इस रक्षा बंधन पर विशेष !
प्यारे रहीम,
तुम्हारे खत का मजमून पढ़ कर
दुःख तो मुझे भी होता है,
समाज में अविश्वास और नफरत की जैसी आँधी आई है
उसे देख दिल मेरा भी बहुत रोता है !
पर क्या करूँ मेरे दोस्त
जब विश्वास बार-बार छला जाता है
तो शक हर एक की आँखों से बयाँ होता है,
और सामने से गुजरने वाले हर शख्स पर
बेवजह गुनहगार होने का गुमाँ होता है !
मैं जानता हूँ कभी-कभी सच की कसौटी पर
झूठ भी जीत जाता है
और गेहूँ के साथ-साथ अक्सर
बेगुनाह घुन भी पिस जाता है !
भय और असुरक्षा के इस आलम में
इंसान अपनी परछाईं से भी डरने लगता है
और अतिरिक्त सावधानी बरतने की धुन में
छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीने लगता है !
आज रक्षा-बंधन का त्यौहार है
मेरी दीदी ने भारत की
हर बहन की तरफ से
यह राखी तुम्हें भिजवाई है,
और तुम उसकी और अपनी जन्म-भूमि की
जी जान से रक्षा करोगे
यह आस तुमसे लगाई है !
ठीक वैसे ही जैसे कर्णवती ने हुमांयू को
राखी भेज कर रक्षा की गुहार लगाई थी
और हुमांयू ने भी जी जान से अपनी बहन के
मान और सम्मान की लाज बचाई थी !
आज दीदी के साथ-साथ भारत की हर बहन
तुमसे अपने घर की सुख शान्ति का उपहार माँगती है
और तुम और तुम जैसे हज़ारों रहीम
ऐसा करना चाहते हो वह यह भी जानती है !
जिनके गलत कारनामों ने
तुम्हारी साख पर बट्टा लगाया है
तुम कभी उन्हें कामयाब नहीं होने दोगे
यह हलफ आज तुम अपनी
बहनों के लिये उठा लो
और हुमांयू की तरह तुम भी
एक सच्चे, नेक और दर्दमंद
भाई होने का फ़र्ज़ निभा लो !
किसी और पर ना टाल कर तुम खुद
जो यह काम करोगे तो बड़ा सबाब होगा
और इस मातृ भूमि का क़र्ज़ तभी अदा हो पायेगा
जब हर गद्दार विभीषण का चेहरा बेनकाब होगा !
मेरा प्यार तुम्हारे लिये अक्षुण्ण है रहीम
यह कभी कम नहीं होगा ,
लेकिन जब देश हित की बात आती है
तो इसे कुर्बान करने में भी
मुझे कभी गम नहीं होगा !
तुम्हारा राम
साधना वैद
Tuesday, August 24, 2010
Friday, August 20, 2010
* क्या यह कसूर मेरा है *
मेरे प्यारे दोस्त राम
बहुत भरे दिल से
आज यह खत तुम्हें लिखा है !
लहरा तो रहा है दुःख का समंदर दिल में
लेकिन बहुत थोड़ा सा यहाँ दिखा है !
आज मैं तुमसे हमारे
बेहद पाक रिश्ते का हिसाब माँगता हूँ !
जिन्हें सोच-सोच कर मेरा दिमाग थक गया है
उन सवालों के जवाब माँगता हूँ !
मेरी अम्मी ने मुझे बताया था
जब तुम्हारा जन्म हुआ था
तो उन्होंने अपने घर में जोर-जोर से थाल बजा कर
तुम्हारे होने का शगुन मनाया था !
और जब मैं पैदा हुआ था
तो तुम्हारी मम्मी ने शहर के हर मंदिर में जा
प्रसाद चढाया था और ढेरों दान दक्षिणा दे
गरीब भिखारियों को खाना खिलाया था !
मैं वही रहीम हूँ आज भी
तुम्हारा दोस्त, तुम्हारा हमराज़, तुम्हारा भाई
फिर किसने ये दीवार खींची
और किसने खोदी ये खाई ?
क्या तुम भूल गए हर होली पर
सबसे पहली गुजिया
तुम्हारी मम्मी मुझे ही खिलाती थीं,
और हर ईद पर मेरी अम्मी
मुझसे भी ज्यादह ईदी
तुम्हें और तुम्हारी दीदी को दिलाती थीं ?
मेरे अब्बा से मिलने उनका कोई रिश्तेदार
दूसरे मुल्क से आया
क्या यह कसूर मेरा है ?
उसके वापिस जाने के बाद
शहर में धमाके हो गए
क्या यह कसूर मेरा है ?
यह महज एक इत्तिफाक भी तो हो सकता है
किसी और का हो तो हो
तुम्हारा विश्वास मेरे अब्बा पर
और मुझ पर कैसे डिग सकता है ?
अगर ऐसा नहीं है तो
फिर क्यों मेरे घर आने पर
तुम सबके चहरे
पत्थर की तरह खामोश हो जाते हैं,
आँखों में पहले सा प्यार नहीं छलकता
बोलों में गैरियत और
रुखाई के अक्स नज़र आते हैं ?
हम सब साथ खेले, पले, बड़े हुए
फिर अब ऐसा क्या हो गया
तुम सबके शक और नफ़रत की वजह
मेरा घर में आना ही हो गया !
जिस दीदी को हिफाज़त से
घर लाने के लिये
तुम्हारी मम्मी ने मुझे
अक्सर कॉलेज भेजा है
उसी दीदी को शायद
मेरी ही बद नज़र से बचाने के लिये
आज तुम्हारी मम्मी ने
आँख के इशारे से घर के अंदर भेजा है !
बोलो राम
इतने वर्षों के साथ के बाद
क्या आज मुझे
अपनी वफादारी अपनी शराफत
तुम्हारे सामने फिर से
साबित करनी होगी ?
सालों की हमारी
पाक साफ़ दोस्ती की इबारत
एक बार फिर नए सिरे से
बिलकुल शुरू से लिखनी होगी ?
मैंने हर सुख-दुःख में
तुम्हारा साथ निभाया है
तुम्हें भी अपने हर
खुशी और गम में शरीक पाया है
फिर तुमने कैसे यह सब कबूल कर लिया ?
क्या सिर्फ इसलिए कि
तुम 'राम' हो और मैं 'रहीम'
क्या महज़ इस फर्क ने ही
हमें इतनी दूर कर दिया ?
साधना वैद
बहुत भरे दिल से
आज यह खत तुम्हें लिखा है !
लहरा तो रहा है दुःख का समंदर दिल में
लेकिन बहुत थोड़ा सा यहाँ दिखा है !
आज मैं तुमसे हमारे
बेहद पाक रिश्ते का हिसाब माँगता हूँ !
जिन्हें सोच-सोच कर मेरा दिमाग थक गया है
उन सवालों के जवाब माँगता हूँ !
मेरी अम्मी ने मुझे बताया था
जब तुम्हारा जन्म हुआ था
तो उन्होंने अपने घर में जोर-जोर से थाल बजा कर
तुम्हारे होने का शगुन मनाया था !
और जब मैं पैदा हुआ था
तो तुम्हारी मम्मी ने शहर के हर मंदिर में जा
प्रसाद चढाया था और ढेरों दान दक्षिणा दे
गरीब भिखारियों को खाना खिलाया था !
मैं वही रहीम हूँ आज भी
तुम्हारा दोस्त, तुम्हारा हमराज़, तुम्हारा भाई
फिर किसने ये दीवार खींची
और किसने खोदी ये खाई ?
क्या तुम भूल गए हर होली पर
सबसे पहली गुजिया
तुम्हारी मम्मी मुझे ही खिलाती थीं,
और हर ईद पर मेरी अम्मी
मुझसे भी ज्यादह ईदी
तुम्हें और तुम्हारी दीदी को दिलाती थीं ?
मेरे अब्बा से मिलने उनका कोई रिश्तेदार
दूसरे मुल्क से आया
क्या यह कसूर मेरा है ?
उसके वापिस जाने के बाद
शहर में धमाके हो गए
क्या यह कसूर मेरा है ?
यह महज एक इत्तिफाक भी तो हो सकता है
किसी और का हो तो हो
तुम्हारा विश्वास मेरे अब्बा पर
और मुझ पर कैसे डिग सकता है ?
अगर ऐसा नहीं है तो
फिर क्यों मेरे घर आने पर
तुम सबके चहरे
पत्थर की तरह खामोश हो जाते हैं,
आँखों में पहले सा प्यार नहीं छलकता
बोलों में गैरियत और
रुखाई के अक्स नज़र आते हैं ?
हम सब साथ खेले, पले, बड़े हुए
फिर अब ऐसा क्या हो गया
तुम सबके शक और नफ़रत की वजह
मेरा घर में आना ही हो गया !
जिस दीदी को हिफाज़त से
घर लाने के लिये
तुम्हारी मम्मी ने मुझे
अक्सर कॉलेज भेजा है
उसी दीदी को शायद
मेरी ही बद नज़र से बचाने के लिये
आज तुम्हारी मम्मी ने
आँख के इशारे से घर के अंदर भेजा है !
बोलो राम
इतने वर्षों के साथ के बाद
क्या आज मुझे
अपनी वफादारी अपनी शराफत
तुम्हारे सामने फिर से
साबित करनी होगी ?
