Friday, March 29, 2019

दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती



दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती

झटक कर दामन खुशी रुखसत हुई

मोतियों की थी हमें चाहत बड़ी

आँसुओं की बाढ़ में बरकत हुई !



रंजो ग़म का था वो सौदागर बड़ा

भर के हाथों दे रहा जो पास था

हमने भी फैला के आँचल भर लिया

बरजने को कोई ना हरकत हुई !



बाँटने में वो बड़ा फैयाज़ था

नेमतों से कब हमें एतराज़ था

दर्द देने के बहाने ही सही 

चल के घर आने की तो फुर्सत हुई !



हमको उसकी बेरुखी का पास था

चोट देने का ग़ज़ब अंदाज़ था

जायज़ा लेना था हाले दर्द का

ज़ख्म देने को नये शिरकत हुई !



हम न उससे फेर कर मुँह जायेंगे

हर सितम उसका उठाते जायेंगे

हो न वो मायूस अपनी चाल में

इसलिए बस दर्द से उल्फत हुई !



साधना वैद

एक आँख पुरनम



 

न तुझे पास अपने बुला सके   
  न तेरी याद को ही भुला सके   
एक आस दिल में जगी रही  
न जज़्बात को ही सुला सके !

तू पलट के ऐसे चला गया
 ज्यों कभी न देखा हो हमें   
न आवाज़ देते ही बना
न नज़र से तुझको बुला सके !

तुझे ज़िंदगी की तलाश थी
तू खुशी की राह पे चल पड़ा
हमें चाह दरिया ए दर्द की
कि खुदी को उसमें डुबा सकें !

तुझे रोशनी की थी चाहतें
तूने चाँद तारे चुरा लिये
हमें हैं अंधेरों से निस्बतें
कि ग़मों को अपने छिपा सकें !

तेरे लब पे खुशियाँ खिली रहें
या खुदा दुआ ये क़ुबूल कर
जो मोती गिरें मेरी आँख से  
तेरी राह में वो बिछा सकें !


चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद

Thursday, March 28, 2019

दिग्भ्रमित मतदाता


मतदान का समय नज़दीक आ रहा है । चारों ओर से मतदाताओं पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें । इस बार चूक गये तो अगले पाँच साल तक हाथ ही मलते रह जायेंगे इसलिये सही प्रत्याशी को वोट दें, सोच समझ कर वोट दें, जाँच परख कर वोट दें, यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि प्रत्याशी का कोई आपराधिक अतीत ना हो, वह सुशिक्षित हो, चरित्रवान हो, देशहित के लिये निष्ठावान हो, जनता का सच्चा सेवक हो और ग़रीबों के हितों का हिमायती हो, आम आदमी की समस्याओं और सरोकारों का जानकार हो और संसद में उनके पक्ष में बुलन्द आवाज़ में अपनी बात मनवाने का दम खम रखता हो ।
बात सोलह आना सही है लेकिन असली चिंता यही है कि इन कसौटियों पर किसी प्रत्याशी को परखने के लिये मतदाता के पास मापदण्ड क्या है ? वह कैसे फैसला करे कि यह प्रत्याशी सही है और वह नहीं क्योंकि जिन प्रत्याशियों को चुनावी मैदान मे उतारा जाता है उनमें से चन्द गिने चुने लोगों के ही नाम और काम से लोग परिचित होते हैं । बाकी सब तो पहली ही बार पार्टी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखने के इरादे से चुनावी दंगल में कूद पड़ते हैं या निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से अपना ढोल बजाने लगते हैं और जनता के दरबार में वोटों के तलबगार बन जाते हैं । ऐसे में मतदाता क्या देखें ? यह कि कौन सा प्रत्याशी कितने भव्य व्यक्तित्व का स्वामी है, या फिर कौन विनम्रता के प्रदर्शन में कितना नीचे झुक कर प्रणाम करता है, या फिर कौन फिल्मों मे या टी वी धारावाहिकों में ग़रीबों का सच्चा पैरोकार बन कर लोकप्रिय हुआ है, या फिर किसके बाप दादा पीढ़ियों से राजनीति के अखाड़े के दाव पेंचों के अच्छे जानकार रहे हैं, या फिर कौन चुनाव प्रचार के दौरान अपनी जन सभाओं में बड़े बड़े नेताओं और अभिनेताओं का बुलाने का दम खम रखता है, या फिर कौन क्षेत्र विशेष की लोक भाषा में हँसी मज़ाक कर लोगों का दिल जीतने में सफल हो जाता है । या फिर पार्टी विशेष के वक़्ती घोषणा पत्र के आधार पर ही प्रत्याशी का चुनाव करना चाहिये जिसका क्षणिक अस्तित्व केवल चुनाव के नतीजों तक ही होता है और जिनके सारे वायदे और घोषणायें चुनाव के बाद कपूर की तरह हवा में विलीन हो जाते हैं । आखिर किस आधार पर चुनें मतदाता अपना नेता ?
सारे मतदाता इसी संशय और असमंजस की स्थिति में रहते हैं और शायद मतदान के प्रति लोगों में जो उदासीनता आई है उसका एक सबसे बड़ा कारण यही है कि वे अपने क्षेत्र के अधिकतर प्रत्याशियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते और जिनके बारे में जानते हैं उन्हें वोट देना नहीं चाहते । वे किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते और चरम हताशा की स्थिति में किसी भी अनजान प्रत्याशी को वोट देकर किसी भी तरह के ग़लत चुनाव की ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं ।
हमें आगे आकर इन दोषपूर्ण परम्पराओं में बदलाव लाने की मुहिम को गति देना चाहिये । चुनाव के चंद दिन पूर्व प्रत्याशियों की घोषणा किये जाने का तरीका ही ग़लत है । क़ायदे से चुनाव के तुरंत बाद ही अगले चुनाव के उम्मीदवार की घोषणा हो जानी चाहिये और अगले पाँच साल तक उसे लगातार जनता के सम्पर्क में रहना चाहिये । प्रत्येक भावी उम्मीदवार को जन साधारण की समस्याओं और सरोकारों को सुनने और समझने में समर्पित भाव से जुट जाना चाहिये । सभी पार्टीज़ के प्रत्याशी जब प्रतिस्पर्धा की भावना के साथ आम आदमी के जीवन की जटिलताओं को सुलझाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जायेंगे तब देखियेगा विकास की गति कितनी तीव्र होगी और आम आदमी का जीवन कितना खुशहाल हो जायेगा । तब किसी प्रत्याशी के प्रति जनता के मन में सन्देह का भाव नहीं होगा । हर उम्मीदवार का काम बोलेगा और जो अच्छा काम करेगा उसे जिताने के लिये जनता खुद उत्साहित होकर आगे बढ़ कर वोट डालने आयेगी । हमेशा की तरह खींच खींच कर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । इस प्रक्रिया से अकर्मण्य और अवसरवादी लोगों की दाल नहीं गल पायेगी । सारे गाँवों और शहरों की दशा सुधर जायेगी और आम आदमी बिजली, पानी, साफ सफाई इत्यादि की जिन समस्याओं से हर वक़्त जूझता रहता है उनके समाधान अपने आप निकलते चले जायेंगे । पाँच साल बीतने के पश्चात चुनाव के परिणाम के रूप में सबको अपनी अपनी मेहनत का फल मिल जायेगा । अगर ऐसा हो जाये तो भारत विकासशील देशों की सूची से निकल कर सबसे विकसित देश होने के गौरव से सम्मानित हो सकेगा और हम भारतवासी भी गर्व से अपना सिर उठा कर कह सकेंगे जय भारत जय हिन्दोस्तान !


साधना वैद

Monday, March 25, 2019

ये कैसे बोल.....



चुनाव का मौसम है ! हर पार्टी स्वयं को तीसमारखाँ और विरोधी को एकदम तुच्छ एवं निकृष्ट सिद्ध करने में प्राणप्रण से जुटी हुई है ! लेकिन क्या किसी पर कटाक्ष करते समय शिष्टता और मर्यादा का पालन करने का दायित्व केवल आम जन का ही होता है ? मुझे याद है कई वर्ष पूर्व आकाशवाणी के एक केंद्र से प्रसारित होने वाले बच्चों के कार्यक्रम में एक बच्चे ने माइक पर नारा बोल दिया था---
गली गली में शोर है
राजीव गाँधी चोर है !
उन दिनों बच्चों का कार्यक्रम लाइव प्रसारित होता था ! शायद तब सभी का यह विचार था कि बच्चे मन के भोले होते हैं वो जो कहेंगे उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं हो सकता ! लेकिन इस घटना के बाद उस केंद्र के डायरेक्टर को तो हटा ही दिया गया बच्चों के प्रोग्राम भी पहले रिकॉर्ड किये जाने लगे ताकि उनमें एडिटिंग की जा सके ! लेकिन आजकल देश भर में हमारे नेता अपने भाषणों में जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं उनकी एडिटिंग कहाँ हो और कैसे हो ! आजकल भी यह नारा पुरज़ोर बुलंद है-
गली गली में शोर है
चौकीदार चोर है !
क्या वाणी पर संयम रखने का दायित्व केवल बच्चों का और आम जनता का है नेताओं का नहीं ?
साधना वैद

Saturday, March 16, 2019

अनोखा दर्पण


सुना है जब भी
दर्पण के सामने जाओ
उसमें सदैव अपना ही
प्रतिबिम्ब दिखाई देता है
लेकिन मैं जब भी  
तुम्हारे नैनों के दर्पण के
सामने आती हूँ,
अपना प्रतिबिम्ब
देखने की साध लिए
बड़ी उत्सुकता से
उनमें निहारती हूँ
न जाने क्यों
वहाँ मुझे अपना नहीं
किसी और का ही 
प्रतिबिम्ब दिखाई देता है !
नहीं समझ पाती
ऐसा क्यों होता है !  
क्या वह दूसरा चेहरा
मेरे चहरे पर मुखौटा बन
चढ़ा हुआ है या फिर
तुम्हारे नैनों का
यह अनोखा दर्पण
केवल तुम्हारे अंतर्मन में
बसी छवियों को ही
प्रतिबिम्बित कर पाता है
बाह्य जगत की 
छवियों को नहीं ?
कौन सुलझाए यह पहेली ?


साधना वैद




Thursday, March 14, 2019

ओ कालीदास के मेघदूत




ओ कालीदास के मेघदूत
कहाँ हो तुम ?
क्या तुमने भी कलयुग में आकर
अपनी प्रथाएँ और
परम्परायें बदल ली हैं ?
क्योंकि
नहीं करते ये मेघ अब
विश्वसनीय दूत का काम,
नहीं लाकर देते ये सन्देश
विरहाकुल प्रियतमा को
उसके प्रियतम का,
नहीं देते ये कोई सांत्वना  
भग्नहृदया विरहिणी को,
अब कलयुग में इनका
ममतामय हृदय तनिक भी
विचलित हो द्रवित नहीं होता,
इसके विपरीत यह  
वज्र सा कठोर हो गया है !
ये रिमझिम बरसते नहीं
क्रोध से फट जाते हैं !
ये धीरे-धीरे बहते नहीं
ये दुर्दम्य वेग से अधीर हो
पर्वत शिखरों से समस्त चट्टानों को
अपने साथ बहा ले आते हैं
और साथ में ले आते हैं
प्रलयंकारी विप्लवबाढ़,
आपदा और हाहाकार ! 
ओ कालीदास के मेघदूत
अलकापुरी की विरहिणी को
आज भी अपने अंतर के व्रणों पर
लेप लगाने के लिये और
उनकी जलन को शांत करने के लिये
तुम्हारे शीतल जल की
दैवीय औषधि की आवश्यकता है
जिससे वह अपने
विरह व्याकुल हृदय का
उपचार कर सके ! 
ओ कालीदास के मेघदूत
तुमसे अनुरोध है  
कलयुग की इस
तामसिक अंधी दौड़ की
प्रवंचना में उलझ कर
कम से कम तुम तो
अपनी सात्विक परम्पराओं
और प्रवृत्तियों को मत छोड़ो !
कम से कम तुम तो सकरुण हो
अपने स्निग्ध आवरण में
विरह विदग्ध हृदयों को
आत्मीयता से बाँध लो
जिससे उनके व्याकुल मन को 
कोई सांत्वनाकोई भरोसा,
कोई तो आश्वासन
मिल सके ! 


