कहीं तो चूक हुई है
वरना वर्षों से अंतरतम के निर्जन कोने में
संकलित, संग्रहित निश्च्छल प्रार्थनाएं
सुने बिना ही देवता यूँ रूठ न जाते
और वे पल भर में ही निष्फल ना हो जातीं !
कहीं तो चूक हुई है
वरना अंजुली में सजी चमकीली धूप
उँगलियों से छिटक कर अचानक ही यूँ
सर्द हवाओं में विलीन ना हो जाती
और मेरी हथेलियाँ यूँ रीती ना हो जातीं !
कहीं तो चूक हुई है
वरना पल भर के लिये ही सही
दिग्दिगंत को आलोक से जगमगा देने वाले
त्वरा के प्रकाश को मेरे नयन आत्मसात कर पाते
इससे पहले ही मेरी पलकें मुँद न जातीं !
कहीं तो चूक हुई है
वरना हृदय में सदियों से संचित
नन्हीं-नन्हीं, नादान, भोली, सुकुमार आशाएं
प्रतिफलित होने से पहले ही इस तरह
मेरे मन में ही दम ना तोड़ देतीं !
कहीं तो चूक हुई है
वरना तेरी खुशबू, तेरे अहसास, तेरे वजूद
को मैं जी पाती इससे पहले ही जीवन की गाड़ी
किसी और राह पर ना मुड़ जाती !
साधना वैद
Sunday, January 30, 2011
Thursday, January 27, 2011
दिव्यदृष्टि
वह बैठा है एक आलीशान होटल के बाहर
पेड़ के ऊँचे गहरे कोटर में .
सजग, सतर्क, खामोश, विरक्त
और देख रहा है साँस रोके
बेरहम दुनिया को पूर्णत: निरावृत
बिना किसी मुखौटे के
उसके अपने असली रूप रंग में !
जहाँ होटल के अंदर कुछ लोग
तेज संगीत की ताल पर
जाम पर जाम चढ़ा तीव्र गति से
डांस फ्लोर पर थिरक रहे हैं,
और होटल के बाहर दरबान मुस्तैदी से
उनकी रखवाली कर रहे हैं !
वहीं कुछ लोग दिन भर की बदन तोड़
मेहनत मजदूरी के बाद फुटपाथ पर
ज़रा सा सुस्ताने के लिये बैठ गये हैं
तो सिपाही उन्हें दुत्कार कर खदेड़ रहे हैं !
जहाँ होटल के अंदर तरह-तरह के
पकवानों से सजी मेजें दूर-दूर तक फ़ैली हैं
और जूठन से भरी भराई
अनगिनत प्लेटें बास्केट में भरी पड़ी हैं,
वहीं होटल के बाहर
सूखे होंठ,खाली पेट और निस्तेज आँखों वाले
चंद बच्चों का हुजूम लालायित नज़रों से
जूठन से भरी इन प्लेटों को
हसरत से देख रहा है !
पार्टी समाप्त हुई है
और जगर मगर कीमती वस्त्रों में सजे लोग
हाथों में हाथ डाले डगमगाते कदमों से
चमचमाती शानदार कारों में बैठ जा रहे हैं
और अधनंगे भूखे बच्चों का झुण्ड
चंद सिक्कों की आस में
हाथ फैलाए कारों के पीछे
एक निष्फल निरर्थक दौड़ लगा रहा है
और दुत्कारा जा रहा है उन तथाकथित
अमीर लोगों के द्वारा जिन्हें शायद
इस समाज का रहनुमां समझा जाता है !
वह यह सब देखता है हर रात !
यह विषमता, यह वर्ग भेद
यह विकृति, यह विरूपता
और उसका मन भर उठता है एक
गहन अकथनीय पीड़ा और वितृष्णा से !
ऐसी दुनिया उसे नहीं भाती
और पौ फटते ही वह अपनी आँखें मूँद
घुस जाता है अपने कोटर में
दिन भर के लिये !
शायद आने वाली अगली रात के लिये
जब उसे पुन: चाहे अनचाहे
यही सब कुछ फिर देखना पड़ेगा
क्योंकि वह एक उल्लू है और
कदाचित इसीलिये पश्चिमी मान्यता के अनुसार
वह मूर्खता का नहीं वरन्
विद्वता का प्रतीक है !
साधना वैद
पेड़ के ऊँचे गहरे कोटर में .
सजग, सतर्क, खामोश, विरक्त
और देख रहा है साँस रोके
बेरहम दुनिया को पूर्णत: निरावृत
बिना किसी मुखौटे के
उसके अपने असली रूप रंग में !
