Wednesday, June 29, 2011
ज़रूरी तो नहीं
हर हार हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
सच है तुम्हें सब मानते हैं रौनके महफ़िल ,
हर बात तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
जो रात की तारीकियाँ लिख दीं हमारे नाम ,
हर सुबह पे भारी हों ज़रूरी तो नहीं !
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
हर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
तुम ख़्वाब में यूँ तो बसे ही रहते हो ,
नींदें भी तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
जज़्बात ओ खयालात पर तो हावी हो ,
गज़लें भी तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
दिल की ज़मीं पे गूँजते अल्फाजों की ,
तहरीर तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
हर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
साधना वैद
Monday, June 27, 2011
अंगारे
"वियोगी होगा पहला कवि
आह से निकला होगा गान ,
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान !"
आज के सन्दर्भों में शायद अपनी प्रासंगिकता खो रही हैं ! इसीसे प्रेरित हो इस रचना ने आकार लिया है !
अंगारे
बड़े जतन से अपनी मुट्ठी में
बंद कर लिया है !
जलन से बेचैन अपने चहरे पर
बिखर आये पीड़ा के भावों को
सायास मुस्कराहट में
बदल लिया है !
अकथनीय दर्द से व्याकुल
कंठ से फूटती करुण चीत्कार को मैंने
भैरवी के कोमल स्वरों में ढाल
सुरीली रागिनी में
रूपांतरित कर लिया है !
इस चाहत के साथ कि
किसीकी भी नज़र
इस बाह्य आवरण को भेद कर
इन अंगारों पर ना पड़े,
मैंने अपनी सुकुमार भावनाओं की
राख तले उन्हें बड़े जतन से
ढँक दिया है !
ये अंगारे सदियों से
ना सिर्फ मेरी हथेलियों को वरन
मेरे उर, अंतर, आत्मा, चेतना
सभी को झुलसा रहे हैं और
सदियों से इस पीड़ा को मैं
दाँतों तले अपने अधरों को दबाये
चुपचाप झेल रही हूँ ,
क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना
अब किसीको अच्छा नहीं लगता !
साधना वैद
चित्र गूगल से साभार _
Sunday, June 26, 2011
इन्हें भी सम्मान से जीने दें !
इसे सामाजिक न्याय व्यवस्था की विडम्बना कहा जाये या विद्रूप कि जिन वृद्धजनों के समाज और परिवार में सम्मान और स्थान के प्रति तमाम समाजसेवी संस्थायें और मानवाधिकार आयोग बडे सजग और सचेत रहने का दावा करते हैं और समय – समय उनके हित के प्रति पर अपनी चिंता और असंतोष का उद्घाटन भी करते रहते हैं उन्हींको पराश्रय और असम्मान की स्थितियों में जब ढकेला जाता है तब सब मौन साधे मूक दर्शक की भूमिका निभाते दिखाई देते हैं।
ऐसी धारणा है कि साठ वर्ष की अवस्था आने के बाद व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और वह शारीरिक श्रम के लिये अक्षम हो जाता है और यदि वह प्रबन्धन के कार्य से जुड़ा है तो वह सही निर्णय ले पाने में असमर्थ हो जाता है इसीलिये उसे सेवा निवृत कर दिये जाने का प्रावधान है । अगर यह सच है तो संसद में बैठे वयोवृद्ध नेताओं की आयु तालिका पर कभी किसीने विचार क्यों नहीं किया ? उन पर कोई आयु सीमा क्यों लागू नहीं होती ? क़्या वे बढ़ती उम्र के साथ शरीर और मस्तिष्क पर होने वाले दुष्प्रभावों से परे हैं ? क़्या उनकी सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती उम्र के