सालों की हमारी
पाक साफ़ दोस्ती की इबारत
एक बार फिर नए सिरे से
बिलकुल शुरू से लिखनी होगी ?
मैंने हर सुख-दुःख में
तुम्हारा साथ निभाया है
तुम्हें भी अपने हर
खुशी और गम में शरीक पाया है
फिर तुमने कैसे यह सब कबूल कर लिया ?
क्या सिर्फ इसलिए कि
तुम 'राम' हो और मैं 'रहीम'
क्या महज़ इस फर्क ने ही
हमें इतनी दूर कर दिया ?
साधना वैद
Thursday, August 12, 2010
* भारत माँ का आर्तनाद *
१५ अगस्त के उपलक्ष्य में विशेष रचना
वर्षों की गर्भ यंत्रणा सहने के बाद
सन् १९४७ की १४ और १५ अगस्त में
जब कुछ घंटों के अंतराल पर
मैंने दो जुडवाँ संतानों को जन्म दिया
तब मैं तय नहीं कर पा रही थी
कि मैं अपने आँचल में खेलती
स्वतन्त्रता नाम की इस प्यारी सी
संतान के सुख सौभाग्य पर
जश्न मनाऊँ
या अपनी सद्य प्रसूत
दूसरी संतान के अपहरण पर
सोग मनाऊँ
जिसे मेरे घर परिवार के कुछ
विघटनकारी सदस्यों ने ही षड्यंत्र कर
समाज में वैमनस्य का विष फैला
मेरी गोद से दूर कर दिया !
तब बापू थे !
उनके कंधे पर सवार हो मेरी नन्ही बेटी ने
अपनी आँखें खोली थीं
अपने सीने पर पत्थर रख कर
मैंने अपनी अपहृत संतान का दुःख भुला
अपनी इस बेटी को उनकी गोद में डाल दिया था
और निश्चिन्त होकर थोड़ी राहत की साँस ली थी !
लेकिन वह सुख भी मेरे नसीब में
बहुत अल्पकाल के लिये ही था !
३० जनवरी सन् १९४८ को
बापू को भी चंद गुमराह लोगों ने
मौत की नींद सुला दिया
और मुझे महसूस हुआ मेरी बेटी
फिर से अनाथ हो गयी है
असुरक्षित हो गयी है !
लेकिन मेरे और कितने होनहार बेटे थे
जिन्होंने हाथों हाथ मेरी बेटी की
सुरक्षा की जिम्मेदारी उठा ली,
उन्होंने उसे उँगली पकड़ कर
चलना सिखाया, गिर कर उठना
और उठ कर सम्हलना सिखाया,
मैं थोड़ी निश्चिन्त हुई
मेरी बेटी स्वतन्त्रता अब काबिल हाथों में है
अब कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा !
लेकिन यह क्या ?
एक एक कर मेरे सारे सुयोग्य,
समर्पित, कर्तव्यपरायण बेटे
काल कवलित होते गए
और उनके जाने बाद
मेरी बेटी अपने ही घर की
दहलीज पर फिर से
असुरक्षित और असहाय,
छली हुई और निरुपाय खड़ी है !
क्योंकि अब उसकी सुरक्षा का भार
जिन कन्धों पर है
वे उसकी ओर देखना भी नहीं चाहते
उनकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बँधी है
और मन में लालच और लोभ का
समंदर ठाठें मारता रहता है !
अब राजनीति और प्रशासन में
ऐसे नेताओं और अधिकारियों की
कमी नहीं जो अपना हित साधने के लिये
मेरी बेटी का सौदा करने में भी
हिचकिचाएंगे नहीं !
हर वर्ष अपनी बेटी की वर्षगाँठ पर
मैं उदास और हताश हो जाती हूँ
क्योंकि इसी दिन सबके चेहरों पर सजे
नकली मुखौटे के अंदर की
वीभत्स सच्चाई मुझे
साफ़ दिखाई दे जाती है
और मुझे अंदर तक आहत कर जाती है !
और मै स्वयम् को 'भारत माता'
कहलाने पर लज्जा का अनुभव करने लगती हूँ !
क्यों ऐसा होता है कि
निष्ठा और समर्पण का यह जज्बा
इतना अल्पकालिक ही होता है ?
स्वतन्त्रता को अस्तित्व में लाने के लिये
जो कुर्बानी मेरे अगणित बेटों ने दी
उसे ये चंद बेईमान लोग
पल भर में ही भुला देना चाहते हैं !
अब मेरा कौन सहारा
यही प्रश्न है जो मेरे मन मस्तिष्क में
दिन रात गूँजता रहता है
और मुझे व्यथित करता रहता है !
