हमने भी जिया है जीवन ! मर्यादाओं के साथ ! मूल्यों के साथ ! सीमाओं में रह कर ! अनुशासन के साथ !
जीवन तुम भी जी रहे हो ! लेकिन अपनी शर्तों के साथ ! नितांत निरंकुश होकर ! बिना किसी दखलंदाजी के ! बिलकुल अपने तरीके से !
असहमति तब भी थी ! असंतोष तब भी था ! झुँझलाहट तब भी थी ! विरोध तब भी था ! हर नयी पीढ़ी का अपने से पुरानी पीढ़ी से कुछ न कुछ, कम या ज्यादह मतभेद स्वाभाविक है !
हर युग में होता है ! लेकिन हर युग में उसे व्यक्त करने के तरीके बदल जाते हैं !
तब असभ्यता नहीं थी ! उच्श्रन्खलता नहीं थी ! उद्दंडता नहीं थी और निर्लज्जता नहीं थी !
रिश्तों का सम्मान था ! छोटे बड़े का लिहाज़ था ! मर्यादा का मान था ! अनुशासन का ज्ञान था !
विरोध था लेकिन विद्रोह नहीं था ! असहमति थी लेकिन असभ्यता नहीं थी ! असंतोष था लेकिन जोड़ने और जुड़े रहने की भावना प्रबल थी ! गुस्से में यदि कभी मुँह खुल भी गया तो पश्चाताप भी था मानसिक अनुताप भी था ! झुकने से परहेज़ नहीं था ! माफी माँग लेने से कोई गुरेज़ नहीं था !
तुम्हारी छोटी छोटी भूलों और नादान शरारतों पर दूसरों के गुस्से से
तुम्हें बचाने के लिए हम औरों से लड़ पड़ते थे ! अब औरों की
बड़ी बड़ी गलतियाँ और गुनाह छिपाने के लिए तुम हम से लड़ पड़ते हो !
तुम्हारी हर छोटी से छोटी फरमाइश को पूरा करने के लिए मैंने लगभग हर रोज़ ओवरटाईम किया ! रोज़ रात को अपनी जेब खाली कर गिनता था कि तुम्हारे मुख की मुस्कान खरीदने के लिए अभी कितने रुपयों की ज़रुरत और है ! हिसाब तुम भी रोज़ लगाते हो कि आज दिन भर में मैंने चाय के कितने कप पिये और कितनी रोटियाँ अधिक बनानी पडीं ताकि गृहस्थी पर पड़े बोझ की चर्चा कर तुम मेरे मुख की मुस्कान छीन सको !
अब युग बदल गया है अब अपनी ही संतान अपने माता पिता से हिसाब माँगती है कि बचपन में उन्होंने अपने बच्चों के लिए क्या किया, कितना किया और जितना किया सिर्फ उतना ही क्यों किया ! माता पिता ने जो किया वह भी कैसे किया यह जानने की शायद उन्हें ज़रुरत ही नहीं !
लेकिन डंके की चोट पर दिन भर सबके सामने यह गाने और जतलाने में उन्हें कोई एतराज़ नहीं कि, भले ही महीने दो महीने ही सही, अपने वृद्ध, बीमार और असहाय माता पिता को ज़िंदा रखने की प्रक्रिया में उन्होंने कितना हाथ पैरों से काम किया और कितना धन व्यय किया !
जिन माता पिता ने जीवन भर संघर्ष कर अपना पेट काट अपनी हर इच्छा को मार बच्चों को सीने से लगा पैरों पर खड़ा कर दिया उनके वे ही दुलारे बच्चे उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी देर नहीं लगाते !
यह कलयुग है भाई यहाँ दूसरों की आँखों के तिनके गिनने के सब अभ्यस्त हैं लेकिन अपनी ही आँखों के शहतीर हटाना या तो उन्हें आता नहीं या वे इसकी ज़रुरत ही नहीं समझते !
साधना वैद
बहुत संवेदनशील भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteहमने भी जिया है जीवन !
ReplyDeleteमर्यादाओं के साथ !
मूल्यों के साथ !
सीमाओं में रह कर !
अनुशासन के साथ !
पर.....
आज-कल..
माता-पिता का उपयोग
एक सीढ़ी के समान किया जाता है
ऊपर पहुंचने के बाद सीढ़ी की उपयोगिता
शेष हो जाती है.....
सादर नमन...
हार्दिक धन्यवाद ऋतु जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी !
ReplyDeleteअपनी ही आँखों के शहतीर हटाना या तो उन्हें आता नहीं या वे इसकी ज़रुरत ही नहीं समझते ! ..इससे इतर वो खुद में समाये हैं..कल जागेंगे!!
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