अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?
साधना वैद
Monday, September 14, 2009
Saturday, September 5, 2009
शिक्षक दिवस – आत्म चिंतन की महती आवश्यक्ता
शिक्षक दिवस पर उन सभी विभूतियों को मेरा हार्दिक नमन और अभिनन्दन है जिन्होंने विद्यादान के पावन कर्तव्य के निर्वहन के लिये अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया । नि:सन्देह रूप से यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और वन्दनीय कार्य है एवम् इसे वही कर सकता है जो पूर्ण रूप से निर्वैयक्तिक हो चुका हो और जिसने अपने जीवन का ध्येय ही अनगढ़ पत्थरों को तराश कर अनमोल हीरों में परिवर्तित कर देने का बना लिया हो । जैसे एक मूर्तिकार कच्ची माटी को गूँध कर अनुपम मूर्तियों का निर्माण करता है उसी तरह एक सच्चा शिक्षक बच्चों के मन मस्तिष्क की कोरी स्लेट पर पुस्तकीय ज्ञान के अलावा अच्छे संस्कार और उचित जीवन मूल्यों की परिभाषा इतनी गहराई से उकेर देता है जिसे जीवन पर्यंत कोई मिटा नही पाता । एक समाजोपयोगी व्यक्तित्व का बीजारोपण एक शिक्षक बालक के मन में बचपन में ही कर सकता है यदि यह लक्ष्य उसकी प्राथमिकताओं में शामिल हो ।
वर्तमान परिदृश्य में समर्पण का ऐसा भाव विरले महापुरुषों में ही देखने को मिलता है । आज के युग में शिक्षक सरस्वती के उपासक नहीं रह गये हैं वे तो अब लक्ष्मी की तरफ अधिक आकृष्ट हो गये हैं । शिक्षा का क्षेत्र अब व्यावसायिक हो गया है और शिक्षादान अब धनोपार्जन का अच्छा विकल्प माना जाने लगा है । शिक्षक और छात्रों में परस्पर सम्बन्ध भी अब उतने पावन और वात्सल्यपूर्ण नहीं रह गये हैं जितने होने चाहिये । वरना दण्ड देने के नाम पर बच्चों के साथ अमानवीयता की हद तक अत्याचार करने के प्रसंग सामने नहीं आते । मेरा आज का यह आलेख ऐसे ही शिक्षकों को समर्पित है जो पूरा वेतन तो वसूल कर लेते हैं लेकिन बच्चों को पढ़ाने के लिये कभी स्कूल नहीं जाते , जो बच्चों के साथ हद दर्ज़े की बदसलूकी करते हैं और उनका निजी हितों के लिये शोषण करने से ज़रा भी नहीं हिचकते , जो बच्चों के लिये दी गयी अनुदान राशि को खुद हड़प कर जाते हैं और जिन्हें बच्चों को बासी , विषाक्त भोजन खिलाते समय ईश्वर का भय भी नहीं सताता ।
क्या ऐसे शिक्षक सचमुच नमन के योग्य हैं ? क्या आज शिक्षक दिवस के दिन ऐसे शिक्षकों को चिन्हित करके उनकी सार्वजनिक रूप से भर्त्सना नहीं की जानी चाहिये ? वास्तव में शिक्षकों के आदरणीय वर्ग में कुछ ऐसे अपवाद भी घुलमिल गये हैं जिनकी अनुचित हरकतों ने सबकी छवि को धूमिल किया है ।
मेरी ऐसे शिक्षकों से विनम्र विनती है कि वे अपने कर्तव्यों को पहचानें , जिन बच्चों के व्यक्तित्व और भविष्य को सँवारने का दायित्व उन्होने स्वयम लिया है उसे पूरा करें । बच्चे बहुत कोमल होते हैं अपने शिक्षक पर उनकी अगाध श्रद्धा और विश्वास होता है इस विश्वास का वे मान रखें और कभी इसे कलंकित ना होने दें । बच्चों को इतना प्यार , इतना भरोसा और निर्भयता का वातावतण दें कि वे उनके सान्निध्य में स्वयम को सबसे सुरक्षित , सुखी और आश्वस्त महसूस करें । उन्हें अपने शिक्षक से डर ना लगे , वे बेझिझक अपने मन की गुत्थियों को उनके सामने खोल सकें और उनके सुझाये समाधानों को अपना सकें ।
