Wednesday, November 25, 2015

‘काँच के शामियाने’ – मेरी नज़र से


  हाल ही में रश्मि रविजा जी का उपन्यास ‘काँच के शामियाने’ पढ़ कर समाप्त किया है ! कुछ उनके प्रखर लेखन के ताप से और कुछ काँच के शामियानों के नीचे खड़ी मौसमों की बेरहम मार झेलती उपन्यास की नायिका जया की व्यथा कथा की आँच से मैं स्वयं को भी झुलसा हुआ ही पा रही हूँ ! इस उपन्यास के बारे में क्या कहूँ ! जया के जीवन का हर प्रसंग लेखिका ने जैसे अकथनीय दर्द की सियाही में अपनी कलम को गहराई तक डुबो कर लिखा है !

‘काँच के शामियाने’ एक नारी प्रधान उपन्यास है ! कहानी की नायिका जया एक अत्यंत प्रतिभासंपन्न, कोमल, समझदार, संवेदनशील, कवि हृदया युवती है जिसका विवाह एक बहुत ही गर्म मिजाज़ के युवक राजीव से कर दिया जाता है जो विवाह से पहले जया से कई बार भांति-भांति से अपना प्रेम निवेदन करता है और हर बार जया के द्वारा इनकार कर दिए जाने के बाद अपनी माँ के हाथों शादी का प्रस्ताव भेजता है ! एक पितृहीन कन्या के लिये किसी प्रशासनिक अधिकारी का रिश्ता स्वयं चल कर आये भारतीय समाज में इससे अधिक सुख की बात लड़की के घरवालों के लिये और क्या हो सकती है ! लिहाज़ा बिना अधिक खोज खबर लिये वर पक्ष की टेढी मेढ़ी माँगों और व्यंग तानों को सुनते सहते झेलते हुए भी जया की शादी राजीव से कर दी जाती है ! राजीव और उसके परिवार वालों का असली रूप शादी के बाद सामने आता है ! जिसे देख कर जया एकदम से स्तब्ध और आतंकित हो जाती है ! यह उपन्यास अनिच्छित, असफल एवं बेमेल विवाह के बंधन में बँधी एक स्त्री के अपने नये घर में स्वयं को स्थापित करने की और एक मरणासन्न रिश्ते को जिलाए रखने के लिये किये जाने वाले सतत संघर्ष की दुःख भरी गाथा है !  

इसमें दो ही प्रमुख पात्र हैं एक नायिका जया और दूसरा, चाहे उसे नायक कह लें या खलनायक, उसका पति राजीव ! बाकी सारे पात्र इन्हीं दोनों किरदारों के परिवार के सदस्य हैं जिनकी भूमिकाएं विशेष महत्वपूर्ण नहीं हैं ! ससुराल पक्ष के लोग जया को व्यंग तानों उलाहनों से छलनी करते रहने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते और मायके वाले उसे समाज का भय और अपनी असमर्थता का नकारात्मक पहलू दिखा पति के जुल्मो सितम को खामोशी से सहने और बेहतर भविष्य के लिये आशान्वित रहने की सतत सलाहें देने से कभी नहीं चूकते !

ससुराल में रह कर जया परिवार वालों की हर गलत सही बात का पालन कर स्वयं को उत्सर्जित करती जाती है ! अपने मन की अभिलाषाओं, इच्छाओं और सपनों को धो पोंछ कर जीवन की स्लेट से वह बिलकुल मिटा डालती है ! इस पर भी किसीके मुख से जब प्यार, प्रशंसा, सराहना के दो बोल उसे सुनने को नहीं मिलते तो वह कितनी क्षुब्ध और निराश हो जाती है इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण लेखिका ने इस उपन्यास में किया है ! सम्मान, प्यार, प्रशंसा चाहे ना मिले इस स्थिति को भी निर्विकार हो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन गृह प्रवेश के साथ ही जया जिस तरह से अपमान, तिरस्कार और हिंसा का सामना करती है वह दिल को दहला जाता है ! क्या नारी का प्राप्य यही है इस समाज में ?

