Wednesday, June 24, 2015

ख्वाब और हकीकत



नहीं लौटना चाहता मन
फिर से उन रास्तों पर
जिन्हें उम्र के इतने लंबे सफर में
बहुत पीछे छोड़ आये हैं !
जिन पर बार-बार पलट कर
चलने की बेमानी सी कोशिश से
कभी खुद को रोक नहीं पाये
और हर बार इस नाकाम कोशिश के बाद
नाज़ुक दिल पर पड़ने वाले छालों को
कभी किसीको दिखा भी नहीं पाये
क्योंकि ये फासले पैरों ने नहीं
बड़ी जद्दोजहद के साथ 
दिल ने तय किये थे !
किसको परवाह थी
किस राह पर कितनी हसीन यादों के
कितने खुशबू भरे मंज़र
चप्पे-चप्पे पर बिखरे पड़े हैं ! 
अतीत के गुमनाम अंधेरों में छिपी
इस अनमोल दौलत का किसे हवाला दें !
ज़रूरी तो नहीं
जो तुम्हारे लिये बेशकीमती हो
वह किसी और के लिये भी
उतना ही मूल्यवान हो !
और फिर अकेले बैठ कर
हाथ से सरकी हुई इस दौलत का
जश्न भी क्या मनायें !
क्या फर्क पड़ता है किसीको
किसी दुर्गम स्थान पर स्थित
किसी मीनार या किसी चट्टान पर
कितनी मुश्किल से पहुँच कर
कितने समर्पण और मनोयोग से
किसने किसका नाम उकेरा !
जिसका था उसीने न देखा तो
बाकी सारी दुनिया देखे न देखे
क्या फर्क पड़ता है !
दुनिया के लिये तो वह नाम भी
बाकी सारे सैकड़ों हज़ारों नामों की तरह ही है
नितांत अनजान और अपरिचित !
बल्कि दुनिया ऐसी
बचकाना और बेवकूफाना हरकत
करने वालों को बड़ी हिकारत से
लानत भेजती है कि उन्होंने
इतिहास की अनमोल धरोहर पर
अपना नाम उकेर कर उसे  
नुक्सान पहुँचाने की कोशिश की !  
क्या हासिल होगा हवाओं में
ना जाने कबकी विलीन हो चुकी
खुशबुओं की नर्म नाज़ुक चादर को
अपने इर्द गिर्द लपेट कर रखने की
फ़िज़ूल सी कवायद को दोहरा कर !
कितनी उम्र होती है इन खुशबुओं की ?
चंद लम्हे, चंद घंटे, चंद दिन
चंद हफ्ते या फिर चंद साल ?
उसके बाद कोई खुशबू बाकी नहीं रहती !
बाकी रहता है तो
सिर्फ उसका मुर्दा सा अहसास
जिसे पल भर को ही सही
जी लेने की कोशिश में
सारी उम्र अपने सीने से लगा
हम ढोए जाते हैं, ढोए जाते हैं
और सिर्फ ढोए ही जाते हैं !
क्या होगा मन में
यादों के अलाव जला के ,
मन के घनघोर वीराने में सुलगे
अतीत की भूली बिसरी यादों के
इस अलाव से जो चिनगारियाँ निकलती हैं
वो आसमान के सितारों की तरह
प्यार की राह रोशन नहीं करतीं
दिल की दीवारों को जला कर उनमें
बड़े-बड़े सूराख कर देती हैं
जो वक्त के साथ धीरे-धीरे
नासूर में तब्दील हो जाते हैं !
कुछ दिनों तक अच्छा लगता है
इन बाँझ सपनों की जीना लेकिन  
जिस भी किसी दिन यह
मोहनिंद्रा भंग होती है और
यह रूमानी दिवास्वप्न टूटता है  
खुद को अगले ही पल
मोहोब्बत की सबसे ऊँची मीनार से
हकीकत की सख्त ज़मीन पर
गिरता हुआ पाते हैं और
यह दुःख तब और दोगुना हो जाता है  
जब देखते हैं कि उन ज़ख्मों पर
मरहम रखने वाला भी कोई  
आस पास नहीं है !

साधना वैद
  


Saturday, June 20, 2015

पिता

पितृ दिवस की आप सभीको हार्दिक शुभकामनायें ! 



