Wednesday, June 27, 2012

मेरे सवालों का जवाब दो


मासूम माही की
आँसुओं से भरी आँखें
एक शाश्वत सवाल लिए  
मुझे अंधेरी रात के
सन्नाटों में भी
आसमान से झाँकती
दिखाई देती हैं
जैसे पूछ रही हों
माँ, बाबा
जिन हाथों से आप दोनों
अस्सी घन्टों तक
अपनी छाती और माथा
कूटते रहे
उन हाथों से
चंद मिनिट में
एक पत्थर के टुकड़े से
उस गड्ढे को
क्यों नहीं ढक सके
जिसमें मैं गिर गयी थी ?
बाबा !
हम गरीब बच्चों की
सुरक्षा के लिए आप
अकर्मण्य सरकार के
ऐसे नुमाइंदों पर
निर्भर क्यों हो गये
जो कभी पैदल
चलते ही नहीं
कि उन्हें ये गड्ढे
दिखाई दें !
जिनके घर के
हर एक बच्चे के लिए
आलीशान बंगलों में   
कई-कई सुरक्षाकर्मी
तैनात रहते हैं 
वे सड़कों पर खेलने को  
मजबूर हम जैसे
गरीब बच्चों की
हिफाज़त का भला
क्या ख़याल रख पायेंगे ?
बाबा ! 
जो हाथ दिन रात
मेहनत कर
औरों के लिए
कई मंजिला भवन
बना सकते हैं
वो हाथ अपने बच्चों की
सुरक्षा के मामले में  
इस तरह से 
पंगु कैसे हो गये 
कि एक गड्ढा 
ढकने के लिए 
वो किसी और की 
मदद के लिए 
मजबूर हो गये ?
बाबा !
इन्हें कहाँ फुर्सत है
तरह-तरह के घोटाले
करने से
और फिर उनकी
लीपा पोती से ,
हम बच्चों को तो
सिर्फ आपकी चौकसी ही
बचा सकती है !
जो यहाँ चूके बाबा
तो बाद में तो फिर
हाथ ही मलते
रहना होगा !
और मुझ जैसी 
कई माहियों को 
इस भूल का
खामियाजा 
भरना होगा !

साधना वैद

Sunday, June 24, 2012

कुछ तो कहो


उँगलियों की
शिथिल पकड़ से
सब्र के आँचल का
रेशमी सिरा
छूटता सा जाता है !
एक बाँझ प्रतीक्षा का
असह्य बोझ
हताशा से चूर
थके मन पर
बढ़ता सा जाता है !
सुकुमार सपनों की
आशंकित अकाल
मृत्यु का शोक
पलकों के बाँध तोड़
आँसुओं के सैलाब में
बहता सा जाता है !
मुझे कब तक
अपने अवसन्न अधरों पर
तुम्हारे स्वागत के लिए
स्वरबद्ध किये  
सदियों पुराने गीतों को
दोहराते हुए
बैठे रहना होगा !
अब ना तो
आवाज़ में वो कशिश बाकी है
कि एक अलाप पर
बुझे दीप जल उठें
और अन्धेरा दूर हो जाये  
ना संगीत में वो जादू है
कि एक तान पर
मेघ गगन में छा जायें
और घनघोर वृष्टि हो जाये !
कुछ तो कहो  
क्या उपाय करूँ
कि ज्वर से तप्त
इस दग्ध तन मन को
कुछ तो राहत
कुछ तो शीतलता
मिल सके !  

