युग बदले, मान्यताएं बदलीं,
मूल्य बदले, परिभाषायें बदलीं,
नियम बदले, आस्थायें बदलीं।
नहीं बदली तो केवल आतंक,
अन्याय और अत्याचार की हवा,
दमन और शोषण की प्रवृत्ति,
लोगों की ग़रीबी और भुखमरी,
बेज़ारी और बदहाली,
रोटी और मकान की समस्या,
इज़्ज़त और आत्म सम्मान के सवाल !
समय ने करवट ली है !
इतिहास के दृश्य पटल पर तस्वीरें बदली हैं !
छ: दशक पहले वाले दृश्य अब बदल गये हैं !
एक लंगोटी धारी, निहत्थे, निशस्त्र,
आत्मजयी नेता के
नेतृत्व के दिन अब लद गये हैं !
वह महान् कृशकाय नेता
जिसने अहिंसा का सूत्र थाम
तोप बन्दूकधारी विदेशी शासकों के हाथों से
देश को स्वतंत्रता की सौगात दिलवाई थी,
अब नही रहा !
अहिंसा और मानवता की बातें
आज के सन्दर्भों में बेमानी हो गयी हैं !
आज अपने ही देश में
अपने ही चुने हुए शासकों के सीनों पर
अपनी माँगों की पूर्ति के लिये
देश की संतानें बन्दूकों की नोक ताने हुए हैं !
आज बन्दूकें शासक के हाथों में नहीं
याचक के हाथों में हैं !
गौतम और महावीर, गाँधी और नेहरू के देश में
हिंसा और अराजकता का ऐसा प्रचण्ड ताण्डव देख
आत्मा कराहती है !
कल्पनाओं के कुसुम मुरझा गये हैं,
आँसुओं के आवेग से दृष्टि धुँधला गयी है,
कण्ठ में शब्द घुट से गये हैं,
लेखनी कुण्ठित हो गयी है,
पक्षाघात के रोगी की तरह बाहें
पंगु हो उठने से लाचार हो गयी हैं !
वरना आज मैं तुमसे यह तो अवश्य पूछती
मेरे बच्चों,
क्या तुमने कभी सोचा है अपनी संतानों के लिये
विरासत में तुम क्या छोड़े जा रहे हो ?
तुम्हारी उंगलियाँ जो बन्दूकों के ट्रिगर दबाने में
इतनी सिद्धहस्त हो चुकी हैं
कभी उनसे उन बेवा माँ बहनों के आँसू भी पोंछे होते
जिनके सुहाग तुमने उजाड़े हैं !
मशीनगन उठाने के अभ्यस्त इन हाथों से
कभी खेतों में हल भी चलाये होते
तो मानव रक्त से सिंचित ये उजड़े बंजर खेत
फसलों का सोना उगलते
और भूख से बिलखते उन तमाम
मासूम बच्चों के पेट भरते
जिनके पिता, भाई, चाचा
तुम्हारी गोलियों का शिकार हो
उन अभागों को उनके हाल पर छोड़
चिरनिद्रा में सो गये हैं।
क़्या तुम्हें नहीं लगता इन अनाथ, बेसहारा,
निराश्रित बच्चों के
अन्धकारमय भविष्य के उत्तरदायी तुम हो ?
कभी सोचा है तुम्हारी अपनी ही संतानें
तुमसे क्रूरता, नृशंसता और हिंसा की यही इबारत सीख
तुम्हारे ही कारनामों से प्रेरित हो
कभी तुम्हारे ही सीनों की ओर
अपनी बन्दूकों का रुख कर देंगी?
तब तुम उन्हें कोई सफाई नहीं दे पाओगे,
चाह कर भी अपने कलुषित अतीत के
धब्बों को नहीं धो पाओगे,
अपने गुनाहों का कोई प्रायश्चित नहीं कर पाओगे
और अपनी उस घुटन, उस तड़प को
बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगे !
इसीलिये कहती हूँ मेरे दुलारों,
अपनी इस पवित्र पुण्य मातृभूमि को
इस तरह अपवित्र ना करो !
इसकी माटी को चन्दन की तरह
अपने भाल पर लगा इसका मान बढ़ाओ,
इसे यूँ बेगुनाहों के खून से लथपथ कर
इसका अनादर मत करो !
कैसी विडम्बना है
इस उर्वरा पावन धरा पर
जहाँ सोना उगलते खेत और
महकती केसर की क्यारियाँ होनी चाहिये थीं
आज वहाँ हर तरफ
साधना वैद
क्या तुमने कभी सोचा है अपनी संतानों के लिये
ReplyDeleteविरासत में तुम क्या छोड़े जा रहे हो?
आज तो ह्रदय की सारी चिंता उड़ेल दी है....बहुत मथते हैं ये प्रश्न...और जबाब कोई नहीं मिलता...
बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति
Aaj kee sthitee ko ujagar kartee prerak rachana.
ReplyDeleteAABHAR
बहुत प्रभावी और ह्रदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई |
आशा
बदलते समाज का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से कविता में सजोया है |शांती के दूत कबूतरों का उदाहरण अच्छा लगा |कहीं भी शांती दिखाई नहीं देती है |बहुत सुंदर भाव लिए रचना |
ReplyDeleteबधाई
आशा
कविता में जोश और ओज क्रांति का अह्वान करते प्रतीत हो रहे हैं}
ReplyDeletemanoj ji ki baat sahee hai. shubhakamanayen
ReplyDeleteबंदूकें याचक के हाथ में आ कर उनको आतंकवादी बना देती हैं ..जिस देश ने ऐसे महान विचारक दिए जिन्होंने अहिंसा का पाठ पढाया ..आज उसी देश के देशवासी हिंसा की ओर अग्रसर हैं ...इस पृष्ठभूमि पर बहुत ओज पूर्ण रचना ... काश आपके आह्वान का एक अंश भी वहाँ तक पहुंचे ... बहुत अच्छी प्रस्तुति ... कबूतर का बिम्ब अच्छा लगा .. सच ही शांति के प्रतीक आज घायल ही नहीं मृतप्राय: हैं
ReplyDeleteजहाँ सोना उगलते खेत और
ReplyDeleteमहकती केसर की क्यारियाँ होनी चाहिये थीं
आज वहाँ हर तरफ
सफेद कबूतरों की लाशें बिखरी पड़ी हैं !
I m touched !
सार्थक अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteविडम्बना दर्शाती सार्थक कविता ..!!
ReplyDeleteमन मस्तिष्क को झकझोरती सुंदर कविता
ReplyDeleteबदलते समाज का बहुत ही सुंदर चित्रण.....
ReplyDeleteसुंदर भाव......
आभार....!!
बदलते परिवेश का सुन्दर चित्रण कविता के ज़रिये.
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा.