हर जगह, हर मोड़, पर इंसान ठहरा ही रहा,
वक्त की रफ़्तार के संग ज़िंदगी चलती रही !
खुशनुमां वो गुलमोहर की धूप छाँही जालियाँ
चाँदनी, चम्पा, चमेली की थिरकती डालियाँ
पात झरते ही रहे हर बार सुख की शाख से
मौसमों की बाँह थामे ज़िंदगी चलती रही !
वन्दना की भैरवी थक मौन होकर रुक गयी ,
अर्चना के दीप की बाती दहक कर चुक गयी ,
पाँखुरी गिरती रहीं मनमोहना के हार की
डोर टूटी हाथ में ले ज़िंदगी चलती रही !
खोखले स्वर रह गये और माधुरी चुप हो गयी ,
ज़िंदगी के गीत की पहचान जैसे खो गयी ,
वेदना के भार से अंतर कसकता ही रहा
और टूटी तान सी यह ज़िंदगी चलती रही !
चाँद सूरज भाल पर मेरे अँधेरे लिख गये ,
स्वप्न सुंदर नींद में ही तोड़ते दम दिख गये ,
देवता अभिशाप देके फेर कर मुँह सो गये
दर्द की सौगात देकर ज़िंदगी चलती रही !
आत्मा निर्बंध को बंधन नियम का मिल गया ,
पंख टूटी हंसिनी को गगन विस्तृत मिल गया ,
हर कदम पर रूह घायल हो तड़प कर रह गयी
और निस्पृह भाव से बस ज़िंदगी चलती रही !
साधना वैद
आज के बुलेटिन में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार शिवम् जी !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार कुलदीप जी ! सस्नेह वन्दे !
ReplyDelete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-05-2019) को
"मातृ दिवस"(चर्चा अंक- 3333) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteअति उत्तम ,अति सुंदर रचना ,नमन
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब सृजन.....हमेशा की तरह।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१३ मई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद केडिया जी! आभार आपका !
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद आपका ज्योति जी ! स्वागत है !
ReplyDeleteआपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से धन्यवाद सुधा जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेताजी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबेहतरीन रचना साधना जी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआत्मा निर्बंध को बंधन नियम का मिल गया
ReplyDeleteपंख टूटी हंसिनी को गगन विस्तृत मिल गया
बहुत खूब साधना जी ,सादर नमस्कार
हार्दिक धन्यवाद कामिनी जी !आभार आपका !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
९ सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! इस रचना के चयन के लिये आपका तहे दिल से आभार !
Deleteजी बहुत सुंदर सरस रचना।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका सुजाता जी ! स्वागत है आपका !
Deleteवाह!!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब सृजन हमेशा की तरह....
आत्मा निर्बंध को बंधन नियम का मिल गया ,
पंख टूटी हंसिनी को गगन विस्तृत मिल गया ,
हर कदम पर रूह घायल हो तड़प कर रह गयी
और निस्पृह भाव से बस ज़िंदगी चलती रही
अद्भुत ...लाजवाब....
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteसुंदर सृजन साधना दी ,सादर नमन
ReplyDelete,
हार्दिक धन्यवाद कामिनी जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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