कल रात ख्वाब में
मैं तुम्हारे घर के कितने पास
पहुँच गयी थी !
तुम्हारी नींद ना टूटे इसलिये
मैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
बंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?
तुम्हारे घर की बंद खिड़की के बाहर
मैंने अपने आँचल में बंधे
खूबसूरत यादों के सारे के सारे पुष्पहार
बहुत आहिस्ता से नीचे रख दिये थे !
सुबह उठ कर ताज़ी हवा के लिये
जब तुमने खिड़की खोली होगी
तो उनकी खुशबू से तुम्हारे
आस पास की फिजां
महक तो उठी थी ना ?
तुम्हारे घर के सामने के दरख़्त की
सबसे ऊँची शाख पर
अपने मन में सालों से घुटती एक
लंबी सी सुबकी को
मैं चुपके से टाँग आई थी
इस उम्मीद से कि कभी
पतझड़ के मौसम में
तेज़ हवा के साथ
उस दरख़्त के पत्ते उड़ कर
तुम्हारे आँगन में आकर गिरें तो
उनके साथ वह सुबकी भी
तुम्हारी झोली में जा गिरे !
तुम अपने बगीचे की क्यारी में
पौधे रोपने के लिये जब
मिट्टी तैयार करोगे तो
तुम वहाँ मेरे आँसुओं की नमी
ज़रूर महसूस कर पाओगे
शायद मेरे आँसुओं से सींचे जाने से
तुम्हारे बाग के फूल और स्वस्थ,
और सुरभित, और सुन्दर हो जायें !
अपने मन में उठती भावनाओं को
गीतों में ढाल कर मैंने
खामोशी के स्वरों में
मन ही मन दोहरा लिया था !
कहीं मेरी आवाज़ से, मेरी आहट से
तुम्हारी नींद ना टूट जाये
मैं चुपचाप दबे पाँव वापिस लौट आई थी !
मेरे वो सारे गीत सितारे बन के
आसमान में चमक रहे हैं
तुम जब आसमान में देखोगे
तो हर तारा रुँधे स्वर में
तुमसे मेरी ही बात करेगा
तुम उन बातों को समझ तो पाओगे ना ?
साधना वैद
तुम जब आसमान में देखोगे
ReplyDeleteतो हर तारा रुँधे स्वर में
तुमसे मेरी ही बात करेगा
तुम उन बातों को समझ तो पाओगे ना
bahut dard bhara hai aapne is kavita men.bemisaal hai apki yah shabd rachna...
तुम्हारी नींद ना टूटे इसलिये
ReplyDeleteमैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
बंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..हरेक पंक्ति दिल के दर्द को बहुत प्रभावी ढंग से उकेरती है..बहुत सुन्दर..
शब्द और भाव का अनूठा मेल किया है आपने अपनी इस रचना में...बधाई...
ReplyDeleteनीरज
दरवाज़े को नज़रों से सहलाना , यादों के पुष्प खिडकी के नीचे रखना ...घुटी सी सुबकी को दरख़्त पर और क्यारी में आसुंओं की नमी ...बहुत सुन्दर शब्दों में बाँधी हैं भावनाएं ...
ReplyDeleteमन को छूती हुई नज़्म ....बार बार पढने का मन हो रहा है ..अभी भी कई बार पढ़ चुकी हूँ :)
तुम अपने बगीचे की क्यारी में
ReplyDeleteपौधे रोपने के लिये जब
मिट्टी तैयार करोगे तो
तुम वहाँ मेरे आँसुओं की नमी
ज़रूर महसूस कर पाओगे....
भावुक कर देने वाली रचना ।
.
मैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
ReplyDeleteबंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?
padha hoga to mera chehra kuch pal ko tumhare saath raha hoga
तेज़ हवा के साथ
ReplyDeleteउस दरख़्त के पत्ते उड़ कर
तुम्हारे आँगन में आकर गिरें तो
उनके साथ वह सुबकी भी
तुम्हारी झोली में जा गिरे !