जहाँ होटल के अंदर कुछ लोग
तेज संगीत की ताल पर
जाम पर जाम चढ़ा तीव्र गति से
डांस फ्लोर पर थिरक रहे हैं,
और होटल के बाहर दरबान मुस्तैदी से
उनकी रखवाली कर रहे हैं !
वहीं कुछ लोग दिन भर की बदन तोड़
मेहनत मजदूरी के बाद फुटपाथ पर
ज़रा सा सुस्ताने के लिये बैठ गये हैं
तो सिपाही उन्हें दुत्कार कर खदेड़ रहे हैं !
जहाँ होटल के अंदर तरह-तरह के
पकवानों से सजी मेजें दूर-दूर तक फ़ैली हैं
और जूठन से भरी भराई
अनगिनत प्लेटें बास्केट में भरी पड़ी हैं,
वहीं होटल के बाहर
सूखे होंठ,खाली पेट और निस्तेज आँखों वाले
चंद बच्चों का हुजूम लालायित नज़रों से
जूठन से भरी इन प्लेटों को
हसरत से देख रहा है !
पार्टी समाप्त हुई है
और जगर मगर कीमती वस्त्रों में सजे लोग
हाथों में हाथ डाले डगमगाते कदमों से
चमचमाती शानदार कारों में बैठ जा रहे हैं
और अधनंगे भूखे बच्चों का झुण्ड
चंद सिक्कों की आस में
हाथ फैलाए कारों के पीछे
एक निष्फल निरर्थक दौड़ लगा रहा है
और दुत्कारा जा रहा है उन तथाकथित
अमीर लोगों के द्वारा जिन्हें शायद
इस समाज का रहनुमां समझा जाता है !
वह यह सब देखता है हर रात !
यह विषमता, यह वर्ग भेद
यह विकृति, यह विरूपता
और उसका मन भर उठता है एक
गहन अकथनीय पीड़ा और वितृष्णा से !
ऐसी दुनिया उसे नहीं भाती
और पौ फटते ही वह अपनी आँखें मूँद
घुस जाता है अपने कोटर में
दिन भर के लिये !
शायद आने वाली अगली रात के लिये
जब उसे पुन: चाहे अनचाहे
यही सब कुछ फिर देखना पड़ेगा
क्योंकि वह एक उल्लू है और
कदाचित इसीलिये पश्चिमी मान्यता के अनुसार
वह मूर्खता का नहीं वरन्
विद्वता का प्रतीक है !
साधना वैद
Wednesday, January 19, 2011
आहट
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
घटाटोप अन्धकार में
आसमान की ऊँचाई से
मुट्ठी भर रोशनी लिये
किसी धुँधले से तारे की
एक दुर्बल सी किरण
धरा के किसी कोने में टिमटिमाई है !
कहीं यह तुम्हारी आने की आहट तो नहीं !
गहनतम नीरव गह्वर में
सुदूर ठिकानों से
सदियों से स्थिर
सन्नाटे को चीरती
एक क्षीण सी आवाज़ की
प्रतिध्वनि सुनाई दी है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
सूर्य के भीषण ताप से
भभकती , दहकती
चटकती , दरकती ,
मरुभूमि को सावन की
पहली फुहार की एक
नन्हीं सी बूँद धीरे से छू गयी है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
पतझड़ के शाश्वत मौसम में
जब सभी वृक्ष अपनी
नितांत अलंकरणविहीन
निरावृत बाहों को फैला
अपनी दुर्दशा के अंत के लिये
प्रार्थना सी करते प्रतीत होते हैं
मेरे मन के उपवन में एक
कोमल सी कोंपल ने जन्म लिया है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
साधना वैद
घटाटोप अन्धकार में
आसमान की ऊँचाई से
मुट्ठी भर रोशनी लिये
किसी धुँधले से तारे की
एक दुर्बल सी किरण
धरा के किसी कोने में टिमटिमाई है !
कहीं यह तुम्हारी आने की आहट तो नहीं !
गहनतम नीरव गह्वर में
सुदूर ठिकानों से
सदियों से स्थिर
सन्नाटे को चीरती
एक क्षीण सी आवाज़ की
प्रतिध्वनि सुनाई दी है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
सूर्य के भीषण ताप से
भभकती , दहकती
चटकती , दरकती ,
मरुभूमि को सावन की
पहली फुहार की एक
नन्हीं सी बूँद धीरे से छू गयी है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
पतझड़ के शाश्वत मौसम में
जब सभी वृक्ष अपनी
नितांत अलंकरणविहीन
निरावृत बाहों को फैला
अपनी दुर्दशा के अंत के लिये
प्रार्थना सी करते प्रतीत होते हैं
मेरे मन के उपवन में एक
कोमल सी कोंपल ने जन्म लिया है !
