अंधा बाँटे रेवड़ी ... ?
ये क्या बात हुई ? आखिर
अंधा ही क्यूँ बाँटे रेवड़ी ?
जब उसको रेवड़ी का सही तरह से हिस्सा बाँट करना
आता ही नहीं तो वही क्यों बाँटे रेवड़ी ? क्या ये जुमले सिर्फ उछाले जाने लिए हैं ?
सिर्फ मुख की कसरत के लिए हैं ? बस इन्हें दोहराते रहिये और वही होने दीजिये जो
अभी तक होता आया है ! क्या इनका दोहराया जाना एक अनिवार्यता है या संविधान में
लिखा गया कोई लिखित क़ानून है जिसका पालन करना सभी के लिए ज़रूरी है ?
वैसे कहने सुनने में यह मुहावरा अच्छा लगता है
! इससे जुड़ा कोई रोचक किस्सा भी ज़रूर रहा होगा इस बात का भी आभास होता है ! लेकिन
क्या सिर्फ इसीलिए कि कभी किसीने एक ग़लती की और उस पर यह मुहावरा गढ़ लिया गया तो
हमें इसे जीवन भर दोहरा दोहरा कर इसे अजर अमर बनाना होगा ? माना कि मुहावरा आकर्षक
है ! इसमें कुछ हास्य है, कुछ मज़ा है, और ढेर सारी नाटकीयता है लेकिन इसका यह अर्थ
तो नहीं कि हम हमेशा ही यह गलती दोहराते रहें !
इसे दोहराते रहने के पीछे कदाचित यह मानसिकता
भी है कि आरोप लगाने के लिए अंधा सामने है ही ! कुछ ग़लत होने पर सारी तोहमत उस पर
मढ़ दी जाये और बाकी सब पाक साफ़ किनारे पर खड़े डूबने वालों को गोते खाते हुए देखते
रहें ! ना कोई दायित्व लो, ना किसी काम के लिए मशाल हाथ में लो, ना किसी नेतृत्व का
जिम्मा लो ! काम करना सबसे मुश्किल और काम खराब होने की तोहमत लगाना, दूसरे के
कामों की टीका टिप्पणी करना और दूसरों की गलती निकालना सबसे आसान ! यह सारी कवायद
कहीं अपनी जिम्मेदारियों से जान छुड़ाने के लिए तो नहीं ?
फिर सबसे अहम् बात यह कि हर युग में यही गलती
क्यों दोहराई जाती है ? आखिर अंधा इतना अधिकार संपन्न कैसे हो जाता है कि रेवड़ी
बाँटने की ज़िम्मेदारी उसके हिस्से ही आ जाती है ? उस अंधे को चुन कर उस पद पर बैठाता कौन है और रेवड़ी पाने वालों की कतार में गिने
चुने उसके अपने ही क्यों बैठ जाते हैं ? बाकी सब किस अँधेरे में बिला जाते हैं ? अगर
इस व्यवस्था से समाज के अन्य लोगों के साथ अन्याय होता है या दूसरों को हानि
पहुँचती है तो क्या अंधे के हाथ से रेवड़ी का थैला ले लेने का वक्त अब भी नहीं आया
? उसे इस अधिकार से मुक्त क्यों नहीं कर दिया जाता ?
तो दोस्तों अगर मुहावरों की परिभाषा बदलनी है,
उनके अर्थ बदलने हैं और उनके परिणामों में अंतर देखना चाहते हैं तो कमर कस कर खुद
को तैयार करना होगा ! अपने हाथों में नेतृत्व की बागडोर भी लेनी होगी और ऐसे अंधों
को हटाने के लिए भी कृत संकल्प होकर प्रयास भी करना होगा जो दृष्टिहीनता के कारण सिर्फ
अपनों की खुशबू को ही पहचान सकते हैं ! ना किसीको देख सकते हैं, ना परख सकते हैं, ना ही किसीकी
योग्यता, प्रतिभा और सामर्थ्य का आकलन ही कर सकते हैं ! अगर अब भी ना चेते तो हमेशा मन
मसोसते रहियेगा और दोहराते रहियेगा –
अंधा बाँटे रेवड़ी और फिर फिर खुद को दे !
साधना वैद
मेरा एक शेर है -
ReplyDeleteआप अँधा कहें मुझको, कोई ऐतराज़ नहीं,
रेवड़ी-बाँट का, ठेका जो मुझे, दिलवा दें.
हा हा हा गोपेश जी ! इसे हमारा सौभाग्य कह लीजिये या दुर्भाग्य, आँखें दुरुस्त होने के कारण हम भी तो रेवड़ी बाँटने का ठेके देने के लिए सुपात्र कहाँ ! सूरदास होते तो शायद आपका कुछ भला कर पाते ! आँखों वाले इस विशेषाधिकार से वंचित हैं हमारे देश में !
Deleteसटीक विश्लेषण...
ReplyDeleteलाजवाब।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी ! आभार आपका !
Deleteउस अंधे को चुन कर उस पद पर बैठाता कौन है और रेवड़ी पाने वालों की कतार में गिने चुने उसके अपने ही क्यों बैठ जाते हैं ?
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण प्रश्न ,चिंतनपरक लेख ,सादर नमन दी
हृदय से धन्यवाद आपका कामिनी जी ! इन प्रश्नों के उत्तर कोई ढूँढना नहीं चाहता इसीलिये मिलते भी नहीं है ! आलेख आपको अच्छा लगा मेरा श्रम सफल हुआ ! दिल से आभार आपका !
Deleteअद्भुत! बहुत सराहनीय लेखनी...।
ReplyDeleteआपकी बातें गौर करने वाली है
हार्दिक धन्यवाद प्रकाश जी ! आभार आपका !
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