पिता
एक ऐसा जुझारू व्यक्तित्व
जिसने चुनौतियों से
कभी हार न मानी
हर मुश्किल घड़ी में
वह और मज़बूत होकर निखरा
हर विपदा को अपने ध्रुव इरादों से
जिसने चूर चूर करने की ठानी !
पिता
एक ऐसा सहृदय इंसान
जिसने अपनी कोमल भावनाओं को
हमेशा सीप की तरह
एक कठोर आवरण में छिपा कर रखा
जो अपने बच्चों के लिये
कभी गुरू बना तो
कभी बंधु और कभी सखा !
पिता
एक ऐसा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
जिसने अकेले ही अपने बलिष्ठ कन्धों पर
गृहस्थी का जुआ रखा
अपनी मेहनत, अपनी लगन
और अपने समर्पण से
हर अनुकूल और प्रतिकूल मौसम में
इतनी फसल उगाई कि
अपने घर परिवार, नाते रिश्तेदार के अलावा
किसी भी अतिथि किसी भी साधू को  
कभी भूखा न रखा !
पिता
एक ऐसा ज्योतिपुन्ज
जिसका प्रकाश चौंधियाता नहीं
राह दिखाता है,
एक ऐसा शक्तिपुंज
जिसकी ताकत आतंकित नहीं करती
हमारी क्षमता को बढ़ाती है,
एक ऐसा प्रेमपुन्ज
जिसका प्यार हमारे व्यक्तित्व को
दबाता नहीं
विकसित करता है
निखारता है, उभारता है, 
हमें सम्पूर्ण बनाता है
बिलकुल अपनी ही तरह !

साधना वैद





Friday, June 19, 2015

अपना देश महान – घूरे पर भगवान


   आस्था की बात है ! अपने धर्म का अपनी इच्छा के अनुसार पालन करने का बुनियादी अधिकार हमारे देश के संविधान ने हर भारतवासी को बड़ी उदारता के साथ दिया है ! शायद इसीलिये प्रभु प्रेम की यह धारा अविरल निर्बाध बहती ही जाती है ! देश के हर हिस्से, हर शहर, हर मोहल्ले, हर गली, हर घर, हर कोने, हर दीवार, हर आले में किसी न किसी रूप में भगवान मिल जायेंगे ! फिर चाहे वे मूर्ति के रूप में हों, तस्वीर के रूप में हों, फोटो के रूप में हों या फिर कलेंडर पर छपे हों ! 
   यूँ तो कहते ही हैं कि भगवान कण-कण में विद्यमान होते हैं ! लेकिन भगवान का वह स्वरुप निराकार होता है इसलिए दिखाई नहीं देता ! और जो दिखाई न दे उस पर भला आस्था कैसे टिकेगी ! फिर आज के युग में तो धर्म और आस्था भी धंधे की वस्तु बन गये हैं ! बड़ा आसान हो गया है लोगों की आस्था को भुनाना ! किसी भी भगवान की कोई भी मिट्टी की मूरत या तस्वीर लाकर किसी पेड़ के नीचे या किसी चबूतरे पर स्थापित कर दीजिये, दो अगरबत्ती जला दीजिये, दो चार फूल चढ़ा दीजिये ! बस हो गया मंदिर तैयार ! इतना भी न करना चाहें तो मिट्टी का ढेला लेकर सिन्दूर से पोत कर रख दीजिये ! हर आने जाने वाला परम भक्तिभाव से शीश झुका कर न जाए तो हमारा नाम बदल दीजियेगा ! संभव है कुछ दिनों में चढ़ावा भी चढ़ने लगे ! 


   कई वर्ष पहले ‘सरिता’ में बात ऐसे बनी’ कॉलम के अंतर्गत ऐसा ही एक वाकया पढ़ा था ! कलकत्ता की एक बहुमंज़िला इमारत के सफाई कर्मचारी की व्यथा का किस्सा था ! उस इमारत में लिफ्ट नहीं थी ! और इमारत के सभी बाशिंदों को पान खाने का ज़बर्दस्त शौक था ! अब होता यह था कि ऊपर से नीचे तक सारी सीढ़ियाँ पान की पीक से रंगी पुती रहती थीं ! चौकीदार बेचारा सफाई करते-करते और लोगों से गन्दगी न फैलाने की मनुहार करते-करते हैरान परेशान ! लेकिन लोगों को जब सुधरना था ही नहीं तो सुधरते कैसे ! एक दिन इसी उधेड़बुन में वह हुगली के किनारे टहल रहा था कि उसे कुछ गोल-गोल पत्थर दिखाई दिये ! अपनी समस्या का एक नायाब नुस्खा उसे तुरंत ही सूझ गया ! उस दिन काम पर लौट कर उसने सीढ़ियों को ऊपर से नीचे तक बिल्कुल साफ़ करके धोया ! और हर मोड़ पर सिन्दूर लगा कर एक-एक पत्थर रख दिया ! एक दो फूल भी चढ़ा दिये और धूपबत्ती भी जला कर रख दी ! अब पान की पीक से गंदा करना तो दूर हर आने जाने वाला हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हुआ सीढ़ियों पर चढ़ता उतरता और कोई-कोई तो दो चार पैसे भी चढ़ा देता ! तो देखा आपने आस्था का कमाल ! ना केवल चौकीदार की चिरंतन समस्या का समाधान हुआ बल्कि उसके जेब खर्च का भी अच्छा खासा इंतज़ाम हो गया ! 
  