कहीं यह तुम्हारे आने की आहट तो नहीं !
साधना वैद
Sunday, January 16, 2011
उड़ चला मन
इन्द्रधनुषी आसमानों से परे,
प्रणय की मदमस्त तानों से परे,
स्वप्न सुख के बंधनों से मुक्त हो,
कल्पना की वंचनाओं से परे,
उड़ चला मन राह अपनी खोजने,
तुम न अब आवाज़ देकर रोकना !
चन्द्रमा की ज्योत्सना का क्या करूँ,
कोकिला के मधुर स्वर को क्यों सुनूँ,
चाँदनी का रूप बहलाता नहीं,
मलय का शीतल परस भी क्यों चुनूँ ,
उड़ चला मन आग प्राणों में लिये,
तुम न पीछे से उसे अब टोकना !
आँधियों का वेग उसको चाहिये,
ज्वार का आवेग उसको चाहिये,
ध्वंस कर दे जो सभी झूठे भरम,
बिजलियों की कौंध उसको चाहिये,
उड़ चला मन दग्ध अंतर को लिये,
तुम न उसकी राह को अब रोकना !
निज ह्रदय की विकलता को हार कर,
विघ्न बाधाओं के सागर पार कर,
भाग्य अपना बंद मुट्ठी में लिये,
चला जो अविरल नुकीली धार पर,
उड़ चला मन ठौर पाने के लिये,
तुम न उस परवाज़ को अब टोकना !
साधना वैद
प्रणय की मदमस्त तानों से परे,
स्वप्न सुख के बंधनों से मुक्त हो,
कल्पना की वंचनाओं से परे,
उड़ चला मन राह अपनी खोजने,
तुम न अब आवाज़ देकर रोकना !
चन्द्रमा की ज्योत्सना का क्या करूँ,
कोकिला के मधुर स्वर को क्यों सुनूँ,
चाँदनी का रूप बहलाता नहीं,
मलय का शीतल परस भी क्यों चुनूँ ,
उड़ चला मन आग प्राणों में लिये,
तुम न पीछे से उसे अब टोकना !
आँधियों का वेग उसको चाहिये,
ज्वार का आवेग उसको चाहिये,
ध्वंस कर दे जो सभी झूठे भरम,
बिजलियों की कौंध उसको चाहिये,
उड़ चला मन दग्ध अंतर को लिये,
तुम न उसकी राह को अब रोकना !
निज ह्रदय की विकलता को हार कर,
विघ्न बाधाओं के सागर पार कर,
भाग्य अपना बंद मुट्ठी में लिये,
चला जो अविरल नुकीली धार पर,
उड़ चला मन ठौर पाने के लिये,
तुम न उस परवाज़ को अब टोकना !
साधना वैद
Wednesday, January 5, 2011
एक मीठी सी मुलाक़ात
दो नितांत अजनबी व्यक्तियों के दिलों के तार गिनी चुनी फोन कॉल्स और चंद दिनों की यदा कदा चैटिंग के बाद स्नेह के सुदृढ़ सूत्र में कैसे बँध जाते हैं और कैसे मात्र एक ही मुलाकात युग युगान्तर के परिचय और अंतरंगता का सा प्रभाव मन पर छोड़ जाती है इसका अनुभव बीते दिनों में मुझे हुआ है जब मेरी मुलाक़ात अनामिका जी से हुई ! कई प्रतिष्ठित रचनाकारों के ब्लॉग्स पर किसी अन्य ब्लॉगर के साथ उनकी भेंट वार्ता के संस्मरण जब मैं पढ़ती थी तो मेरे मन में भी यह हूक उठती थी कि कभी मेरी भी किसी ब्लॉगर से मुलाक़ात हो तो मैं भी उस संस्मरण को अपने ब्लॉग पर लिखूँ ! और गत १९ दिसंबर को मेरी यह इच्छा पूर्ण हो गयी !
इन हर दिल अजीज़ अनामिका जी से आप सब मुझसे भी पहले से बखूबी परिचित हैं ! एक प्रतिष्ठित और नामचीन ब्लॉगर, बेहतरीन रचनाकार और एक बेहद नर्मदिल इंसान ! इनकी बेहद खूबसूरत रचनाएं आपने इनके ब्लॉग ‘अनामिका की सदाएं’ में कई बार पढ़ी होंगी ! इनसे मेरी भेंट दिल्ली में गत १९ दिसंबर को मेरे बेटे सरन के घर पर मालवीय नगर में हुई ! इनकी प्रोफाइल वाली तस्वीर देख कर जो छवि मेरे मन में बनी थी उसके अनुसार लगता था कि ये कुछ रिज़र्व तबीयत की और आत्म केंद्रित सी शख्सियत वाली महिला होंगी ! तस्वीर वाला चेहरा एकदम कसा हुआ बंद सा दिखाई देता है जिसके दरवाज़े खोल अन्दर प्रवेश करना कुछ मुश्किल सा लगता है लेकिन यथार्थ तो इसके बिलकुल ही विपरीत था ! जितनी आत्मीयता और प्यार से हमारी पहली मुलाक़ात हुई ऐसा लगा ही नहीं कि हम इससे पहले कभी नहीं मिले थे !