किसीने सच ही कहा है,
"जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह ह्रदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं !"
मुझे लगता है मेरे नसीब में
अब सिर्फ पत्थर ही पत्थर लिखे हैं !
साधना वैद
वर्षों की गर्भ यंत्रणा सहने के बाद
सन् १९४७ की १४ और १५ अगस्त में
जब कुछ घंटों के अंतराल पर
मैंने दो जुडवाँ संतानों को जन्म दिया
तब मैं तय नहीं कर पा रही थी
कि मैं अपने आँचल में खेलती
स्वतन्त्रता नाम की इस प्यारी सी
संतान के सुख सौभाग्य पर
जश्न मनाऊँ
या अपनी सद्य प्रसूत
दूसरी संतान के अपहरण पर
सोग मनाऊँ
जिसे मेरे घर परिवार के कुछ
विघटनकारी सदस्यों ने ही षड्यंत्र कर
समाज में वैमनस्य का विष फैला
मेरी गोद से दूर कर दिया !
तब बापू थे !
उनके कंधे पर सवार हो मेरी नन्ही बेटी ने
अपनी आँखें खोली थीं
अपने सीने पर पत्थर रख कर
मैंने अपनी अपहृत संतान का दुःख भुला
अपनी इस बेटी को उनकी गोद में डाल दिया था
और निश्चिन्त होकर थोड़ी राहत की साँस ली थी !
लेकिन वह सुख भी मेरे नसीब में
बहुत अल्पकाल के लिये ही था !
३० जनवरी सन् १९४८ को
बापू को भी चंद गुमराह लोगों ने
मौत की नींद सुला दिया
और मुझे महसूस हुआ मेरी बेटी
फिर से अनाथ हो गयी है
असुरक्षित हो गयी है !
लेकिन मेरे और कितने होनहार बेटे थे
जिन्होंने हाथों हाथ मेरी बेटी की
सुरक्षा की जिम्मेदारी उठा ली,
उन्होंने उसे उँगली पकड़ कर
चलना सिखाया, गिर कर उठना
और उठ कर सम्हलना सिखाया,
मैं थोड़ी निश्चिन्त हुई
मेरी बेटी स्वतन्त्रता अब काबिल हाथों में है
अब कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा !
लेकिन यह क्या ?
एक एक कर मेरे सारे सुयोग्य,
समर्पित, कर्तव्यपरायण बेटे
काल कवलित होते गए
और उनके जाने बाद
मेरी बेटी अपने ही घर की
दहलीज पर फिर से
असुरक्षित और असहाय,
छली हुई और निरुपाय खड़ी है !
क्योंकि अब उसकी सुरक्षा का भार
जिन कन्धों पर है
वे उसकी ओर देखना भी नहीं चाहते
उनकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बँधी है
और मन में लालच और लोभ का
समंदर ठाठें मारता रहता है !
अब राजनीति और प्रशासन में
ऐसे नेताओं और अधिकारियों की
कमी नहीं जो अपना हित साधने के लिये
मेरी बेटी का सौदा करने में भी
हिचकिचाएंगे नहीं !
हर वर्ष अपनी बेटी की वर्षगाँठ पर
मैं उदास और हताश हो जाती हूँ
क्योंकि इसी दिन सबके चेहरों पर सजे
नकली मुखौटे के अंदर की
वीभत्स सच्चाई मुझे
साफ़ दिखाई दे जाती है
और मुझे अंदर तक आहत कर जाती है !
और मै स्वयम् को 'भारत माता'
कहलाने पर लज्जा का अनुभव करने लगती हूँ !
क्यों ऐसा होता है कि
निष्ठा और समर्पण का यह जज्बा
इतना अल्पकालिक ही होता है ?
स्वतन्त्रता को अस्तित्व में लाने के लिये
जो कुर्बानी मेरे अगणित बेटों ने दी
उसे ये चंद बेईमान लोग
पल भर में ही भुला देना चाहते हैं !
अब मेरा कौन सहारा
यही प्रश्न है जो मेरे मन मस्तिष्क में
दिन रात गूँजता रहता है
और मुझे व्यथित करता रहता है !
किसीने सच ही कहा है,
"जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह ह्रदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं !"
मुझे लगता है मेरे नसीब में
अब सिर्फ पत्थर ही पत्थर लिखे हैं !
साधना वैद
Friday, August 6, 2010
* मैं तट हूँ ! *
मैं तट हूँ !
मैंने उजली धुँधली सुबहों में
हमेशा ही निरीह भूले
बच्चे की तरह मचलते सागर को
अपनी बाहों का आश्रय देकर
दुलारा है, प्यार किया है,
उसको उल्लसित किया है
फिर क्यों
जग मेरी उपेक्षा करता है !