ये क्या लिख डाला साधना जी,...कुछ कहते नहीं बन रहा...
निस्स्वार्थ-निर्मल प्रेम की परकाष्ठा...
बेहद ख़ूबसूरत कविता
dard se pari poorn abhivyakti
ReplyDeleteऔर चुपके से
ReplyDeleteअपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?
दर्द भरी भीगी भीगी कोमल सुंदर रचना -
साधना जी वेसे तो मुझे कविता कम ही समझ आती हे, लेकिन जब भी आप की कविताये पढता हुं तो बंध सा जाता हुं, ओर तारीफ़ करने के लिये मुझे सही शव्द नही मिलते, आज भी आप की कविता को दो तीन बार पढा... बस यही कहुंगा बहुत सुंदर. एक एक शव्द बेशकिमती हे. धन्यवाद
ReplyDeleteइस कविता के माध्यम से आपने जो रुलाने की होल सेल दुकान खोल रखी है, उसका एक बड़ा भाग मैं ले आया हूं।
ReplyDeleteअब जी भर कर इस रुदन को जी लूं फिर आऊंगा प्रतिक्रिया देने।
इतनी अच्छी प्रेम कविता मैंने ब्लॉग पर नहीं पढी है। हो सकता है मैंने ब्लॉग पर कविताएं कम पढी हो ... पर इतना भी कम नहीं।
ReplyDeleteपहले ये बांट लूं।
रास्ते में वो मिल गया अच्छा लगा,
सूना-सूना रास्ता अच्छा लगा।
कितने शिकवे थे मुझे थे तकदीर से,
आज क़िस्मत का लिखा अच्छा लगा।
मुझमें क्या है मुझको कब मालूम है,
उससे पूछो उसको क्या अच्छा लगा।
• आपकी इस रचना में प्रेम है तो सिर्फ़ घटना बनकर नहीं है।
ReplyDeleteअब ये भी बांट लूं ..
कोरे काग़ज़ सा बदन, हाथ लगाए कौन,
मन में बातें सैंकड़ों, पर होंठों पर मौन।
आपसे मुझे जलन हो रही है।
ReplyDeleteगुस्सा भी आ रहा है।
• इसमें लोकगीत जैसी उदासी और शोकांतिका है।
• इसमें शांत बुनावट है, कहीं कोई हड़बड़ी या अतिरिक्त आवेश नहीं है।
आपकी भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं, जीवन की तहों में झांकने वाली आंख है।
* इस कविता का काव्य-शिल्प हमें सहज ही कवयित्री की भाव-भूमि के साथ जोड़ लेता है। चित्रात्मक वर्णन कई जगह बांधता है।
** शब्दों का चयन, अपनी भिन्न अर्थ छटाओं से कविता को ग्राह्य बनाए रखता है।
*** और अंत में किया गया प्रश्न ‘तुम उन बातों को समझ तो पाओगे ना ?’ हमारे संवेदन को छूकर आंखों के कोर को गीला कर जाता है?
तुम अपने बगीचे की क्यारी में
ReplyDeleteपौधे रोपने के लिये जब
मिट्टी तैयार करोगे तो
तुम वहाँ मेरे आँसुओं की नमी
ज़रूर महसूस कर पाओगे....
साधना जी मार्मिक अभिव्यक्ति है। कल्पनाओं को ऐसे शब्दों मे समेटने की महारत आप मे है। बहुत अच्छी लगी रचना। शुभकामनायें।
बड़ी ही चमत्कृत करने वाली नवीन कोमल शब्द-योजनाओं से गुम्फित कविता बड़ी मोहक लगी। साधुवाद।
ReplyDeleteअपने माननीय पाठकों की हृदय से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने कविता के मर्म को समझा और सराहा ! आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद ! अपनी प्रतिक्रियाओं से इसी तरह मुझे प्रोत्साहित करते रहें ! आभारी रहूँगी !