अक्सर इंटरनेट पर ऑनलाइन होते ही हम लोगों की चैटिंग शुरू हो जाती थी ! फिर एक बार मोबाइल नंबर एक्सचेंज हुए टेलीफोन पर वार्ता आरम्भ हो गयी ! उनकी आवाज़ और बातें इतनी प्यारी लगती थीं कि लगता था किसी अल्हड़ सी बच्ची से बात कर रही हूँ ! तस्वीर वाली अनामिका और फोन वाली अनामिका के इस विरोधाभास को मैं स्वयम मिल कर महसूस करना चाहती थी इसीलिये इस बार जब दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना तो हम लोगों ने फोन पर ही यह तय कर लिया था कि संभव हुआ तो अवश्य ही मिलने का प्रयास करेंगे ! और उनका बड़प्पन देखिये कि अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर, बच्चे को इम्तहान दिलवा कर वे फरीदाबाद से मुझसे मिलने के लिये मालवीय नगर चली आईं और साथ में लाई बेहद स्वादिष्ट गाजर का हलवा जिसकी मिठास अभी तक मेरी जुबान पर धरी हुई है !
उस दिन भी बड़ी गड़बड़ हो गयी ! यूँ तो जर्मनी, इटली, वियना और अमेरिका की मेट्रो में और भारत में कोलकता की मेट्रो में कई बार सैर कर चुकी हूँ लेकिन दिल्ली की मेट्रो में कभी नहीं बैठी थी ! उस दिन रविवार था ! बेटे की भी छुट्टी थी ! बोला चलो मेट्रो से दिल्ली हाट चलते हैं जल्दी ही लौट आयेंगे फिर टाइम नहीं मिल पायेगा ! अनामिका जी के आने का प्रोग्राम था मैं जाना नहीं चाहती थी लेकिन बच्चों ने जिद की तो जाना पड़ा ! बच्चे बोले जब तक वो आयेंगी हम लोग लौट आयेंगे ! लेकिन जब तक हम घर पहुँचे अनामिकाजी आ चुकी थीं ! मुझे शर्मिंदगी हो रही थी लेकिन वो जिस तरह प्यार और आत्मीयता से मिलीं कि पल भर में ही सारी असहजता ना जाने कहाँ तिरोहित हो गयी और जल्दी ही हम लोग पुराने परिचितों की तरह बातों में लीन हो गये ! अनामिका जी के श्रीमानजी व छोटा बेटा भी उनके साथ फरीदाबाद से आये थे जो अपने किसी कार्य से कहीं और गये हुए थे ! उनका फोन आ गया तो अनामिकाजी लौट कर जाने के लिये उद्यत हो गयीं ! मैंने अनुरोध कर उनको भी घर पर ही बुला लिया ! सबसे मिल कर बहुत ही प्रसन्नता हो रही थी ! चाय नाश्ते के बीच कब समय बीत गया पता ही नहीं चला ! मेरी बहू रश्मि और बेटे अयान ने हम लोगों की चंद तस्वीरें भी अपने कैमरे में कैद कीं !
कुल मिला कर यह छोटी सी भेंट अनगिनती खुशियों के पल हमारी झोली में डाल गयी ! चलते वक्त मैंने उनको एक छोटी सी नोटबुक और पेन स्मृति चिन्ह स्वरुप दिया ! यद्यपि इसको बताने की कोई ज़रूरत कतई नहीं थी लेकिन अपनी भूल का पुनरावलोकन तो गलत नहीं ! इस इच्छा के चलते कि इस डायरी में मेरे दिए पेन से पहला शब्द अनामिका जी ही लिखें मैंने उस पर कुछ नहीं लिखा ! अब लगता है मुझे अपनी ओर से उसमें ज़रूर कुछ लिखना चाहिए था ! जो भी हो ! अब जो हो गया सो हो गया ! आशा करती हूँ उन्होंने इस डायरी का उदघाटन अवश्य कर लिया होगा !
नहीं जानती अनामिका जी के क्या अनुभव रहे इस भेंट के बारे में लेकिन यह मुलाक़ात मेरे लिये कितनी मधुर और सुखद रही इसका थोड़ा सा स्वाद तो आपको भी अवश्य ही मिल ही गया होगा !