साथ प्रभावित नहीं होती ? फिर किस विशेषाधिकार के तहत वे इतने विशाल देश के करोड़ों लोगों के भविष्य का न्यायोचित् निर्धारण अपनी जर्जर मानसिकता के साथ करने के लिये सक्षम माने जाते हैं ? य़दि उन्हें बढ़ती आयु के दुष्प्रभावों से कोई हानि नहीं होती तो अन्य लोगों के साथ यह भेदभाव क्यों किया जाता है ? अपवादों को छोड़ दिया जाये तो साठ वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अधिक अनुभवी, परिपक्व और गम्भीर हो जाता है और उसके निर्णय अधिक न्यायपूर्ण, तर्कसंगत और समझदारी से भरे होते हैं । ऐसी स्थिति में उसे उसके सभी अधिकारों और सम्मान से वंचित करके सेवा निवृत कर दिया जाता है जो सर्वथा अनुचित है ।
घर में उसकी स्थिति और भी शोचनीय हो जाती है । अचानक सभी अधिकारों से वंचित, शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से क्लांत वह चिड़चिड़ा हो उठता है । घर के किसी भी मामले में उसकी टीकाटिप्पणी को परिवार के अन्य सदस्य सहन नहीं कर पाते और वह एक अंनचाहे व्यक्ति की तरह घर के किसी एक कोने में उपेक्षा, अवहेलना, असम्मान और अपमान का जीवन जीने के लिये विवश हो जाता है । उसकी इस दयनीय दशा के लिये हमारी यह दोषपूर्ण व्यवस्था ही जिम्मेदार है । साठवाँ जन्मदिन मनाने के तुरंत बाद एक ही दिन में कैसे किसीकी क्षमताओं को शून्य करके आँका जा सकता है ?
वृद्ध जन भी सम्मान और स्वाभिमान के साथ पूर्णत: आत्मनिर्भर हों और उन्हें किसी तरह की बैसाखियों का सहारा ना लेना पड़े इसके लिये आवश्यक है कि वे आर्थिक रूप से भी सक्षम हों । इसके लिये ऐसे रोज़गार दफ्तर खोलने की आवश्यक्ता है जहाँ साठ वर्ष से ऊपर की अवस्था के लोगों के लिये रोज़गार की सुविधायें उपलब्ध करायी जा सकें । प्राइवेट कम्पनियों और फैक्ट्रियों में बुज़ुर्ग आवेदकों के लिये विशिष्ट नियुक्तियों की व्यवस्था का प्रावधान सुनिश्चित किया जाये । इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि उनको उनकी क्षमताओं के अनुरूप ही काम सौपे जायें । आर्थिक रूप से सक्षम होने पर परिवार में भी बुज़ुर्गों को यथोचित सम्मान मिलेगा और उनकी समजिक स्थिति भी सुदृढ़ होगी ।
यह आज के समय की माँग है कि समाज में व्याप्त इन विसंगतियों की ओर प्रबुद्ध लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाये और वृद्ध जनों के हित के लिये ठोस और कारगर कदम उठाये जायें । तभी एक स्वस्थ समाज की स्थापना का स्वप्न साकार हो सकेगा जहाँ कोई किसी का मोहताज नहीं होगा और सभी स्वाभिमान के साथ एक उपयोगी एवं सार्थक जीवन व्यतीत कर सकेंगे !
साधना वैद
Friday, June 17, 2011
पानी पर लिखी तहरीरें
मेरी चाहतों का वजूद भी
कितना क्षणिक,
कितना अस्थाई है ,
ठीक वैसे ही जैसे
सागर की उत्ताल तरंगों का
एक पल के लिये
क्षणिक आवेश में
बहुत ऊपर उठ परस्पर
प्रगाढ़ आलिंगन में बँध जाना
और अगले ही पल
तीव्र गति के साथ तट से टकरा
बूँद-बूँद बिखर
सागर की अनंत जलराशि में
विलीन हो जाना !
ठीक वैसे ही जैसे
वृक्ष की ऊँची शाखों पर
तेज़ हवा से हिलते पत्तों का
पल भर के लिये
बेहद उल्लसित हो
बहुत आल्हादित हो
परस्पर अंतहीन वार्तालाप में
संलग्न होना और फिर
अगले पल ही हवा के
तीव्र झोंके के साथ द्रुत गति से
उड़ कर नीचे आते हुए
दूर-दूर छिटक कर
धरा पर बिखर जाना !