साधना वैद  



Friday, June 22, 2012

एक विलक्षण व्यक्तित्व – श्री हरिशंकर रावत


आइये आज आपका परिचय एक ऐसे विलक्षण व्यक्ति से करवाती हूँ जिनकी निष्ठा, लगन एवं समर्पण की अद्भुत भावना ने एक सूखे टीले को हरे भरे खूबसूरत चमन में बदल दिया ! पेड़ पौधों, फूल पत्तियों से बेइंतहा प्यार और बागबानी के अदम्य शौक ने इन्हें उस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर दिया जिस पर यदि उनका साथ देने के लिए चंद हमकदम और मिल जायें तो शहर की सूरत ही बदल जाये !
ये हैं श्री हरिशंकर रावत जी ! इनकी भवें और पलकों के सफ़ेद बाल इनकी उम्र का सहज ही संकेत दे रहे हैं ! लेकिन ये जिस जोश खरोश के साथ एक कंधे पर फावड़ा और दूसरे पर पानी की छागल लेकर शाहजहाँ पार्क के हर कोने में नए नए पौधे रोपते हुए दिखाई देते हैं वह निश्चित रूप से अनुकरणीय है !
हरिशंकर जी अपनी युवावस्था में एम्पोरियम के व्यवसाय से जुड़े थे ! उनके तीन बेटे थे ! एक बेटे की कैंसर से मृत्यु हो गयी ! दूसरा बेटा एल. आई. सी. में मैनेजर है तथा तीसरा बेटा आर्मी में लेफ्टीनेंट है ! घर परिवार की जिम्मेदारियों से ज़रा कुछ राहत मिली तो बागबानी का शौक उन्हें शाहजहाँ पार्क के उन उपेक्षित हिस्सों की तरफ खींच कर ले आया जहाँ ज़मीन सूखे टीले सी बंजर पड़ी हुई थी ! वे अकेले ही फावड़ा और कुदाल ले उस ज़मीन को समतल करने में जुट गये ! उनकी यह स्वयंसेवा पार्क के अधिकारियों और कर्मचारियों को रास नहीं आयी ! उन्होंने जम कर इनका विरोध किया और किसी भी तरह का सहयोग देने से इनकार कर दिया ! हरिशंकर जी ने हार नहीं मानी ! वे इस सारे असहयोग और विरोध को परे सरका निष्काम भाव से अपने काम में लगे रहे ! उस बंजर ज़मीन को तराश कर वे उसमें घने छायादार वृक्ष लगाना चाहते थे ! गहन अध्ययन कर वे भूमि के अनुकूल पेड़ों का चुनाव करते और फिर अपने पास से खरीद कर उन्हें उपयुक्त स्थान पर लगाते ! पौधों में खाद पानी की व्यवस्था भी वे स्वयं अपने स्तर पर ही करते ! हरिशंकर जी की यह मेहनत और लगन रंग लाई ! समुचित देखभाल से पौधे जब बड़े होने लगे और उनका रूप रंग आकार प्रकार लोगों को आकर्षित करने लगा तो धीरे-धीरे पार्क के अधिकारी और माली भी उनके इस जूनून के कायल होने लगे ! उन्होंने मान लिया कि हरिशंकर जी अपनी धुन के पक्के हैं और आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं ! फिर वे जो भी कर रहे थे वह निस्वार्थ भाव से कर रहे थे जिसके लिए वे अपना तन मन धन सभी अर्पित कर रहे थे ! इससे पार्क का वह हिस्सा भी सुन्दर और हरा भरा हो गया था जहाँ जाने से लोग पहले कतराते थे ! धीरे-धीरे उनका मन भी पिघला और हरिशंकर जी को अब इतना सहयोग मिलने लगा कि कम से कम उन्हें पेड़ों में पानी देने के लिए पार्क के संस्थान से ही पानी मिलने लगा ! शाहजहाँ पार्क में उनके अपने लगाये हुए लगभग ३०० पेड़ हैं जो सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं !
निरभिमानी हरिशंकर जी किसी भी प्रकार की प्रशंसा और प्रसिद्धि की बात से ही संकुचित हो जाते हैं ! उनका मानना है कि प्रशंसा से अभिमान हो जाता है और अभिमान से वे दूर रहना चाहते हैं ! वे कहते हैं कि यह कार्य वे सेवा के लिए करते हैं शौक के लिए नहीं ! पेड़ पौधों के लिए खर्च किये गये धन को वे ईश्वर की आराधना के लिए किया गया समर्पण भर मानते हैं ! उनका कहना है तमाम सारे लोग बैंकों में धन जमा करते हैं ! कालान्तर में किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाते हैं और उनका जमा किया हुआ सारा धन दवा इलाज में खर्च हो जाता है ! उनका दावा है सोलह सत्रह साल से उन्हें कभी बुखार तक नहीं आया है !
हरिशंकर जी जैसे जीवट वालों की आज के परिवेश में बहुत ज़रूरत है ! उनकी निष्ठा और लगन शिमला के सैमुअल इवान स्टोक्स की याद दिला देती है जिन्होंने अकेले अपने बलबूते पर सेव के मधुर फलों के बीज हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में दूर-दूर तक बोये थे और भारत में पहली बार इस फल की पैदावार आरम्भ की थी ! इससे पहले यह फल जापान से आयात किया जाता था ! स्टोक्स की मेहनत और दूर दृष्टि ने भारत को इस फल का आज निर्यातक बना दिया है ! हरिशंकर जी के जूनून में भी मुझे वही आँच दिखाई देती है ! हमारी भी यही दुआ है कि वे सदा इसी प्रकार स्वस्थ रहें और प्रकृति और पर्यावरण की इसी प्रकार देखभाल करते रहें ! हम सभीको उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और अपने आस पास के परिवेश और पर्यावरण की रक्षा के लिए उनका अनुकरण करना चाहिए !

