Sunday, August 9, 2009

अतिथि देवो भव

हमारी भारतीय संस्कृति की यह परम्परा रही है कि हम अपने अतिथियों को देवतुल्य मानते हैं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनके स्वागत सत्कार और अभ्यर्थना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते । अतिथियों के साथ सज्जनता से व्यवहार करना, उनकी आवश्यक्ताओं को समझ कर उनको पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहना, उनके मान सम्मान और उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखना और उनके लिये यथा सम्भव एक सुखद और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण उपलब्ध कराना ही अब तक हमारी सर्वोपरि प्राथमिकता रही है और आज भी होनी चाहिये । यही संस्कार बचपन से हमें हमारे माता पिता देते आये हैं और स्कूलों में भी यही शिक्षा अब तक हमें अपंने गुरुजनों से मिली है ।
वर्तमान संदर्भ में ये अवधारणायें अपना औचित्य खोती हुई प्रतीत होती हैं । कहीं न कहीं मूल्यों का विघटन इतनी बुरी तरह से हुआ है कि विश्व बिरादरी के सामने हमें अक्सर शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ता है । सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत एक अत्यंत वैभवशाली और समृद्ध देश है । यहाँ के छोटे से छोटे गाँव या कस्बे से भी अतीत के गौरव की अनमोल गाथायें गुँथी हुई हैं । यहाँ के कण-कण में पर्यटकों को लुभाने और मोहित कर लेने की अद्भुत क्षमता है । हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत एक विकासशील देश है और यहाँ की अर्थ व्यवस्था में पर्यटन व्यवसाय का बहुत अधिक महत्व है । यदि हम अपने देश में आने वाले पर्यटकों का विशिष्ट ध्यान रखें उन्हें भारत भ्रमण के समय सम्पूर्ण निष्ठा और सद्भावनापूर्ण सहयोग के साथ उनकी सहायता करें तो इस व्यवसाय की आय में चार चाँद लग सकते हैं । लेकिन होता बिल्कुल इसके विपरीत है । मैं विश्व प्रसिद्ध ताजनगरी आगरा में रहती हूँ और पर्यटन व्यवसाय से जुड़े सभी व्यक्तियों को आत्मावलोकन के लिये यह बताना चाहती हूँ कि हम अपने अतिथियों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं इस पर चिंतन करने की महती आवश्यक्ता है । ज़रा ध्यान दें – पर्यटक रेल से या बस से नगर में जैसे ही प्रवेश करते हैं लपके जोंक की तरह उनसे चिपट जाते हैं और कभी कभी तो पर्यटक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ में खींचतान करने से भी पीछे नहीं हटते । यदि आगंतुक पर्यटक का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित है तो अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिये वे अशोभनीय और आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करने से खुद को रोक नहीं पाते । पर्यटक भले ही कहे हुए वाक्य का शाब्दिक अर्थ ना समझ पायें लेकिन लपकों की भाव भंगिमा और आवाज़ के उतार चढ़ाव से उन्हें समझने में ज़रा भी देर नहीं लगती कि उनके लिये कैसी अपमांजनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है और नगर में प्रवेश के साथ ही उनका मन खट्टा हो जाता है । पर्यटकों के मार्गदर्शन के लिये जो पुस्तिकायें छपती हैं उनमें भी इन लपकों से सावधान रहने की हिदायतें दी गयी हैं । क्या हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिये कि ये लपके किसकी शह पर क्रियाशील रहते हैं और इनके व्यवहार पर नियंत्रण लगाने के लिये क्या प्रयास किये जा रहे हैं ? ज़बर्दस्ती कर अपने वाहन से ले जाने की ज़िद करना, फिर अपनी पसन्द के होटल में ठहरने के लिये विवश करना, अपने कमीशन बँधे हस्त शिल्प के शो रूम्स से खरीदारी करने के लिये मजबूर करना, जैसे