Tuesday, December 28, 2010

वेदना की राह पर

वेदना की राह पर
बेचैन मैं हर पल घड़ी ,
तुम सदा थे साथ फिर
क्यों आज मैं एकल खड़ी !

थाम कर उँगली तुम्हारी
एक भोली आस पर ,
चल पड़ी सागर किनारे
एक अनबुझ प्यास धर !

मैं तो अमृत का कलश
लेकर चली थी साथ पर ,
फिर भला क्यों रह गये
यूँ चिर तृषित मेरे अधर !

मैं झुलस कर रह गयी
रिश्ते बचाने के लिये ,
मैं बिखर कर रह गयी
सपने सजाने के लिये !

रात का अंतिम पहर
अब अस्त होने को चला ,
पर दुखों की राह का
कब अंत होता है भला !

चल रही हूँ रात दिन
पर राह यह थमती नहीं ,
कल जहाँ थी आज भी
मैं देखती खुद को वहीं !

थक चुकी हूँ आज इतना
और चल सकती नहीं ,
मंजिलों की राह पर
अब पैर मुड़ सकते नहीं

कल उठूँगी, फिर चलूँगी
पार तो जाना ही है ,
साथ हो कोई, न कोई
इष्ट तो पाना ही है !

साधना वैद

14 comments:

  1. मैं तो अमृत का कलश
    लेकर चली थी साथ पर ,
    फिर भला क्यों रह गये
    यूँ चिर तृषित मेरे अधर !

    मन की वेदना स्पष्ट हो रही है ..


    कल उठूँगी, फिर चलूँगी
    पार तो जाना ही है ,
    साथ हो कोई, न कोई
    इष्ट तो पाना ही है !


    यही नीयति है ... बहुत मार्मिक रचना ....

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  2. कल उठूँगी, फिर चलूँगी
    पार तो जाना ही है ,
    साथ हो कोई, न कोई
    इष्ट तो पाना ही है !
    एक बहुत अच्छी ओर मार्मिक रचना के लिये धन्यवाद

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  3. "मैं तो अमृत कलश ले कर चली थी -----
    यूँ चिर तृषित मेरे अधर "
    बहुत सुन्दर भाव लिए रचना
    आशा

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  4. वाह..बहुत खूब....

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  5. बहुत भावपूर्ण मार्मिक रचना ......आभार

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  6. आदरणीया साधना जी
    प्रणाम !
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
    बधाई.

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  7. चल रही हूँ रात दिन
    पर राह यह थमती नहीं ,
    कल जहाँ थी आज भी
    मैं देखती खुद को वहीं !

    सबके ह्रदय की वेदना उतर आई है इन पंक्तियों में.... पर लोगो को आगे बढ़ते देने का सुख भी तो मिलता ही है

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  8. कल उठूँगी, फिर चलूँगी
    पार तो जाना ही है ,
    साथ हो कोई, न कोई
    इष्ट तो पाना ही है !

    बहुत ही सुन्‍दर भावमय करते शब्‍द ।

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  9. aapki kavita padh kar aaj Jai Shankar Prasad ji ki rachit kavy-rachna "AANSU" ki do panktiya yaad aa gayi....
    ABHILAASHAAON KI KARVAT
    FIR SUPT VYATHA KA JAGNA
    SUKH KA SAPNA HO JANA,
    BHEEGI PALKON KA LAGNA.

    Apki rachna me bhi ghanibhoot peeda sajag hokar barbas hi baras rahi hai.

    aapke karun-kalil hridy ki vikal raagini apne ha-ha-kar bhare swaron me sampoorn naari jiwan ki karuna samaite niranter aapki rachnaaon me gunza karti hai.

    aapki is rachna k liye saadhuwad.

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  10. कल उठूँगी, फिर चलूँगी
    पार तो जाना ही है ,
    साथ हो कोई, न कोई
    इष्ट तो पाना ही है !

    बहुत अच्छी पंक्तियां....यही हौसला और हिम्मत होनी चाहिए....

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  11. बहुत सुन्दर भाव..

    मैं तो अमृत का कलश
    लेकर चली थी साथ पर ,
    फिर भला क्यों रह गये
    यूँ चिर तृषित मेरे अधर !


    अदभुद........
    सादर नमन आपको और आपकी लेखनी को..

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  12. हर छंद दूसरे से सुन्दर है ...किस भाव की तारीफ की जाए ..पूरी कविता बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी है! साधनाजी बहुत अच्छा लिखती हैं आप !

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  13. कल उठूँगी, फिर चलूँगी
    पार तो जाना ही है ,
    साथ हो कोई, न कोई
    इष्ट तो पाना ही है !
    ..ant mein khud ko sakaratak hona hi padta hai, tabhi vedana se ubhar paana sambhav hota hai..
    sundar marmsparshi rachna..

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