साधना वैद
  


Monday, March 11, 2019

कैसे हों हमारे सांसद


       हम लोगों के सौभाग्य से चुनाव का सुअवसर आ गया है और यही सही वक़्त है जब हम अपनी कल्पना के अनुसार सर्वथा योग्य और सक्षम प्रत्याशी को जिता कर भारतीय लोकतंत्र के हितों की रक्षा करने की मुहिम में अपना सक्रिय योगदान कर सकते हैं । इस समय यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि जिन लोगों को हम वोट देने जा रहे हैं उनका पिछला रिकॉर्ड कैसा है, क्या वे आपराधिक छवि वाले नेता हैं, सामाजिक सरोकारों के प्रति वे कितने प्रतिबद्ध हैं और अपनी बात को दम खम के साथ मनवाने की योग्यता रखते हैं या नहीं । मात्र सज्जन और शिक्षित होना ही वोट जीतने के लिये काफी नहीं है । प्रत्याशी का जुझारू होना परम आवश्यक है वरना वह संसद में मिमियाता ही रह जायेगा और कोई उसकी बात को सुन ही नहीं सकेगा । सर्वोपरि यह भी सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि सत्ता में आने के बाद उसका लक्ष्य जनता की सेवा करना होगा या उसके दायरे में सिर्फ उसका अपना परिवार और नाते रिश्तेदार ही होंगे । 
      संसद में केवल हल्ला गुल्ला करने वाले और मेज़ कुर्सी माइक फेंकने वाले लोगों के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये जो विश्व बिरादरी में हम सब के लिये शर्मिंदगी का कारण बनते हैं । वहाँ ज़रूरत है ऐसे लोगों की जो बिल्कुल साफ और स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हों और जिनकी आस्थायें और मूल्य दल बदल के साथ ही बदलने वाले ना हों । संसद में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होना बह्त ज़रूरी है ताकि वे अपने वर्ग के हितों की रक्षा कर सकें और उसकी हिमायत में वज़न के साथ अपनी बात रख सकें । इसके लिये प्रखर बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों और पैनी नज़र रखने वाले ईमानदार आलोचकों की आवश्यक्ता है जो संसद में पास होने वाले ग़लत निर्णयों का डट कर विरोध कर सकें । संसद में हमारे खेतिहर किसान भाइयों की पैरवी के लिये ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े प्रतिनिधियों, व्यापारियों के हितों की रक्षा के लिये उद्योग जगत से जुड़े उद्यमियों, बच्चों के हितों के लिये प्रतिबद्ध शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों, सैन्य गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने के लिये सेना से जुड़े रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों, जनता के हित में पास होने वाले कानूनों के कड़े विश्लेषण के लिये सुयोग्य कानूनविदों, जनता पर थोपे जाने वाले करों की उचित समीक्षा के लिये अनुभवी अर्थशास्त्रियों तथा कलाकारों से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिये सुयोग्य कलाकारों का प्रतिनिधित्व होना बहुत ज़रूरी है । 

     मतदाताओं से मेरा अनुरोध है कि अपना अनमोल वोट देने से पहले वे यह अवश्य सुनिश्चित कर लें कि वे जिस प्रत्याशी को वोट देने जा रहे हैं वह उपरोक्त वर्णित किसी भी कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं । यह अवसर इस बार हाथ से निकल गया तो फिर अगले पाँच साल तक हाथ मलने के सिवा और कुछ बाकी नहीं रहेगा । वोट ना देने या खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी के प्रति अपनी असहमति को व्यक्त करने का मतलब है कि आप अपने अधिकारों को व्यर्थ कर रहे हैं । आपके इस निर्णय से चुनाव प्रक्रिया पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा । कोई न कोई तो चुन कर आ ही जायेगा फिर आपके पास अगले पाँच साल तक उसीको अपने सर माथे पर बिठाने के अलावा कोई चारा न होगा और फिर नैतिक रूप से अपने नेता की किसी भी तरह की आलोचना करने का अधिकार भी आपके पास नहीं होना चाहिये क्योंकि उसे जिताने मे आपकी भूमिका भी यथेष्ट रूप से महत्वपूर्ण ही होगी भले ही वह प्रत्यक्ष ना होकर परोक्ष ही हो । 

साधना वैद्

Friday, March 8, 2019

ग़रीब हैं मगर खुद्दार हैं हम

कुछ कहते हैं ये ताँँका


 
उठायें बोझ

सारे जग का हम

और हमारा ?

बोलो कौन उठाये ?

 सीने से चिपटाये ? 

 
क्या दोगे तुम

          किताब या कुदाल ?         

खुशी या आँसू ?

खिलौने या फावड़ा?

जीवन या मरण ?

 

जाती बाहर 
 
रोटी की जुगत में

  माँ काम पर   

मैं हूँ घर की रानी

  करती चौका पानी ! 


हर चुनौती

आसान या मुश्किल

साध्य है मुझे !

नहीं स्वीकार अब

  वर्चस्व पुरुषों का ! 



  ओ मेरे मौला  

माथे पे गहराती

चिंता की रेख

सोने की कलम से
  
  लिख नया सुलेख !

तू है महान

धरा से नभ तक

हर दिशा में

गुंजित तेरा गान

   ओ माँ तुझे सलाम ! 


बोझ उठाते

नये घर बनाते

न जाने कैसे

हम बेघर हुए

 खुद पे बोझ हुए !


साधना वैद