यह सोच कर मन बहुत अवसादग्रस्त हो जाता है कि आज भी हमारी शिक्षा कितनी बौनी, निष्प्रभावी, और व्यर्थ ही है कि राजीव जैसे लोग व्यवस्था के शिखर पर पहुँच कर डिप्टी कलेक्टर तो बन जाते हैं लेकिन उनकी मानसिकता और व्यवहार किसी अभद्र, गँवार, बगैर पढ़े लिखे जाहिल आदमी की तरह ही बना रहता है ! विवाह के बाद जया का इस क्रूर, लालची, हृदयहीन इंसान की अमानुषिकता और अन्याय को चुपचाप झेलते रहना पाठकों के मन को भारी कर जाता है ! स्वार्थी और लालची ससुराल वालों की उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान और समाज के नीति नियमों की श्रंखलाओं से बँधे मायके वालों की पारंपरिक सोच के बीच में पिसती नारी की मनोदशा को लेखिका ने बखूबी बयान किया है ! लेकिन एक बेटी, बहू, पत्नी चाहे कितनी भी असहाय, दब्बू और निरीह हो, एक माँ अपने बच्चों के लिये कितनी सबल, दृढ़ और साहसी हो सकती है जया के व्यक्तित्व में आया यह प्रत्यावर्तन कहीं दूर तक मन को सहला जाता है ! माँ अपने बच्चों की रक्षा के लिये घायल शेरनी भी बन सकती है जया ने इसे सिद्ध करके दिखा दिया !

इतने कठिन संघर्ष के बाद जया का राजीव से अलग हो जाने का फैसला सुखद बयार की भाँति लगता है ! समाज की दकियानूसी सोच से निर्मित मायके और ससुराल के काँच के शामियानों के अंदर रह कर अपनी निजता और स्वाभिमान को खोने के बाद जया अपनी संकल्प शक्ति से खुद के लिये एक नया शामियाना तैयार करती है जिसके नीचे वह अपना और अपने प्यारे बच्चों का भविष्य सँवार सके उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे सके ! अपने इस नये नीड़ में सुकून भरी सुबह शामों में कविता लिखने की उसकी भूली बिसरी प्रतिभा उसमें महत्वाकांक्षाओं को अंकुरित करती है और वह जैसे अपनी कीमत पहचान कर आत्मविश्वास से भर उठती है ! कठिन जीवन यात्रा में उसकी रचनात्मकता जैसे किसी लंबी सी खोह के अंदर ओझल हो छिप गयी थी ! वही पूरी भव्यता और इन्द्रधनुषी सौंदर्य के साथ जब पुन: उद्भूत होती है तो उसे सर्वश्रेष्ठ कवियित्री के पुरस्कार से अलंकृत कर जाती है और उसे समाज में प्रतिष्ठा, प्रशंसा और प्रसिद्धि सभी प्राप्त हो जाते हैं जिसकी वह आरंभ से ही अधिकारी थी ! जया की यह श्रेष्ठ उपलब्धि हर नारी के मन में आशा, हर्ष और आत्मसम्मान की भावना का संचार कर जाती है !

उपन्यास की भाषा सबसे अधिक रोचक है ! परस्पर वार्तालाप में संवादों की बानगी देखते ही बनती है ! हर विवरण इतना रोचक और सजीव है कि पाठक स्वयं को उस दृश्य विशेष में सम्मिलित ही पाता है ! यह उपन्यास बिहार के आम मध्यम वर्ग की मानसिकता का बखूबी प्रतिनिधित्व करता है ! रश्मि जी ने इस उपन्यास के साथ हिंदी साहित्य जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है ! उनका हार्दिक अभिनन्दन तथा ‘काँच के शामियाने’ की अपार सफलता के लिये उन्हें अनंत शुभकामनायें !


साधना वैद

Sunday, November 22, 2015

जीवन की शाम



जनम दिया पालन किया, की खुशियाँ कुर्बान
बोझ वही माता पिता, कैसी यह संतान !

झुकी कमर धुँधली नज़र, है जीवन की शाम
जीवन के संघर्ष में, मिला कहाँ विश्राम !

स्वार्थसिद्धि में सब निरत, भरने में निज कोश
कब सुध लें माँ बाप की, है किसको यह होश !

सब अपने में हैं मगन, किसको देवें दोष
बाबा डॉक्टर के खड़े, दादी हैं बेहोश !