ठीक वैसे ही जैसे
पानी से भरे किसी नन्हे से
बादल के इस भ्रम का,
कि उसने तो सातों सागरों की
जलनिधि को अपने अंतर में
समेटा हुआ है,
वाष्प बन तिरोहित हो जाना
और उसके उर अंतर को
निचोड़ कर रीता कर जाना
जब उसके कोष की हर बूँद
अषाढ़ की पहली गर्जन के साथ
क्षण मात्र में तपती धरा की
धधकती देह पर गिरती है
और गहरे सागर की
उफनती जल राशि में समा जाती है
पुन: भाप बन जाने के लिये !
मन को अलौकिक आनंद से
विभोर कर देने वाली
पानी पर लिखी ये लकीरें भी तो
ऐसी ही क्षणिक हैं !
साधना वैद
चित्र गूगल से साभार
Monday, June 13, 2011
मौन की दीवारें
मौन की दीवारों से
टकरा कर लौटती
अपनी ही आवाज़ों की
बेचैन प्रतिध्वनियों को
मैं खुद ही सुनती हूँ ,
और अपनी राहों में बिछे
अनगिनती काँटों को
अपनी पलकों से
खुद ही चुनती हूँ !
अपनी चंद गिनी चुनी
अभिलाषाओं, इच्छाओं,
भावनाओं, अभिव्यक्तियों
पर कभी ना खुलने वाले
तुम्हारे दमन के
आतातायी ताले की
आक्रामकता को
मैं चुपचाप सहती हूँ ,
और अपनी
अकथनीय वेदना की
दुख भरी कहानी
निर्वासन के एकांत पलों में
खुद से ही कहती हूँ !
अपने मन के निर्जन,
नि:संग कारागार में
दीवारों पर सर पटकती
वर्षों से निरुद्ध अपनी
व्यथित अंतरात्मा को
अपनी ही बाहों का
संबल दे अपने अंक में
असीम दुलार से
स्वयं ही समेट लेती हूँ ,
और घायल होती
अपनी चेतना को
अपने जर्जर शीतल
आँचल की छाँव में
मृदुल स्पर्श से सहला
खुद ही लपेट लेती हूँ !
साधना वैद !
चित्र गूगल से साभार -
Thursday, June 9, 2011
चंद अनुत्तरित प्रश्न
इसमें कोई संदेह नहीं है कि टीवी चैनलों व समाचार पत्रों के माध्यम से आज के युग में सूचना का झरना सतत प्रवाहित रहता है ! किन्तु इसमें ऐसी कितनी सूचनाएं होती हैं जो जनता के मन मस्तिष्क में छाये कुहासे को दूर कर पाती हैं या उसे और भ्रम की स्थिति में पहुँचा देती हैं यह भी एक विचारणीय समस्या है ! मीडिया से मिलने वाली खबरों तथा कार्यक्रमों के द्वारा भ्रष्टाचार व घोटालों पर होने वाली गरमागरम बहसों से हमको बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है ! पर अक्सर ये बहसें समयाभाव के कारण अथवा बहस के संचालकों की जाने अनजाने में पूरी तरह से तह में ना जा पाने की वजह से हमारे दिमाग में अनेकों प्रश्न अनुत्तरित छोड़ जाती हैं ! पिछले दिनों सुर्ख़ियों में रहे काले धन व भ्रष्टाचार के समाचारों के बीच नीचे लिखे प्रश्न इसका उदाहरण हैं !
क्या कोई दवा बनाने वाली कम्पनी बिना सरकारी अनुमति के चलती रह सकती है ? क्या उसकी दवाओं की गुणवत्ता पर जाँच उसी स्थिति में होनी चाहिये जब उसका संचालक सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने की बात करने लगे ? आखिर स्वास्थ्य मंत्रालय के क्या दायित्व हैं ? जाँच तब ही क्यों नहीं की गयी जब ये बन रही थीं और बिक रही थीं और उस कम्पनी से सम्बंधित संस्थाओं को मिलने वाले धन को आयकर विभाग द्वारा छूट कैसे मिल गयी ? कहीं यह आरोप बेबुनियाद तो नहीं है ?
