Tuesday, March 27, 2012
आम उवाच
Wednesday, March 21, 2012
सूर्यास्त
मैं धरा हूँ
रात्रि के गहन तिमिर के बाद
भोर की बेला में
जब तुम्हारे उदित होने का समय आता है
मैं बहुत आल्हादित उल्लसित हो
तुम्हारे शुभागमन के लिए
पलक पाँवड़े बिछा
अपने रोम रोम में निबद्ध अंकुरों को
कुसुमित पल्लवित कर
तुम्हारा स्वागत करती हूँ !
तुम्हारे बाल रूप को अपनी
धानी चूनर में लपेट
तुम्हारे उजले ओजस्वी मुख को
अपनी हथेलियों में समेट
बार बार चूमती हूँ और तुम्हें
फलने फूलने का आशीर्वाद देती हूँ !
लेकिन तुम मेरे प्यार और आशीर्वाद
की अवहेलना कर
अपने शौर्य और शक्ति के मद में चूर
गर्वोन्नत हो
मुझे ही जला कर भस्म करने में
कोई कसर नहीं छोड़ते !
दिन चढ़ने के साथ-साथ
तुम्हारा यह रूप
और प्रखर, और प्रचंड,
रौद्र और विप्लवकारी होता जाता है !
लेकिन एक समय के बाद
जैसे हर मदांध आतातायी का
अवसान होता है !
संध्या के आगमन की दस्तक के साथ
तुम्हारा भी यह
रौरवकारी आक्रामक रूप
अवसान की ओर उन्मुख होने लगता है
और तुम थके हारे निस्तेज
विवर्ण मुख
पुन: मेरे आँचल में अपना आश्रय
ढूँढने लगते हो !
मैं धरा हूँ !
संसार के न जाने कितने कल्मष को
जन्म जन्मांतर से निर्विकार हो
मैं अपने अंतर में
समेटती आ रही हूँ !
आज तुम्हारा भी क्षोभ
और पश्चाताप से आरक्त मुख देख
मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ !
आ जाओ मेरी गोद में
मैंने तुम्हें क्षमा किया
क्योंकि मैं धरा हूँ !
साधना वैद
Thursday, March 15, 2012
कसक
कैसा लगता है
जब गहन भावना से परिपूर्ण
सुदृढ़ नींव वाले प्रेम के अंतर महल को
सागर का एक छोटा सा ज्वार का रेला
पल भर में बहा ले जाता है ।
क़ैसा लगता है
जब अनन्य श्रद्धा और भक्ति से
किसी मूरत के चरणों में झुका शीश
विनयपूर्ण वन्दना के बाद जब ऊपर उठता है
तो सामने न वे चरण होते हैं और ना ही वह मूरत ।
क़ैसा लगता है
जब शीतल छाया के लिये रोपा हुआ पौधा
खजूर की तरह ऊँचा निकल जाता है
जिससे छाया तो नहीं ही मिलती उसका खुरदरा स्पर्श
तन मन को छील कर घायल और कर जाता है ।
कैसा लगता है
जब पत्तों पर संचित ओस की बूंदों की
अनमोल निधि हवा के क्षणिक झोंके से
पल भर में नीचे गिर धरा में विलीन हो जाती हैं
और सारे पत्तों को एकदम से रीता कर जाती हैं ।
साधना वैद
Friday, March 9, 2012
आक्रोश
क्यों भला आया है मुझको पूजने
है नहीं स्वीकार यह पूजा तेरी ,
मैं तो खुद चल कर तेरे घर आई थी
क्यों नहीं की अर्चना तूने मेरी ?
आगमन की सूचना पर क्यों तेरे
भाल पर थे अनगिनत सिलवट पड़े ,
रोकने को रास्ता मेरा भला
किसलिये तब राह में थे सब खड़े ?
प्राण मेरे छीनने के वास्ते
किस तरह तूने किये सौ-सौ जतन ,
अब भला किस कामना की आस में
कर रहा सौ बार झुक-झुक कर नमन !
देख तुझको यों अँधेरों में घिरा
रोशनी बन तम मिटाने आई थी ,
तू नहीं इस योग्य वर पाये मेरा ,
मैं तेरा जीवन बनाने आई थी !
मैं तेरे उपवन में हर्षोल्लास का
एक नव पौधा लगाने आई थी ,
नोंच कर फेंका उसे तूने अधम
मैं तेरा दुःख दूर करने आई थी !
मार डाला एक जीवित देवी को
पूजते हो पत्थरों की मूर्ती ,
किसलिये यह ढोंग पूजा पाठ का
चाहते निज स्वार्थों की पूर्ती !
है नहीं जिनके हृदय माया दया
क्षमा उनको मैं कभी करती नहीं ,
और अपने हर अमानुष कृत्य का
दण्ड भी मिल जायेगा उनको यहीं !
साधना वैद