   इस किस्से में एक बात ग़ौर करने लायक है कि चौकीदार ने पत्थर के भगवान स्थापित करने से पहले सीढ़ियों को भलीभाँति धोया और बाद में इमारत के निवासियों ने भी भगवान के स्थान को स्वच्छ रखने में पूरे मन से सहयोग किया ! आज के समय में हमारे प्रधान मंत्री जी के स्वयं पहल करने के बाद और देश वासियों को अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखने के लिये दी गयीं अनेकों हिदायतों, नसीहतों, सलाहों, चेतावनियों के बाद भी स्वच्छता के अभियान की गाड़ी इंच भर भी आगे सरकती दिखाई नहीं देती ! कम से कम अपने शहर के बारे में तो यह बात मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूँ ! 


   चित्र में आप जिस स्थान का नज़ारा कर रहे हैं वह हमारे शहर की प्रमुख सड़कों में से एक पर स्थित है और शहर के पूर्व मेयर के घर के बिलकुल सामने है ! बिजली के ट्रांसफॉर्मर के नीचे भगवान जी विराजमान हैं ! इनका यह निवास दो मंज़िला है ! और दीपक जलाने की या अगरबत्ती लगाने की ज़हमत उठाने की भी क्या ज़रूरत है ! चोरी की बिजली से ही भगवान का घर भी रोशन हो जाता है ! भगवान का आवास घूरे पर है जिस पर दिन भर कुत्ते और सूअर घूमते रहते हैं ! अब सभी प्राणी भगवान के ही बनाये हुए हैं तो इनसे कैसी नफ़रत, कैसा दुराव या कैसा परहेज़ ! बस उनका भगवान जी के सिर के ऊपर विचरण करते रहना कभी-कभी अखर जाता है ! तब यह कहना मुश्किल हो जाता है कि यहाँ ‘घूरे पर भगवान’ हैं या ये ‘भगवान ही घूरे के’ हैं ! खैर जाने दीजिये ना ! सारे संसार के हर प्राणी, हर जीव जंतु का ध्यान रखने वाले भगवान स्वयं अपना ध्यान तो रख ही सकते हैं ! है कि नहीं ? किसी परम भक्त के मन में किसी दिन अनन्य श्रद्धा भाव उमड़ा और उसने कहीं से लाकर घूरे के पास ट्रांसफॉर्मर के नीचे मूर्तियाँ रख दीं ! तेल बत्ती का खर्चा भी बच रहा था ! अब यहाँ भगवान जी का आदर सम्मान हो या निरादर उसकी बला से ! अफ़सोस सिर्फ इस बात का है कि ऐसी अनर्गल गतिविधियों की ओर ना तो किसी का ध्यान जाता है ना ही इन पर किसी तरह का कोई नियंत्रण या अंकुश है ! सच पूछा जाये तो शहर के रखरखाव के लिये ज़िम्मेदार व्यवस्था की निष्क्रियता और सम्बंधित अधिकारियों की उदासीनता की पराकाष्ठा का यह ज्वलंत उदाहरण है !

   यह तो एक छोटी सी बानगी है ! शहर की सैर पर ज़रा  निकलिये तो सही ! इससे भी कहीं अधिक भव्य कूड़े के ढेरों पर अनेकों जीर्ण शीर्ण मंदिरों में अपनी दुर्दशा पर उदास बैठे हुए लगभग सारे ही भगवान आपको दिखाई दे जायेंगे ! कभी उनसे भी तो 'हेलो' 'हाय' कर लीजिए ! आखिर यूँ ही थोड़े ही है ‘अपना देश महान’ !



साधना वैद