डाल दिया था
और निश्चिन्त होकर थोड़ी राहत की साँस ली थी !
लेकिन वह सुख भी मेरे नसीब में
बहुत अल्पकाल के लिये ही था !
३० जनवरी सन् १९४८ को
बापू को भी चंद गुमराह लोगों ने
मौत की नींद सुला दिया
और मुझे महसूस हुआ मेरी बेटी
फिर से अनाथ हो गयी है
असुरक्षित हो गयी है !
लेकिन मेरे और कितने होनहार बेटे थे
जिन्होंने हाथों हाथ मेरी बेटी की
सुरक्षा की जिम्मेदारी उठा ली,
उन्होंने उसे उँगली पकड़ कर
चलना सिखाया, गिर कर उठना
और उठ कर सम्हलना सिखाया,
मैं थोड़ी निश्चिन्त हुई
मेरी बेटी स्वतन्त्रता अब काबिल हाथों में है
अब कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा !
लेकिन यह क्या ?
एक एक कर मेरे सारे सुयोग्य,
समर्पित, कर्तव्यपरायण बेटे
काल कवलित होते गए
और उनके जाने बाद
मेरी बेटी अपने ही घर की
दहलीज पर फिर से
असुरक्षित और असहाय,
छली हुई और निरुपाय खड़ी है !
क्योंकि अब उसकी सुरक्षा का भार
जिन कन्धों पर है
वे उसकी ओर देखना भी नहीं चाहते
उनकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बँधी है
और मन में लालच और लोभ का
समंदर ठाठें मारता रहता है !
अब राजनीति और प्रशासन में
ऐसे नेताओं और अधिकारियों की
कमी नहीं जो अपना हित साधने के लिये
मेरी बेटी का सौदा करने में भी
हिचकिचाएंगे नहीं !
हर वर्ष अपनी बेटी की वर्षगाँठ पर
मैं उदास और हताश हो जाती हूँ
क्योंकि इसी दिन सबके चेहरों पर सजे
नकली मुखौटे के अंदर की
वीभत्स सच्चाई मुझे
साफ़ दिखाई दे जाती है
और मुझे अंदर तक आहत कर जाती है !
और मै स्वयम् को 'भारत माता'
कहलाने पर लज्जा का अनुभव करने लगती हूँ !
क्यों ऐसा होता है कि
निष्ठा और समर्पण का यह जज्बा
इतना अल्पकालिक ही होता है ?
स्वतन्त्रता को अस्तित्व में लाने के लिये
जो कुर्बानी मेरे अगणित बेटों ने दी
उसे ये चंद बेईमान लोग
पल भर में ही भुला देना चाहते हैं !
अब मेरा कौन सहारा
यही प्रश्न है जो मेरे मन मस्तिष्क में
दिन रात गूँजता रहता है
और मुझे व्यथित करता रहता है !
किसीने सच ही कहा है,
"जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह ह्रदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं !"
मुझे लगता है मेरे नसीब में
अब सिर्फ पत्थर ही पत्थर लिखे हैं !
साधना वैद
वाह वाह बहुत ही उम्दा.... बेहद मर्मस्पर्शी ..!!
ReplyDeleteवन्दे मातरम
गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी यह रचना...
ReplyDeleteभारत माँ के आर्तनाद के द्वारा हर आम भारतवासी के मन का दर्द कह दिया है ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, दोनों मुल्कों की अमन पसंद कौम का दर्द व्यक्त करती हुई रचना.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव लिए है यह रचना | सच है आज जो स्थिति भारत माता की है और स्वतंत्रता की उससे
ReplyDeleteमुंह छुपाया नहीं जा सकता |बहुत बहुत बधाई
आशा
जो भरा नही है भावो से बहती जिसमे रसधार नही
ReplyDeleteसच ही वह पत्थर होता है पर आज भाव तो केवल किताबो मे मिलते है मनुष्यो के हृदय मे नही ।
जब संतान ही कपूत निकल जाये तब बेचारी भारत माता क्या करे। मा के दर्द को बखूबी उकेरा है।अच्छी रचना
बहुत गज़ब और गहरी रचना...बधाई.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना और जिस अंदाज़ में आपने सच्चाई बयान की वो प्रस्तुति तो काबिले तारीफ है.
ReplyDeleteaapki rachna ki gahraai dekh meri aankhe nam ho gayi ,kitna khoobsurat likha hai ,iske varnan ke liye shabd nahi apne paas .sukoon mila padhkar .aur mahsoos kar rahi hoon saare bhav ,dhero badhai aazaadi ki ,vande matram .jai hind .
ReplyDeleteआज़ादी के पर्व पर देश के सोटॉन को जगाने का आपका प्रयास सराहनीय है .... बहुत लाजवाब और प्रभावी रचना के लिए बधाई ...
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी रचना है...'भारत माता' का दर्द हर शब्द में उतर आया है...सच दो जुड़वां संतान ही तो हैं,भारत और पकिस्तान....जिनकी रक्षा करनेवाले उसे ही लहू लुहान किए जा रहें हैं....उसकी वर्षगाँठ पर माँ का दुखी होना लाज़मी है..
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति.....मन भर आया पढ़ कर.