जब भी भरपूर चाँदनी रातों में
विव्हल, व्याकुल होकर
सागर ने मेरे वक्ष पर
अपना सिर पटका है
मैंने हमेशा उसे
अपने अंक में समेट
प्यार से थपथपा कर
आश्वस्त किया है,
सांत्वना दी है !
फिर क्यों
जग मेरी भावनाओं से
अनजान बना रहता है !
जब जब अमर्यादित,
उच्श्रंखल होकर सागर ने
भीषण अट्टहास किया है,
अपनी विध्वंसक प्रवृत्ति
से सब कुछ तहस-नहस
कर डालने का
दुस्साहस किया है
मैंने उसके रौद्र रूप के
हर प्रहार को
अपने तन पर झेला है,
अपनी सीमाओं को
और विस्तृत कर दिया है
ताकि वह शांत हो जाए
और उसके क्रोध का आवेग
कम हो जाए !
फिर जग क्यों यह सब
अनदेखा करता है !
जो आता है वह
सागर की सुषमा से
सम्मोहित होता है,
उसकी लोल लहरों की लीला
उन्हें लुभाती है,
अरुण रश्मियों का
पानी में झिलमिलाता
प्रतिबम्ब उन्हें मन्त्रमुग्ध
करता है !
मेरा अस्तित्व क्या सिर्फ
पैरों तले रौंदे जाने
के लिये ही है ?
या मेरे तन पर सजे
शंख, सीपी नोचे जाने
के लिये है ?
सदियों से मैंने हर आगंतुक की
अभ्यर्थना और स्वागत
ही किया है !
चाहे वह
यात्री हो या सैनिक,
व्यापारी हो या पर्यटक,
शत्रु हो या मित्र
मेरे प्रेम का इस तरह
तिरस्कार क्यों ?
क्या मैं सिर्फ
लोगों की चरण रज
बन जाने के लिये ही
अस्तित्व में हूँ ?
मेरा अपना कोई
महत्व नहीं ?
क्योंकि
मैं केवल तट हूँ !
साधना वैद
मैंने उजली धुँधली सुबहों में
हमेशा ही निरीह भूले
बच्चे की तरह मचलते सागर को
अपनी बाहों का आश्रय देकर
दुलारा है, प्यार किया है,
उसको उल्लसित किया है
फिर क्यों
जग मेरी उपेक्षा करता है !
जब भी भरपूर चाँदनी रातों में
विव्हल, व्याकुल होकर
सागर ने मेरे वक्ष पर
अपना सिर पटका है
मैंने हमेशा उसे
अपने अंक में समेट
प्यार से थपथपा कर
आश्वस्त किया है,
सांत्वना दी है !
फिर क्यों
जग मेरी भावनाओं से
अनजान बना रहता है !
जब जब अमर्यादित,
उच्श्रंखल होकर सागर ने
भीषण अट्टहास किया है,
अपनी विध्वंसक प्रवृत्ति
से सब कुछ तहस-नहस
कर डालने का
दुस्साहस किया है
मैंने उसके रौद्र रूप के
हर प्रहार को
अपने तन पर झेला है,
अपनी सीमाओं को
और विस्तृत कर दिया है
ताकि वह शांत हो जाए
और उसके क्रोध का आवेग
कम हो जाए !
फिर जग क्यों यह सब
अनदेखा करता है !
जो आता है वह
सागर की सुषमा से
सम्मोहित होता है,
उसकी लोल लहरों की लीला
उन्हें लुभाती है,
अरुण रश्मियों का
पानी में झिलमिलाता
प्रतिबम्ब उन्हें मन्त्रमुग्ध
करता है !
मेरा अस्तित्व क्या सिर्फ
पैरों तले रौंदे जाने
के लिये ही है ?
या मेरे तन पर सजे
शंख, सीपी नोचे जाने
के लिये है ?
सदियों से मैंने हर आगंतुक की
अभ्यर्थना और स्वागत
ही किया है !
चाहे वह
यात्री हो या सैनिक,
व्यापारी हो या पर्यटक,
शत्रु हो या मित्र
मेरे प्रेम का इस तरह
तिरस्कार क्यों ?
क्या मैं सिर्फ
लोगों की चरण रज
बन जाने के लिये ही
अस्तित्व में हूँ ?
मेरा अपना कोई
महत्व नहीं ?
क्योंकि
मैं केवल तट हूँ !
साधना वैद
Tuesday, August 3, 2010
अलविदा ! बड़ी जीजी ! एक पुण्य स्मरण !