साधना वैद   

Saturday, June 16, 2012

मुझे आप याद आते हैं बाबूजी !



 













जब-जब भीड़ भरी राहों पर
किसी नन्हीं बच्ची को
बड़ी शान से अपने पिता के
कन्धों पर सवार देखती हूँ
मुझे आप याद आते हैं बाबूजी !

जब-जब बच्चों को
‘अबू बैन एडम’ और ‘साम ऑफ लाइफ’
का भावार्थ समझाती हूँ
मुझे आप याद आते हैं बाबूजी !

जब-जब किसी बुज़ुर्ग को
अपनी उम्रदराज़ पत्नी के
आँचल से अपने हाथ और चेहरा
पोंछते हुए देखती हूँ
मुझे आप याद आते हैं बाबूजी !  

जब-जब ज़िंदगी के मुश्किल सवाल
मुझे पेंच दर पेंच उलझाते जाते हैं
और उनका कोई हल मुझे
सुझाई नहीं देता ,
मुझे आप याद आते हैं बाबूजी !

सच तो यह है कि
उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर भी
अपनी हर समस्या, हर उलझन ,
हर चिंता, हर फ़िक्र, हर परेशानी,
के निदान के लिए मुझे
आज भी सिर्फ और सिर्फ
आप ही याद आते हैं बाबूजी !

साधना वैद   

Thursday, June 14, 2012

गिरह


कितनी कस कर बाँधा था
उसने अपने मन की
इस गिरह को
कितना विश्वास था उसे कि
यह सात जन्मों तक
नहीं खुलेगी !
लेकिन वक्त के फौलादी हाथ
कितने ताकतवर हैं
यह अनुमान वह
कहाँ लगा पाई !
सात जन्मों के लिये
जो गिरह बाँधी थी
वह चंद महीने भी
नहीं चल पाई !
प्यार की चूनर
चीर-चीर हो फट गयी
और विश्वास की
ज़र्क वर्क चादर में
चंद दिनों में ही
ना जाने कितने
पैबंद लग गये !
बेरहम दुनिया के
तीखे नश्तरों से
छलनी हुआ अपना
घायल मन और
प्यार और विश्वास
की जर्जर चिन्दियाँ
अपनी कलाइयों में लपेटे
वह बाध्य थी
एक अनजानी डगर पर
चल पड़ने के लिये
जिस पर दूर-दूर तक
किसी हमकदम के
कदमों के निशाँ
उसे नज़र नहीं आते थे
और ना ही उसे
कोई परिचित आवाज़
सुनाई देती थी
जो उसके मन को
सुकून से भर जाये !
बस उसे चलते जाना था
चलते ही जाना था  
बिना थके बिना रुके
हर क्षण हर पल
एक अंतहीन सफर पर !


साधना वैद !