कल सुबह अपने कमरे की
खिड़की से बाहर देखा था मैंने
धरा से गगन का असीम विस्तार
नापने को तैयार
दो बेहद सुन्दर और ऊर्जावान पंछियों को
हौसलों की उड़ते भरते हुए
देखा था मैंने !
बिल्कुल सम गति सम लय में
समानांतर उड़ रहे थे दोनों,
मधुर स्वर में चहचहाते हुए
कुछ जग की कुछ अपनी
एक दूजे को सुनाते हुए
बड़े आश्वस्त से पुलकित हो
उड़ रहे थे दोनों !
कुछ देर बाद एक ऊँची सी उड़ान भर
यूकेलिप्टस की पत्रहीन
ऊँची ऊँची दो डालियों पर
आमने सामने बैठ गये वे दोनों
शायद कुछ सुस्ताने को या फिर
कुछ अनकही कुछ अनसुनी रह गयीं
बातें फिर से दोहराने को
आमने सामने बैठ गये वे दोनों !
तार सप्तक में चह्चहाने की
एक दूजे के स्वर में स्वर मिलाने की
दोनों की आवाजें सुन रही थी मैं
वो गा रहे थे या लड़ रहे थे
उग्र थे या उल्लसित
खुश थे या नाखुश
समझ नहीं पा रही थी मैं !
थोड़ी देर के बाद
एक पंछी अपनी डाल छोड़
अनंत आकाश में उड़ कर
दूर कहीं बहुत दूर चला गया,
मुझे विश्वास था कि वह लौट कर
अपने साथी के पास ज़रूर आएगा
लेकिन देर तक प्रतीक्षा करने के बाद
मेरा विश्वास छला गया !
दूसरा पंछी मौन उदास अनमना सा
अपनी डाल पर ही बैठा रह गया
जीवन साथी के चले जाने के बाद
इस अनंत असीम व्योम में वह
नितांत अकेला रह गया !
मेरे दिल में जैसे कहीं कुछ
छन्न से टूट गया
शिथिल हुई मेरी पकड़ से
उँगलियों में लिपटा ऊन का
अधबना गोला धरा पर छूट गया !
नहीं जानती
यूकेलिप्टस की शाख पर बैठे
उस पंछी को वाकई में थी या नहीं
पर मुझे बड़ी व्यग्रता से प्रतीक्षा थी
उस पंछी के लौट आने की
जो उसे छोड़ कर चला गया था
पता नहीं क्यों
उस पंछी के साथ साथ वह मुझे भी
एक अकथनीय पीड़ा के
अनंत अथाह सागर में
डुबो कर चला गया था !
साधना वैद
चर्चा मंच और मेरे ब्लॉग से कोई अस्पृश्यता है क्या? जो कमेंट करने में दिक्कत होती है आपको!
ReplyDeleteहम भी आगे से घ्यान रक्खेंगे।
ऐसा कैसे सोच लिया आपने शास्त्री जी ! आप तो गुरु हैं हमारे ! आजकल लॉक डाउन के मारे सारे कर्मचारी छुट्टी पर हैं ! तो बस हर प्रकार के गृह कार्य की अधिकता, व्यस्तता एवं थकान के मारे समय नहीं मिल पाता ! थोड़ा समय दीजिये फिर सब पूर्ववत हो जाएगा !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteबहुत गहरी रचना ...
ReplyDeleteपंछियों के माध्यम से दूर की बात ...
हार्दिक धन्यवाद नासवा जी ! स्वागत है आपका ब्लॉग पर ! बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteपता नहीं क्यों
ReplyDeleteउस पंछी के साथ साथ वह मुझे भी
एक अकथनीय पीड़ा के
अनंत अथाह सागर में
डुबो कर चला गया था !
क्या बात है साधना जी | यही फर्क है एक आम इन्सान और कवि मन में | कवि मन दूसरे की पीड़ा का भार अपने मन पर लेकर जीवन का सार्थक चिंतन करता है | लाजवाब शब्द चित्र जो पाठकों के मन में करुणा का संचार करते हुए , भावों की गहराइयों का स्पर्श करवाता है | शुभकामनाएं भावस्पर्शी रचना के लिए | सादर -
हार्दिक धन्यवाद आपका रेणु जी ! कवि धर्म ही शायद यह है कि वह दूसरे की पीड़ा को इतनी गहराई के साथ भोगने लगता है कि अनजाने ही उस पीड़ा को वह स्वयं पर आरोपित कर लेता है ! रचना आपको अच्छी लगी मन मगन हुआ ! हृदय से आभार आपका !
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