कृत्य तो हम भारवासियों के लिये अति सामान्य और सर्व साधारण द्वारा मान्यता प्राप्त हो गये हैं लेकिन बाहर से आने वाले अतिथि अवश्य इस प्रकार के अभद्र आचरण से असंतुष्ट और रुष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार की अप्रत्याशित मेहमाननवाज़ी से वे सकते में आ जाते हैं । सड़कों पर गली मोहल्लों के अशिक्षित बच्चे उन्हें अश्रवणीय और अकथनीय भाषा में तरह तरह के नामों से पुकार कर उनका मज़ाक बनाते हैं, स्मारकों पर जहाँ जूते उतारना अनिवार्य हो जाता है अक्सर उनके कीमती जूते चोरी हो जाते हैं, पर्यटकों के हाथों से उनके बैग और कैमरे छीन लिये जाते हैं, महिलाओं के साथ छेड़खानी की जाती है यहाँ तक कि कई बार उनके साथ यौन शोषण और बलात्कार की घटनायें भी संज्ञान में आई हैं । हमारे शहर में आकर वे अपना रुपया पैसा और सभी कीमती सामान गँवा कर बड़ी परेशानी में फँस जाते हैं । इस पर क्या पर्यटकों की संख्या में आने वाली कमी की शिकायत करने का हमारा कोई नैतिक आधार बनता है ? क्या इस तरह के आचरण पर अंकुश लगाने की हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती ? अगर हम ग़लत आचरण को रोक नहीं सकते तो उसकी वजह से होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिये भी हमें तैयार रहना चाहिये । आखिर इस घर के मेजबान भी तो हमीं हैं । जैसा आतिथ्य सत्कार हम अपने अतिथियों को देंगे वैसा ही प्रतिदान हम उनसे पायेंगे ।
इन सबके अलावा कभी हम अपने शहर की स्वच्छता और साज सज्जा की तरफ भी ध्यान देते हैं ? जगह-जगह पर गन्दगी और कूड़े के ढेर सड़कों पर सजे रहते हैं । मच्छर और मक्खियों का बोलबाला है । शहर की एकाध विशिष्ट सड़क को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश सड़कें टूटी-फ़ूटी और छोटे-बड़े गड्ढों से आच्छादित हैं । पर्यटक मलेरिया और हैजे के डर से शहर में घुसने से भी डरते हैं । गन्दगी के ढेर उनके सौंदर्य बोध को ग्रहण लगाते हैं और वे जान छुड़ा कर यहाँ से भागना चाहते हैं । क्या हम इस सबको रोकने के लिये कोई प्रयत्न कर रहे हैं ?
हमारा प्रशासन और पुलिस कितनी कार्यकुशल और तत्पर है यह तो सभी जानते हैं । इन समस्याओं से जूझने के लिये हमें स्वयं अपनी कमर कसनी होगी । पर्यटन व्यवसाय से जुड़े सभी उद्यमियों और संगठनों को एक समानांतर फौज खड़ी करनी होगी जो इस तरह के कुकृत्यों पर अंकुश लगा सके और इस प्रकार की असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को दण्डित कर एक भयमुक्त वातावरण की रचना कर सके । शहर की साफ सफाई के लिये नगरपालिका पर निर्भर रहने की बजाय सफाई कर्मियों को संगठन स्वयम नियुक्त करे और उन्हें अच्छा वेतन देकर उनसे अच्छा काम ले । सभी ऐतिहासिक इमारतों और पर्यटकों की रुचि के स्थलों के आस-पास नियमित रूप से डी डी टी और मक्खी मच्छरों को मारने के लिये उपयुक्त दवाओं का छिड़काव किया जाये । ताकि पर्यटकों को बीमार होने का अंदेशा ना रहे ।
यदि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को साकार करना है तो इस विचार को भी आत्मसात करना होगा कि विश्व के हर देश के लोग हमारे सगे सम्बन्धी हैं और हमें उन्हें वही आदर मान देना होगा जो हम अपने सगे सम्बन्धियों को देना चाहते हैं । तभी हमारे देश का गौरव बढ़ेगा, पर्यटकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि होगी, कमर टूटते पर्यटन व्यवसाय को भी सहारा मिलेगा और साथ ही देश की अर्थ व्यवस्था में भी कुछ सुधार आयेगा ।

साधना वैद

1 comment:

  1. निसंदेह अतिथि देवो भव यह भारतीय संस्कृति की आदर्श परंपरा रही है . बहुत बढ़िया पोस्ट.

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