जन्म, 6 दिसंबर, 1937 ----- अवसान, 28 जुलाई, 2010
मेरे जीवन के कथा संकलन में एक और बहुत ही सुन्दर कहानी का समापन हो गया ! बड़ी जीजी आप तो हम सबको छोड़ कर बैकुंठ के परमधाम में चिर विश्रान्ति का वरण कर वहाँ चली गयीं लेकिन हमारे विकल मन को कैसे शान्ति मिले इसका कोई उपाय हमें नहीं बता गयीं ! कोई बात नहीं आप जहाँ रहें सुख से रहें और अपने नए संसार और नए जीवन को सदैव अपनी कलात्मक अभिरुचियों से सजाती सँवारती रहें यही कामना है ! अपना मन बहलाने के लिये हमारी स्मृति मंजूषा में आपसे जुड़ी अनमोल यादों की इतनी विपुल दौलत है कि हर स्मृति को जीने के लिये दिन और रातों की यह अवधि भी कम पड़ जायेगी !
अपने विवाह के बाद सबसे पहला परिचय मेरा आपसे ही कराया गया था ! और आपकी स्नेहिल मुस्कान और आश्वस्त करने वाले ममता भरे स्पर्श ने मेरी सारी दुश्चिंताओं और घबराहट को पल भर में ही दूर कर दिया था ! और फिर उसके बाद प्यार, विश्वास और आत्मीयता का जो बंधन आपके और छोटी जीजी के साथ मेरा जुड़ा वह सदैव कायम रहा ! मेरे स्वागत के उपलक्ष्य में आपका लिखा, स्वरबद्ध किया और गाया हुआ गीत आज भी मेरे कानों में गूंजता है --
" धीरे-धीरे पवन थिरकती पात बजाते ताली
भैया मेरा आया लेकर भाभी प्यारी-प्यारी "
कितनी बातें याद करूँ ! किसका ज़िक्र करूँ किसे छोडूँ तय कर पाना मुश्किल हो रहा है ! आप गुणों की खान थीं ! आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति एक साथ इतनी विधाओं में पारंगत कैसे हो सकता है ! आपके बनाए नवीनतम डिजाइन के एक से बढ़ कर एक आकर्षक स्वेटर्स परिवार के हर सदस्य के बदन पर वर्षों तक सजते रहे और उस ज़माने में जब संयुक्त परिवार की महिलायें ऊन सलाइयों में उलझी फंदों के जोड़-तोड़ और गुणा भाग में व्यस्त रहा करती थीं मैं बड़े इत्मीनान के साथ आपके इस शौक का फ़ायदा उठा जाड़ों की गुनगुनी धूप में मोटे-मोटे उपन्यासों के कथा संसार में विचरती रही और रातों को 'तामीले इरशाद' के बेमिसाल मधुर गीतों की स्वर लहरियों में डूबती उतराती रही ! आपने कभी ऊन और सलाइयों से उलझने का मुझे मौक़ा ही नहीं दिया ! हर नए डिजाइन को आप चैलेन्ज की तरह लेती थीं और चंद दिनों में ही ओरिजिनल से बेहतर स्वेटर तैयार हो जाता था ! आपके बनाए बेहद स्वादिष्ट और सुदर्शन समोसे, मक्खन से मुलायम दहीबड़े और बेहद जायकेदार गरमागरम रसीले गुलाबजामुनों का स्वाद इतने वर्षों के बाद भी जिव्हा से उतरना ही नहीं चाहता है ! आपके बनाए खूबसूरत फूल ना जाने कितने घरों के ड्रॉइंग रूम्स की शोभा आज भी बढ़ा रहे हैं और प्यार, स्नेह और सौहार्द्र का सन्देश प्रसारित कर रहे हैं ! जब भी आपके पास गए आपके गरिमामय आभिजात्यपूर्ण व्यक्तित्व, सुरुचिपूर्ण कलात्मक ढंग से सजे घर, और आपके आत्मीय एवं स्नेहिल आतिथ्य सत्कार से प्रभावित हुए बिना नही रह सके ! गूढ़ से गूढ़ विषय पर भी आपके एकदम स्पष्ट और मौलिक विचार हमेशा आपको विशिष्ट बनाते रहे और मैं हमेशा यही सोचती रही कि आपने चाहे बहुत अल्प काल के लिये ही पढ़ाया लेकिन वे छात्राएं कितनी भाग्यशाली रही होंगी जिनको आपसे कुछ सीखने समझने का सुअवसर मिला होगा ! आपने जीवन भर जिस निष्ठा और समर्पण के साथ अपने घर परिवार का ध्यान रखा, उनकी प्रतिष्ठा को बनाए रखा यह वास्तव में आपके विलक्षण व्यक्तित्व का ही परिचायक है ! आपसे दूर रह कर भी मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है लेकिन जितनी ईमानदारी और सच्चाई के साथ धैर्य, सहनशीलता एवं स्वीकार को आपने वरण कर लिया था उसके आगे नत मस्तक होने के अलावा कोई कुछ नहीं कर सकता !
