मैं तट हूँ !
मैंने उजली धुँधली सुबहों में
हमेशा ही निरीह भूले
बच्चे की तरह मचलते सागर को
अपनी बाहों का आश्रय देकर
दुलारा है, प्यार किया है,
उसको उल्लसित किया है
फिर क्यों
जग मेरी उपेक्षा करता है !
जब भी भरपूर चाँदनी रातों में
विव्हल, व्याकुल होकर
सागर ने मेरे वक्ष पर
अपना सिर पटका है
मैंने हमेशा उसे
अपने अंक में समेट
प्यार से थपथपा कर
आश्वस्त किया है,
सांत्वना दी है !
फिर क्यों
जग मेरी भावनाओं से
अनजान बना रहता है !
जब जब अमर्यादित,
उच्श्रंखल होकर सागर ने
भीषण अट्टहास किया है,
अपनी विध्वंसक प्रवृत्ति
से सब कुछ तहस-नहस
कर डालने का
दुस्साहस किया है
मैंने उसके रौद्र रूप के
हर प्रहार को
अपने तन पर झेला है,
अपनी सीमाओं को
और विस्तृत कर दिया है
ताकि वह शांत हो जाए
और उसके क्रोध का आवेग
कम हो जाए !
फिर जग क्यों यह सब
अनदेखा करता है !
जो आता है वह
सागर की सुषमा से
सम्मोहित होता है,
उसकी लोल लहरों की लीला
उन्हें लुभाती है,
अरुण रश्मियों का
पानी में झिलमिलाता
प्रतिबम्ब उन्हें मन्त्रमुग्ध
करता है !
मेरा अस्तित्व क्या सिर्फ
पैरों तले रौंदे जाने
के लिये ही है ?
या मेरे तन पर सजे
शंख, सीपी नोचे जाने
के लिये है ?
सदियों से मैंने हर आगंतुक की
अभ्यर्थना और स्वागत
ही किया है !
चाहे वह
यात्री हो या सैनिक,
व्यापारी हो या पर्यटक,
शत्रु हो या मित्र
मेरे प्रेम का इस तरह
तिरस्कार क्यों ?
क्या मैं सिर्फ
लोगों की चरण रज
बन जाने के लिये ही
अस्तित्व में हूँ ?
मेरा अपना कोई
महत्व नहीं ?
क्योंकि
मैं केवल तट हूँ !
साधना वैद
सागर और तट का खूबसूरत बिम्ब ...और लहरों कि तरह मन का हाहाकार ....सुन्दर रचना ....बहुत से आयाम निकलते हैं इससे...
ReplyDeleteभाव पूर्ण रचना मन को गहराई से छू गई |
ReplyDeleteआशा
बहुत ही गहरे भाव छुपे हैं इस कविता में...मन को उद्वेलित कर गयी ये रचना...
ReplyDeleteसागर के तट का इससे अच्छा मानवीकरण हो ही नहीं सकता |रचना मन को छू गई| जो दूसरों की सहायता में सदैव तत्पर रहता है उसे सागर के तट की तरह जीवन भर उपेक्सा ही झेलनी होगी|
ReplyDeleteप्रतीक विशेष रचना...जितनी सुघड़ता से तट और सागर को प्रतीक रूप में ले मन की बात कही बहुत कुछ हमें सीखने का मार्ग देती है. बहुत बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
कमाल कि रचना है, बेहतरीन!
ReplyDeleteक्या मैं सिर्फ
ReplyDeleteलोगों की चरण रज
बन जाने के लिये ही
अस्तित्व में हूँ ?
मेरा अपना कोई
महत्व नहीं ?
क्योंकि
मैं केवल तट हूँ ...
संवेदनशील रचना ... गहरी रचना ... पर शायद कुछ नियति ही ऐसी है तट की ....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2020) को शब्द-सृजन-18 'किनारा' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteभाव गाम्भीर्य से लबरेज़ ख़ूबसूरत सृजन जो मंथन की भावभूमि तैयार करता है। तट की वेदना को बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से आपने मर्मस्पर्शी बना दिया है।
ReplyDeleteसादर नमन आदरणीया दीदी।
हार्दिक धन्यवाद रवीन्द्र जी ! कविता आपको अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ ! बहुत बहुत आभार आपका !
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