बचपन और शरारतों का वैसा ही रिश्ता होता है जैसा पतंग और डोर का ! और इस संयोग को और दोबाला करना हो तो कुछ हमउम्र संगी साथी और भाई बहनों का साथ मिल जाये और गर्मियों की छुट्टियों का माहौल तो बस यह समझिए कि सातों आसमान ज़मीन पर उतार लाने में कोई कसर बाकी नहीं रह जाती ! और तब घर के बड़े बुजुर्गों को भी बच्चों को अनुशासन में रखने के लिये जो नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं उसका तो मज़ा ही कुछ और होता है !
सालाना इम्तहान समाप्त होते ही हम बड़ी बेसब्री से अपने मामाजी और चाचाजी के परिवारों से मिलने के लिये अधीर हो जाते थे ! कभी हम तीनों भाई बहन मम्मी बाबूजी के साथ उन लोगों के यहाँ चले जाते तो कभी वे सपरिवार हम लोगों के यहाँ आ जाते ! पाँच बच्चे मामाजी के, पाँच बच्चे चाचाजी के और हम तीन भाई बहन और साथ में आस पड़ोस के बच्चों की मित्र मण्डली, बस पूछिए मत कितना ऊधम, कितना धमाल और कितना हुल्लड़ सारे दिन होता था ! लड़कियों का ग्रुप अलग बन जाता और ज़माने भर के लोक गीतों और फ़िल्मी गीतों के ऊपर सारे-सारे दिन नाच-नाच कर कमर दोहरी कर ली जाती ! उधर लड़कों का ग्रुप अलग बन जाता जो कभी तो छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाने में और पेंच लड़ाने में व्यस्त रहते तो कभी इब्ने सफी बी.ए. के जासूसी उपन्यासों से प्रेरणा ले विनोद हमीद की भूमिका ओढ़ झूठ मूठ के केसों की छानबीन में लगे रहते ! दिन में धूप में बाहर निकलने की सख्त मनाही होती थी ! उन दिनों कूलर और ए सी का ज़माना नहीं था ! खस की टट्टियाँ दरवाजों पर और खिड़कियों पर लगा कर कमरों को ठंडा रखा जाता था ! दिन भर कमरे में हम लोग या तो कैरम, साँप सीढ़ी, लूडो और ताश आदि खेलते या फिर मम्मी सब लड़कियों को कढ़ाई करने के लिये मेजपोश या तकिये के गिलाफों पर डिजाइन बना कर दे देतीं कि जब तक बाहर का मौसम अनुकूल ना हो जाये कमरे रह कर कुछ हुनर की चीज़ें भी लड़कियों को सिखा दी जायें ! सबसे सुन्दर कढ़ाई करने वाले के लिये आकर्षक इनाम दिये जाने की घोषणा भी की जाती ! बस फिर क्या था हम सभी बहनें स्पर्धा की भावना के साथ जुट जातीं कि यह इनाम तो हमें ही जीतना है ! दिन भर बच्चों के लिये कभी फालसे या बेल का शरबत तो कभी कुल्फी और आइसक्रीम या कभी आम और खरबूजे के खट्टे मीठे पने का चुग्गा डाल कर मम्मियाँ हम लोगों को कमरे में ही टिकाये रखने के लिये सारे प्रयत्न करती रहतीं ! बीच-बीच में बच्चों की ड्यूटी बाहर जाकर खस के पर्दों की तराई करने के लिये भी लगा दी जाती ! कमरे में खूब हो हल्ला मचा रहता ! कभी अन्त्याक्षरी का शोर मचता तो कभी कोरस में नये पुराने फ़िल्मी गीतों को फुल वॉल्यूम पर गाने का शोर मचता ! कभी-कभी बड़े लोग भी हमारे इस खेल में शामिल हो जाते अन्त्याक्षरी के खेल में हारने वाली टीम के कानों में गाने बता कर उन्हें जीतने में मदद करने लगते ! उस समय ‘चीटिंग-चीटिंग’ का बड़ा शोर मचता और ‘शेम-शेम’ की गगन भेदी चीत्कारों के साथ खेल वहीं समाप्त कर दिया जाता !