पालन करने में कभी, दिन देखे ना रात
वही पूज्य माता पिता, खाते अब आघात !

तानी जिसने धूप में, निज आँचल की छाँव
खड़ी वही ममतामयी, वृद्धालय की ठाँव !

खटती चौके में सदा, बूढ़ी माँ दिन रात
अक्सर रोटी सेकते, जल जाते हैं हाथ !

रोपा था जिस पेड़ को, घर आँगन के द्वार
 मरूँ उसीकी छाँह में, मत छीनो अधिकार ! 




साधना वैद

Wednesday, November 18, 2015

श्रम की महिमा



(१)   
बूढ़ी नानी चाँद पर, रहती चरखा कात
मीठा फल उनको मिले, खटते जो दिन रात !
(२)
जो श्रम से डरते नहीं, बनते उनके काम
हाथ धरे जो बैठते, क्रोधित उनसे राम !
(३)
श्रमिक हृदय पर सोहता, स्वेद बिंदु का हार
इस भूषण के सामने, हर गहना बेकार !  
(४)
सोते मीठी नींद में, करते दिन भर काम
सख्त धरा की सेज पर, करते हैं आराम !
(५)
माथे माटी का तिलक, हाथों में औज़ार
सिर पर छत आकाश की, धरती का आधार !
(६)
मिहनत का इनको नहीं, मिलता पूरा दाम
छोटे दिल के सेठ से, मिलता यही इनाम !


साधना वैद

Saturday, November 7, 2015

कुछ बदले से हैं




पल में फलक को नापते 
परवाज़ कुछ बदले से हैं, 
तहरीरे दास्तान के 
अल्फ़ाज़ कुछ बदले से हैं, 
बहती हवा के साथ जो 
चुपके से मुड़ कर चल दिया, 
उस दिलरुबा दिलदार के 
अंदाज़ कुछ बदले से हैं ! 


साधना वैद

Thursday, November 5, 2015

देहरी के अक्षांश पर - मेरी नज़र से


डॉ. मोनिका शर्मा के काव्य संकलन ‘देहरी के अक्षांश पर’ को पढ़ कर एक अनिर्वचनीय विस्मय के अनुभव से गुज़र रही हूँ ! हैरान हूँ कि इस पुस्तक की रचनाओं में व्यक्त नारी की हर वेदना सम्वेदना, हर व्यथा कथा, हर पीड़ा कैसे विश्व के किसी भी भूभाग में, किसी भी देश में, किसी भी शहर में, किसी भी मकान में अपनी मशीनी दिनचर्या में जुटी किसी भी उदास अनमनी गृहणी के मनोभावों की हमशक्ल हो जाती है और किसी भी कविता को पढ़ कर उसके मुख से यही उद्गार प्रस्फुटित होते हैं कि ‘ अरे ! यह तो मेरे ही मन की बात है’ या ‘ऐसा ही तो मेरे साथ भी हुआ है’ !

पुस्तक के हर पेज की दीवार पर विभिन्न आकार प्रकार के अनेकों दर्पण टंगे हुए हैं जिनके सामने से निकलने वाली हर नारी को अपना चेहरा उसमें दिखाई दे सकता है ! लेकिन यह भ्रम मन में मत पाल लीजियेगा कि यह केवल नारी प्रधान काव्य संग्रह है ! यह नारी मन की बात अवश्य कहता है लेकिन इसका संवाद उन सभी श्रोताओं के साथ भी है जिन्हें अपने घर में, अपने समाज में और अपने जीवन में नारी के अस्तित्व को लेकर अनेकों भ्रांतियां हैं और जिनमें परिमार्जन और परिष्कार की अपार संभावनाएं हैं !

मोनिका जी की रचनाएं अत्यंत संयत शब्दों में नारी मन की वेदना को अभिव्यक्ति देती हैं ! ये कवितायें मुखर स्वरों में विद्रोह का शंखनाद नहीं करतीं लेकिन धीमी धीमी उष्मा देकर सोये हुओं को जगाती हैं, दर्पण में उनका यथार्थ उन्हें दिखाती हैं तथा क्या है, क्या हो सकता था और क्या होना चाहिये का संकेत देकर अपना अभीष्ट पूरा कर लेती हैं ! इन्हें पढ़ने के बाद मन मस्तिष्क को वैचारिक मंथन के लिये यथेष्ट पाथेय मिल जाता है !