आपसे बहुत कुछ और सीखना बाकी था बड़ी जीजी ! सोचा था अमेरिका से लौटते ही आपको अपने साथ ले आऊँगी ताकि रही सही कमी पूरी हो जाए लेकिन आपने बीच में ही अपनी आँखें मूँद लीं ! मैं स्वयम् को बहुत छला हुआ अनुभव कर रही हूँ ! अश्रुपूरित नेत्रों से बस यही कामना कर सकती हूँ कि आप जहाँ रहें खुश रहें और अपने बैकुंठ निवास को भी अपने हाथों के बनाए अनुपम फूलों से उसी तरह सजाती सँवारती रहें जैसे यहाँ सजाया करती थीं ! मुझे पूरा यकीन है कि इतने सुन्दर फूल तो देवराज इंद्र के उपवन में भी नहीं होंगे ! हम सब हमेशा बड़ी श्रद्धा, सम्मान और प्यार के साथ आपको तमाम उम्र याद करते रहेंगे और आपके आशीर्वाद की अपेक्षा करते रहेंगे ! आप वहीं से हम पर अपना प्यार और आशीष लुटाती रहिएगा !
साधना वैद
मेरे जीवन के कथा संकलन में एक और बहुत ही सुन्दर कहानी का समापन हो गया ! बड़ी जीजी आप तो हम सबको छोड़ कर बैकुंठ के परमधाम में चिर विश्रान्ति का वरण कर वहाँ चली गयीं लेकिन हमारे विकल मन को कैसे शान्ति मिले इसका कोई उपाय हमें नहीं बता गयीं ! कोई बात नहीं आप जहाँ रहें सुख से रहें और अपने नए संसार और नए जीवन को सदैव अपनी कलात्मक अभिरुचियों से सजाती सँवारती रहें यही कामना है ! अपना मन बहलाने के लिये हमारी स्मृति मंजूषा में आपसे जुड़ी अनमोल यादों की इतनी विपुल दौलत है कि हर स्मृति को जीने के लिये दिन और रातों की यह अवधि भी कम पड़ जायेगी !
अपने विवाह के बाद सबसे पहला परिचय मेरा आपसे ही कराया गया था ! और आपकी स्नेहिल मुस्कान और आश्वस्त करने वाले ममता भरे स्पर्श ने मेरी सारी दुश्चिंताओं और घबराहट को पल भर में ही दूर कर दिया था ! और फिर उसके बाद प्यार, विश्वास और आत्मीयता का जो बंधन आपके और छोटी जीजी के साथ मेरा जुड़ा वह सदैव कायम रहा ! मेरे स्वागत के उपलक्ष्य में आपका लिखा, स्वरबद्ध किया और गाया हुआ गीत आज भी मेरे कानों में गूंजता है --
" धीरे-धीरे पवन थिरकती पात बजाते ताली
भैया मेरा आया लेकर भाभी प्यारी-प्यारी "
कितनी बातें याद करूँ ! किसका ज़िक्र करूँ किसे छोडूँ तय कर पाना मुश्किल हो रहा है ! आप गुणों की खान थीं ! आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति एक साथ इतनी विधाओं में पारंगत कैसे हो सकता है ! आपके बनाए नवीनतम डिजाइन के एक से बढ़ कर एक आकर्षक स्वेटर्स परिवार के हर सदस्य के बदन पर वर्षों तक सजते रहे और उस ज़माने में जब संयुक्त परिवार की महिलायें ऊन सलाइयों में उलझी फंदों के जोड़-तोड़ और गुणा भाग में व्यस्त रहा करती थीं मैं बड़े इत्मीनान के साथ आपके इस शौक का फ़ायदा उठा जाड़ों की गुनगुनी धूप में मोटे-मोटे उपन्यासों के कथा संसार में विचरती रही और रातों को 'तामीले इरशाद' के बेमिसाल मधुर गीतों की स्वर लहरियों में डूबती उतराती रही ! आपने कभी ऊन और सलाइयों से उलझने का मुझे मौक़ा ही नहीं दिया ! हर नए डिजाइन को आप चैलेन्ज की तरह लेती थीं और चंद दिनों में ही ओरिजिनल से बेहतर स्वेटर तैयार हो जाता था ! आपके बनाए बेहद स्वादिष्ट और सुदर्शन समोसे, मक्खन से मुलायम दहीबड़े और बेहद जायकेदार गरमागरम रसीले गुलाबजामुनों का स्वाद इतने वर्षों के बाद भी जिव्हा से उतरना ही नहीं चाहता है ! आपके बनाए खूबसूरत फूल ना जाने कितने घरों के ड्रॉइंग रूम्स की शोभा आज भी बढ़ा रहे हैं