ReplyDeleteबहुत सुंदरता से मन के भाव प्रदर्शित किये हैं |बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteआशा
रेशमी एहसास भरे .. प्रेम को moun की भाषा में ही कह दिया ... ..
ReplyDeleteलाजवाब रचना .
तुम जब आसमान में देखोगे
ReplyDeleteतो हर तारा रुँधे स्वर में
तुमसे मेरी ही बात करेगा
तुम उन बातों को समझ तो पाओगे ना
यह प्रश्न अनंत कल से चला आ रहा है..
अप्प ने एक नए अंदाज में उकेरा..
बधाइयाँ
विरले ही ऐसी कविता मिलती है,जिसे बार बार पढने को मन करे.
ReplyDeleteबहुत ही हृदय स्पर्शी कृति है.
एक दिन लेट मिली.
१४ फरवरी को मिलनी चाहिए थी प्रेम की यह अभिव्यक्ति.
आपकी कलम को ढेरों सलाम
बहुत सुंदर ...मनोभावों और शब्दों का कमाल चित्रण .....
ReplyDelete.
ReplyDeleteकल रात ख्वाब में
मैं तुम्हारे घर के कितने पास
पहुँच गयी थी !
तुम्हारी नींद ना टूटे इसलिये
मैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
बंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?
@ अरे, ख्वाब में करते हो इतने हौसले.
बंद दरवाजे पे खुद का नाम पी के घोंसले.
नींद में करते हो छिपकर काम स्व-पलकों तले.
स्वप्न में भी चाहते हो पिय केवल नींद ले.
प्रेम की इस साधना से व्यक्त होता है सखेद.
उपजता रतिशून्य भावी भय मिश्रित निर्वेद.
.... फिलहाल इतना ही.
.
sadhna ji maafi chahungi aapki kavita par bahut late pahuchi. life ki aur priorities ke aage kayi baar apni icchhaon ko side line karna padta hai, so aapse kshama chaahti hun.
ReplyDeleteaapki kavita bahut bahut sunder hai. bahut sunder alankaar prayog kiye jis se kavita ki khoobsurti me char chaand laga diye hain.
तुम्हारी नींद ना टूटे इसलिये
ReplyDeleteमैंने दूर से ही तुम्हारे घर के
बंद दरवाज़े को
अपनी नज़रों से सहलाया था
और चुपके से
अपनी भीगी पलकों की नोक से
उस पर अपना नाम उकेर दिया था !
सुबह को जब तुमने दरवाजा खोला होगा
तो उसे पढ़ तो लिया था ना ?
बहुत प्रभावी ढंग .बहुत सुन्दर..
ख़ूबसूरत कविता
बहुत सुन्दर और दर्द भरी पंक्तियाँ
ReplyDeleteशायद मेरे आँसुओं से सींचे जाने से
ReplyDeleteतुम्हारे बाग के फूल और स्वस्थ,
और सुरभित, और सुन्दर हो जायें !
आपकी हर कविता की तरह बहुत ही उत्कृष्ट कविता।
सादर
सशक्त अभिव्यक्ति है आपकी |
ReplyDeletebhaut hi acchi rachna....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुती.....
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteफिर से पढ़ी ..अच्छा लगा पढ़ना ... यह रचना मेरे दिल के करीब है :)
ReplyDeleteBHAVPOORNA RACHANA
ReplyDeleteItni dard bhari panktiyan ki padh ke meri akhein nam si ho gai. Itni gahrai ki laga sab kuch sach mein ho raha meri aakhon ke samne chal raha hai.. bahut hi sundar rachna..
ReplyDeleteअद्भुत अप्रतिम रचना....
ReplyDeleteसादर.
बहुत गहरा अहसाह लिए दर्द भरी कविती |सुन्दर शब्द चयन |
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