‘अनमोल उपलब्धियां, ‘कुछ आता भी है तुम्हें’, ‘अनुबंधित परिचारिका सी’ ‘फिरकनी,’ ‘सिंदूरी क्षितिज’, रसोईघर’, ‘देहरी के अक्षांश पर’ जैसी रचनाएं जहाँ एक आम गृहणी की गृहस्थी के मोर्चे पर कभी शेष ना होने वाली भूमिका की ओर संकेत करती हैं तो वहीं ‘अभी बहुत काम पड़े हैं’, ‘यथार्थ की माँग’, ‘देह के घाव’, ‘रिपोर्ट कार्ड’ ‘संकल्प और विकल्प’, ‘घर’, ‘स्त्रियों का संसार’ आदि अनेक रचनाएं हैं जो नारी की चेतना को धीमे से सुलगा कर जागृत करती हैं और उसके अंदर छिपी अनंत शक्तियों से उसका परिचय कराती हैं ! वहीं कई रचनाएं ऐसी भी हैं जिनमें कवियित्री स्वयं से रू ब रू होती है और अपने इस रूप पर स्वयं गर्वित और विमुग्ध भी होती है क्योंकि अपने इस रूप में उसे अपनी माँ की छवि दिखाई देती है ! सामाज में व्याप्त अनाचार ने भी कवियित्री को झकझोरा है ! ‘मानुषिक प्रश्न’, ‘बंदूकों के साये’, ‘आखिर क्यों जन्में बेटियाँ’ और ‘आखिर क्यूँ हुए विक्षिप्त हम’ ऐसी ही रचनाएं हैं जिनमें कवियित्री के संवेदनशील हृदय की पीड़ा मुखरित हुई है !  

इतने सुन्दर काव्य संकलन को अपने निजी पुस्कालय में संग्रहित करके अत्यंत हर्षित हूँ ! मोनिका जी की कलम को मेरी अनंत अशेष शुभकामनायें ! वे इसी तरह लिखती रहें और अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण के लक्ष्य संधान में निरत रहें यही कामना है ! उनका सशक्त लेखन निश्चित रूप से पाठक को आंदोलित करता है और समाज में विस्तीर्ण अप्रिय व अवांछनीय को बदल डालने की अपार क्षमता व संभावनाएं भी रखता है इसमें कोई संदेह नहीं है ! शुभकामनायें मोनिका जी !



साधना वैद  

Monday, November 2, 2015

दिव्य सौंदर्य


हिरनी जैसे नैन हैं, चंदा जैसा रूप 
कुंतल सावन की घटा, स्मित खिलती धूप ! 

आँखों का उपकार है, कह डाली हर बात 
अधर सकुच कर रह गये, करने को संवाद !  
 
कैसे समझायें उन्हें. अंतर के जज़्बात 
तस्वीरों से क्या कभी, हो सकती है बात !

मरहम रख दें ज़ख्म पर, अंतर्मन को खोल
हर पल छिन सुरभित करें, मधुर वचन अनमोल ! 

दग्ध हृदय शीतल करें, अमृत से मृदु बोल
कानों में रस घोलते, मिसरी जैसे बोल ! 
 
विषमय करता प्रेम को, मन में शक का वास 
स्नेहिल रिश्ते टूटते, जब टूटे विश्वास ! 
 
पूँजी है विश्वास की, इस जग में अनमोल 
इसके रक्षण हित सदा, तोल मोल के बोल ! 
 
शिथिल हुए बंधन सुदृढ़, ऐसी छल की मार 
प्यार भरोसा बह गये, गहरी शक की धार ! 

गहन अंध के कूप में. मैं थी खड़ी निराश 
सूरज बन आशा उगी, किया तिमिर का नाश ! 
 
समय चितेरे ने भरे, जीवन में दो रंग 
आशा संग निराश ज्यों, फूल शूल के संग ! 
 
आस निराशा जान लो, सिक्के के दो रूप 
ज्यों काँटों संग फूल हैं, अरू छाया संग धूप ! 
 
साधना वैद