Friday, September 30, 2011

खोटे सिक्के


बापू तुमने तब जिन पर था विश्वास किया

वे तो सब के सब कागज़ के पुरजे निकले ,

था जिनकी बातों पर तुमको अभिमान बड़ा ,

वे तो सब के सब लालच के पुतले निकले !


क्यों आज लुटेरों का भारत में डेरा है ,

क्यों लोगों के मन को शंका ने घेरा है ,

क्यों नहीं किसीको चिंता रूठी जनता की ,

क्यों नहीं किसीको परवा आहत ममता की ,

बापू तुमने था जिनको यह भारत सौंपा ,

वे तो सब के सब बस खोटे सिक्के निकले !


क्यों आतंकी दहशत में जनता सोती है ,

क्यों हर पल मर मर कर यह जनता रोती है ,

क्यों आये दिन वहशत का साया रहता है ,

क्यों आये दिन मातम सा छाया रहता है ,

बापू तुम केवल लाठी लेकर चलते थे ,

लेकिन ये तो संगीनों के आदी निकले !


बापू हम संसद की गरिमा खो बैठे हैं ,

जाने कितने मंत्री जेलों में बैठे हैं ,

जाने कितनों के धन का काला रंग हुआ ,

जाने कितनों का खून पसीना एक हुआ ,

बापू जनता पर तुमने सब कुछ वारा था ,

पर ये सब जनता को दोहने वाले निकले !


बापू क्यों अब तक हमने तुमको बिसराया ,

क्यों नहीं तुम्हारी शिक्षाओं को दोहराया ,

अब जब भारत पर खुदगर्जों का साया है ,

इनको सीधा करने का अवसर आया है ,

बापू तुमने हमको जो राह दिखाई थी ,

उस पर चलने को कोटी-कोटि कदम निकले !


साधना वैद


चित्र गूगल से साभार

Monday, September 26, 2011

तुम आते तो......


तुम आते तो मन को ज्यों धीरज मिल जाता ,

रिसते ज़ख्मों पर जैसे मरहम लग जाता ,

सुधियों के सारे पंछी नभ में उड़ जाते ,

भावों के तटबंध टूट जैसे खुल जाते !

मन उपवन की मुरझाई कलिका खिल जाती ,

शब्दों को कविता की नव नौका मिल जाती ,

ह्रदय वाद्य पर जलतरंग जैसे बज जाती !

अंतर की सब पीड़ा गीतों में बह जाती ,

जीवन को जीने का ज्यों सम्बल मिल जाता ,

नयनों को सपने जीने का सुख मिल जाता ,

तुम आते तो धड़कन को साँसें मिल जातीं ,

भटके मन को मंजिल की राहें मिल जातीं !

ना आ पाये तब भी कोई बात नहीं है ,

मन मर्जी है यह कुछ शै और मात नहीं है ,

मैंने भी मन को बहलाना सीख लिया है ,

जो कुछ तुमने दिया उसे स्वीकार किया है !

सब कुछ कितना खाली-खाली सा लगता है ,

हर सुख हर सपना जैसे जाली लगता है ,

लेकिन मैंने छल को जीना सीख लिया है ,

विष पीकर अमृत बरसाना सीख लिया है !

साधना वैद

Friday, September 23, 2011

शायद


तुमने आज चाँद देखा था ?

तुम्हें भी उदास लगा था ना

मेरी तरह ?

पता नहीं कैसे

मेरे मन की सारी

अनकही बातें भी

वह सुन लेता है और फिर

मेरी ही तरह ज्योत्सना की

धवल चादर लपेट

खामोश हो आसमान की बाहों में

लुढ़क जाता है !

तुमने चाँदनी की नमी को

अपनी पलकों पर

महसूस किया था ?

उस शबनमी छुअन में

जो आर्द्रता थी ना

वह मेरे आँसुओं की थी

जो ना जाने कब उसने

मेरी पलकों से सोख ली

और तुम्हारे ऊपर बरसा दी !

तुमने सितारों की रोशनी को

देखा था जलते बुझते ?

वो भी तो मेरी ही

ख्वाहिशें थीं

कभी सहमतीं

कभी लरजतीं,

कभी बनती

कभी बिगड़तीं !

मुझे चाँद को देखना

अच्छा लगता है

शायद... वहीं समय के

किसी एक पल पर

ठिठक कर

हम दोनों की नज़रें

एक दूसरे से मिल जायें

और वह सब कुछ

कह जायें जो

आज तक अनकहा ही

मन में घुट कर

रह गया !

शायद.....



साधना वैद

Saturday, September 17, 2011

जश्न


पलक के निमिष मात्र से

क्षितिज में उठने वाले

प्रलयंकारी तूफान को तो

शांत होना ही था ,

तुम्हें बीहड़ जंगल में

अपनी राह जो तलाशनी थी !

गर्जन तर्जन के साथ

होने वाली घनघोर वृष्टि को भी

तर्जनी के एक इशारे पर

थमना ही था ,

तुम्हें चलने के लिये पैरों के नीचे

सूखी ज़मीन की ज़रूरत जो थी !

सागर में उठने वाली सुनामी की

उत्ताल तरंगों को तो

अनुशासित होना ही था ,

तुम्हारी नौका को तट तक

जो पहुँचना था !

ऊँचे गगन में

अपने शीर्ष को गर्व से ताने

सितारों की हीरक माला

गले में डाले उस पर्वत शिखर को भी

सविनय अपना सिर झुकाना ही था

कीर्ति सुन्दरी को उसका यह हार

तुम्हारे गले में जो पहनाना था !

राह की बाधाओं को तो

हर हाल में मिटना ही था

तुम्हें मंजिल तक जो पहुँचना था !

सांध्य बाला को भी अपने वाद्य के

सारे तारों को झंकृत करना ही था ,

उसे तुम्हारी स्तुति में

सबसे सुन्दर, सबसे मधुर,

सबसे सरस और सबसे अनूठे राग में

एक अनुपम गीत जो सुनाना है

तुम्हारी जीत के उपलक्ष्य में !

जीत का यह जश्न तुम्हें

मुबारक हो !



साधना वैद