आज का दिन अपने अंतर में झांकने का दिन है । आप ईमानदारी से अपने क्रियाकलापों का विश्लेषण कीजिये क्या शिक्षक दिवस के इस पवित्र दिन पर आप वास्तव में उन श्रद्धा सुमनों को पाने के योग्य हैं जिन्हें अगाध विश्वास, प्यार और भक्तिभाव के साथ आपके विद्यार्थी आपको समर्पित करते हैं ? यदि नहीं तो यही दिन है जब आप यह संकल्प ले सकते हैं कि आप इन श्रद्धासुमनों को पाने की पात्रता स्वयम में अवश्य अर्जित् करेंगे और शिक्षक तथा विद्यार्थी के पवित्र रिश्ते को कभी कलंकित नहीं होने देंगे ।
साधना वैद
वर्तमान परिदृश्य में समर्पण का ऐसा भाव विरले महापुरुषों में ही देखने को मिलता है । आज के युग में शिक्षक सरस्वती के उपासक नहीं रह गये हैं वे तो अब लक्ष्मी की तरफ अधिक आकृष्ट हो गये हैं । शिक्षा का क्षेत्र अब व्यावसायिक हो गया है और शिक्षादान अब धनोपार्जन का अच्छा विकल्प माना जाने लगा है । शिक्षक और छात्रों में परस्पर सम्बन्ध भी अब उतने पावन और वात्सल्यपूर्ण नहीं रह गये हैं जितने होने चाहिये । वरना दण्ड देने के नाम पर बच्चों के साथ अमानवीयता की हद तक अत्याचार करने के प्रसंग सामने नहीं आते । मेरा आज का यह आलेख ऐसे ही शिक्षकों को समर्पित है जो पूरा वेतन तो वसूल कर लेते हैं लेकिन बच्चों को पढ़ाने के लिये कभी स्कूल नहीं जाते , जो बच्चों के साथ हद दर्ज़े की बदसलूकी करते हैं और उनका निजी हितों के लिये शोषण करने से ज़रा भी नहीं हिचकते , जो बच्चों के लिये दी गयी अनुदान राशि को खुद हड़प कर जाते हैं और जिन्हें बच्चों को बासी , विषाक्त भोजन खिलाते समय ईश्वर का भय भी नहीं सताता ।
क्या ऐसे शिक्षक सचमुच नमन के योग्य हैं ? क्या आज शिक्षक दिवस के दिन ऐसे शिक्षकों को चिन्हित करके उनकी सार्वजनिक रूप से भर्त्सना नहीं की जानी चाहिये ? वास्तव में शिक्षकों के आदरणीय वर्ग में कुछ ऐसे अपवाद भी घुलमिल गये हैं जिनकी अनुचित हरकतों ने सबकी छवि को धूमिल किया है ।
मेरी ऐसे शिक्षकों से विनम्र विनती है कि वे अपने कर्तव्यों को पहचानें , जिन बच्चों के व्यक्तित्व और भविष्य को सँवारने का दायित्व उन्होने स्वयम लिया है उसे पूरा करें । बच्चे बहुत कोमल होते हैं अपने शिक्षक पर उनकी अगाध श्रद्धा और विश्वास होता है इस विश्वास का वे मान रखें और कभी इसे कलंकित ना होने दें । बच्चों को इतना प्यार , इतना भरोसा और निर्भयता का वातावतण दें कि वे उनके सान्निध्य में स्वयम को सबसे सुरक्षित , सुखी और आश्वस्त महसूस करें । उन्हें अपने शिक्षक से डर ना लगे , वे बेझिझक अपने मन की गुत्थियों को उनके सामने खोल सकें और उनके सुझाये समाधानों को अपना सकें ।
आज का दिन अपने अंतर में झांकने का दिन है । आप ईमानदारी से अपने क्रियाकलापों का विश्लेषण कीजिये क्या शिक्षक दिवस के इस पवित्र दिन पर आप वास्तव में उन श्रद्धा सुमनों को पाने के योग्य हैं जिन्हें अगाध विश्वास, प्यार और भक्तिभाव के साथ आपके विद्यार्थी आपको समर्पित करते हैं ? यदि नहीं तो यही दिन है जब आप यह संकल्प ले सकते हैं कि आप इन श्रद्धासुमनों को पाने की पात्रता स्वयम में अवश्य अर्जित् करेंगे और शिक्षक तथा विद्यार्थी के पवित्र रिश्ते को कभी कलंकित नहीं होने देंगे ।
साधना वैद