भारत में पासपोर्ट विदेश मंत्रालय द्वारा जाँच करवाने के उपरान्त दिये जाते हैं ! इस जाँच में अक्सर हेरा फेरी के मामले भी सामने आते रहते हैं परन्तु किसी ऐसी कम्पनी, जिसका व्यापार करोड़ों का हो और उसके संचालक की राष्ट्रीयता के बारे में केन्द्र सरकार को संदेह हो, क्या उसकी छानबीन भी तभी होनी चाहिये जब कम्पनी के संचालक के साथ केन्द्र सरकार की देश हित के कार्यों में चल रही मीटिंग चार दिन के बाद आख़िरी समय में नाराज़गी और हाथापाई में तब्दील हो गयी हो ? विदेश मंत्रालय और आंतरिक सुरक्षा विभाग तब क्यों सो रहा था जब कि उसका अपना दावा है कि इसके बारे में मंत्रालय के पास पहले से ही पर्याप्त सूचनाएं थीं ?
क्या आर. एस. एस. भारत में एक प्रतिबंधित ऑर्गेनाइजेशन है ? क्योंकि सरकार की ओर से अक्सर कहा जाता है कि यह व्यक्ति या संस्था आर एस एस द्वारा संचालित है इसलिए खतरनाक है ! यदि ऐसा है तो इसके बारे में पूरा स्पष्टीकरण सरकार जनता के सामने क्यों नहीं लाती ?
क्या एन डी ए या यू पी ए के भ्रष्टाचार के मामलों को इस बिना पर माफ किया जा सकता है कि उन्होंने दूसरे दल से कम भ्रष्टाचार किया है या दूसरे के कार्यकाल में उनसे भी अधिक भ्रष्टाचार के मामले सामने आये थे ?
क्या कोई दल या संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जो कुछ मुद्दों पर कॉंग्रेस का समर्थन करे व कुछ मुद्दों पर भाजपा या अन्य किसी दल का समर्थन करे ? क्या यह बात अनैतिक मानी जानी चाहिये ? साथ ही यदि कोई ऐसी राजनैतिक पार्टी है जिसके सदस्य अलग अलग विषयों पर विभिन्न राय रखते हों तो क्या उनका मखौल उड़ाया जाना चाहिये ? क्या सभी सदस्यों का हर विषय पर कोरस में एक स्वर में बोलना ही स्वस्थ परम्परा माना जाना चाहिये ? क्या स्वस्थ मतभेदों के साथ काम करना एक स्वस्थ प्रजातांत्रिक प्रक्रिया नहीं है ?
कभी कभी मन में यह ख़याल आता है कि क्या कोई दल किसी दूसरे दल के किसी भी अच्छे काम से कभी प्रभावित नहीं हो सकता या कभी उस कार्य की कभी भूले से भी प्रशंसा नहीं कर सकता ? क्या ऐसा करना अपनी पार्टी के साथ बेईमानी माना जाना चाहिये ? क्या एक पार्टी को दूसरी पार्टी के किये हर काम में सिर्फ और सिर्फ कमियाँ ही ढूँढनी चाहिये ? आखिर देश हित में क्या है ?
क्या संसद व विधान सभाओं में सरकार बनाने वाली पार्टी के सदस्य विपक्ष के सदस्यों से यह कह सकते हैं कि क्योंकि तुम्हारी पार्टी हार गयी है और सरकार नहीं बना पायी है इसलिए तुम्हारी बात नहीं मानी जायेगी या तुम्हें कुछ कहने का नैतिक अधिकार नहीं है ? आखिर संसद व विधान सभाओं की सामूहिक जिम्मेदारियाँ क्या हैं ?
ये चंद सवाल हैं जो आम जनता को उद्वेलित तो करते ही हैं इनका उत्तर जानने के लिये भी जनता व्यग्र रहती है ! टी वी चैनलों की अधकचरी बहसें प्राय: बिना किसी सार्थक निष्कर्ष के खत्म हो जाती हैं ! इन प्रश्नों के समुचित उत्तर जानने के लिये किसकी मुखापेक्षा की जाये यह भी एक अनुत्तरित प्रश्न ही है ! लेकिन इसका समाधान आज के परिप्रेक्ष्य में होना नितांत आवश्यक है !
साधना वैद