यूँ तो लड़के अपना ग्रुप अलग ही बना कर रखते थे लेकिन जब उन्हें अपनी पतंगों के लिये ‘माँझा’ बनाने की ज़रूरत होती थी तो उन्हें हमारे सहयोग की बड़ी ज़रूरत होती थी ! उसके लिये घर के कबाड़े में से पुरानी काँच की शीशियों को जमा कर, तोड़ कर, कूट पीस कर और कपड़े से छान कर उसका पाउडर बनाना पड़ता था ! उसके बाद काँच के उस महीन पाउडर को गोंद में मिला कर उसका लेप तैयार करना पड़ता था ! फिर बगीचे के किसी एक पेड़ से धागे के एक सिरे को बाँध कर दूसरा सिरा सबसे दूर वाले पेड़ से बाँधा जाता था ! फिर गोंद में मिले उस लेप को धागे पर अच्छी तरह से लपेटा जाता था ! निगरानी भी करनी पड़ती थी कि जब तक धागा पूरी तरह से सूख ना जाये कोई बच्चा उसके पास जाकर घायल ना हो जाये ! अपने इस बहुमूल्य सहयोग की मोटी कीमत भी वसूलते थे हम अपने भाइयों से ! वे बड़े थे तो कभी हम लोगों को मम्मी बाबूजी की इजाज़त लेकर बाहर पार्क में घुमाने ले जाते थे जहाँ पूरी शाम हम लोग झूलों, शूट, सी सौ आदि पर जमे रहते थे और ‘आई स्पाई’ और ‘बोल मेरी मछली कितना पानी’ खेला करते थे या कभी-कभी वे लोग हमें पिक्चर हॉल में बच्चों की कोई फिल्म दिखाने के लिये ले जाते थे ! कई अच्छी फ़िल्में जैसे जागृति, बूट पॉलिश, हम पंछी एक डाल के, कैदी नंबर नौ सौ ग्यारह, मासूम, प्यार की प्यास, तूफ़ान और दिया आदि हमने इसी तरह देखी थीं ! शाम होते ही आँगन में पानी का छिड़काव और छिड़काव के बहाने एक दूसरे को पानी से सराबोर करने की शरारतें तो अंतहीन होती थीं ! जब तक ठन्डे पानी से बदन काँपने नहीं लगता था और मम्मी बाबूजी की डाँटने की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती थी यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता था !
कितने सुहाने दिन थे वे ! जहाँ सिर्फ मस्ती थी, मौज थी, बेफिक्री थी और थीं ढेर सारी खुशियाँ ही खुशियाँ ! उन्हें याद करके आज भी मन यही कहता है !
‘जाने कहाँ गये वो दिन !
साधना वैद
सच में ऐसे दिन अब कहाँ
ReplyDeleteजी ! बहुत याद आते हैं वो भोले भाले से प्यारे दिन ! हार्दिक धन्यवाद केडिया जी !
Deleteमेरा मानना ही कि कहीं नहीं गए वो दिन ... बस हर पल खुद को बच्चा ही मानना है .. हाँ , पर मन से, क्योंकि बुढ़ाते शरीर की व्याधियों को झुठलाया भी नहीं जा सकता ना ... इस लेख में पिट्टो, डेंगा-पानी, छू-कित-कित, छुआ-छुईं, आइस-पाइस की जिक्र भी होनी चाहिए क्या ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत मनोरंजक खेलों की याद दिला दी सुबोध जी आपने ! खूब खेले हैं ये खेल बचपन में ! गिल्ली डंडा भी खूब खेला है ! ये दिन सच में अब खो गए हैं क्योंकि आज के बच्चों को भी ये खेल खेलते हुए नहीं देखती मैं ! सब मोबाइल पर या इन्टरनेट पर ही खेलने में बिजी रहते हैं ! आउटडोर एक्टिविटीज अब बहुत कम हो गयी हैं बच्चों की ! ना ही उन्हें किताबें पढ़ने का शौक है ! आभार आपकी संवेदनशील प्रतिक्रिया के लिए !
ReplyDeleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (08-05-2020) को "जो ले जाये लक्ष्य तक, वो पथ होता शुद्ध"
(चर्चा अंक-3695) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
"मीना भारद्वाज"
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! आभार प्रदर्शन में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ! देख ही नहीं पाई notification ! सप्रेम वन्दे सखी !
DeleteSuch mein jaane kahaan gaye vo din <3
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मान्यवर !
Deleteआपने तो बचपन की सारी यादें ताज़ा कर दी साधना दी ,सच ,कहा गए वो दिन ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद कामिनी जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय दीदी 👌
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आभार आपका !
Deleteआपने तो बचपन की याद दिला दी । इन लाइनों से --
ReplyDeleteकितने सुहाने दिन थे वे ! जहाँ सिर्फ मस्ती थी, मौज थी, बेफिक्री थी और थीं ढेर सारी खुशियाँ ही खुशियाँ ! उन्हें याद करके आज भी मन यही कहता है !
हार्दिक धन्यवाद अखिलेश जी ! आभार आपका !
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