और प्यार, स्नेह और सौहार्द्र का सन्देश प्रसारित कर रहे हैं ! जब भी आपके पास गए आपके गरिमामय आभिजात्यपूर्ण व्यक्तित्व, सुरुचिपूर्ण कलात्मक ढंग से सजे घर, और आपके आत्मीय एवं स्नेहिल आतिथ्य सत्कार से प्रभावित हुए बिना नही रह सके ! गूढ़ से गूढ़ विषय पर भी आपके एकदम स्पष्ट और मौलिक विचार हमेशा आपको विशिष्ट बनाते रहे और मैं हमेशा यही सोचती रही कि आपने चाहे बहुत अल्प काल के लिये ही पढ़ाया लेकिन वे छात्राएं कितनी भाग्यशाली रही होंगी जिनको आपसे कुछ सीखने समझने का सुअवसर मिला होगा ! आपने जीवन भर जिस निष्ठा और समर्पण के साथ अपने घर परिवार का ध्यान रखा, उनकी प्रतिष्ठा को बनाए रखा यह वास्तव में आपके विलक्षण व्यक्तित्व का ही परिचायक है ! आपसे दूर रह कर भी मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है लेकिन जितनी ईमानदारी और सच्चाई के साथ धैर्य, सहनशीलता एवं स्वीकार को आपने वरण कर लिया था उसके आगे नत मस्तक होने के अलावा कोई कुछ नहीं कर सकता !
आपसे बहुत कुछ और सीखना बाकी था बड़ी जीजी ! सोचा था अमेरिका से लौटते ही आपको अपने साथ ले आऊँगी ताकि रही सही कमी पूरी हो जाए लेकिन आपने बीच में ही अपनी आँखें मूँद लीं ! मैं स्वयम् को बहुत छला हुआ अनुभव कर रही हूँ ! अश्रुपूरित नेत्रों से बस यही कामना कर सकती हूँ कि आप जहाँ रहें खुश रहें और अपने बैकुंठ निवास को भी अपने हाथों के बनाए अनुपम फूलों से उसी तरह सजाती सँवारती रहें जैसे यहाँ सजाया करती थीं ! मुझे पूरा यकीन है कि इतने सुन्दर फूल तो देवराज इंद्र के उपवन में भी नहीं होंगे ! हम सब हमेशा बड़ी श्रद्धा, सम्मान और प्यार के साथ आपको तमाम उम्र याद करते रहेंगे और आपके आशीर्वाद की अपेक्षा करते रहेंगे ! आप वहीं से हम पर अपना प्यार और आशीष लुटाती रहिएगा !
साधना वैद
Sunday, August 1, 2010
उदास शाम
आज मन बहुत उदास है ! अपनी एक पुरानी कविता बहुत उद्वेलित कर रही है !
इसे आपके साथ बाँटना चाहती हूँ शायद मेरी पीड़ा कुछ कम हो जाये !
सागर का तट मैं एकाकी और उदासी शाम
ढलता सूरज देख रही हूँ अपलक और अविराम ।
जितना गहरा सागर उतनी भावों की गहराई
कितना आकुल अंतर कितनी स्मृतियाँ उद्दाम ।
पंछी दल लौटे नीड़ों को मेरा नीड़ कहाँ है
नहीं कोई आतुर चलने को मेरी उंगली थाम ।
सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
दूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम ।
बाहर भी तम भीतर भी तम लुप्त हुई सब माया
सुनती हूँ दोनों का गर्जन निश्चल और निष्काम ।
कोई होता जो मेरे इस मूक रुदन को सुनता
कोई आकर मुझे जगाता बन कर मेरा राम !
साधना वैद
इसे आपके साथ बाँटना चाहती हूँ शायद मेरी पीड़ा कुछ कम हो जाये !
सागर का तट मैं एकाकी और उदासी शाम
ढलता सूरज देख रही हूँ अपलक और अविराम ।
जितना गहरा सागर उतनी भावों की गहराई
कितना आकुल अंतर कितनी स्मृतियाँ उद्दाम ।
पंछी दल लौटे नीड़ों को मेरा नीड़ कहाँ है
नहीं कोई आतुर चलने को मेरी उंगली थाम ।
सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
दूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम ।
बाहर भी तम भीतर भी तम लुप्त हुई सब माया
सुनती हूँ दोनों का गर्जन निश्चल और निष्काम ।
कोई होता जो मेरे इस मूक रुदन को सुनता
कोई आकर मुझे जगाता बन कर मेरा राम !
साधना वैद