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Tuesday, March 27, 2012

आम उवाच



मँहगाई की मौत हमें तुम मत मरने दो ,
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो !

नहीं चाहिये हमको ऐसी शिक्षा दीक्षा ,
जहाँ कागज़ी स्कूलों में बच्चे पढ़ते ,
जहाँ न शिक्षक शाला के पथ पर पग धरते ,
जहाँ न बच्चे कक्षा की सीढ़ी पर चढ़ते !

हमें हमारी मेहनत का पैसा जीने दो
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो !

नहीं चाहिये हमें मेट्रो, ए. सी. गाड़ी
हमें लुभाती है रिक्शे की आम सवारी ,
इनके जीने का साधन मत छीनो इनसे
इन पर भी हैं जीवन की विपदाएं भारी !

चंद निवालों का हक तो इनको मिलने दो ,
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो !

कब तक बहलाओगे झूठे वादों से तुम
कितना ताण्डव कथित ‘विकास’ मचायेगा ,
जो कुछ मुख से छीन निवाला पाया है
सब विदेश के खातों में रच जायेगा !

नए करों का बोझा मत हम पर लदने दो
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो !

जिस सुविधा का लाभ हमें मिलना ही ना हो
उसका बोझा हम पर क्यों लादा जाता है ,
जिस विकास का मीठा फल पाता है कोई
उसके लिए गरीब को क्यों जोता जाता है !

चन्द्र कला सी रूखी रोटी मत घटने दो ,
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो !

हमको नित चलना है संघर्षों के पथ पे  
जाना है मंज़िल तक निज पैरों के रथ पे 
जलना है नित सूरज की भीषण अगनी में 
करना है संग्राम नियति से हर इक हक़ पे ! 

हमको अपने सुख दुःख का फल खुद चखने दो
अपना वेतन हमें नियंत्रित खुद करने दो ! 



साधना वैद

Wednesday, March 21, 2012

सूर्यास्त


मैं धरा हूँ

रात्रि के गहन तिमिर के बाद

भोर की बेला में

जब तुम्हारे उदित होने का समय आता है

मैं बहुत आल्हादित उल्लसित हो

तुम्हारे शुभागमन के लिए

पलक पाँवड़े बिछा

अपने रोम रोम में निबद्ध अंकुरों को

कुसुमित पल्लवित कर

तुम्हारा स्वागत करती हूँ !

तुम्हारे बाल रूप को अपनी

धानी चूनर में लपेट

तुम्हारे उजले ओजस्वी मुख को

अपनी हथेलियों में समेट

बार बार चूमती हूँ और तुम्हें

फलने फूलने का आशीर्वाद देती हूँ !

लेकिन तुम मेरे प्यार और आशीर्वाद

की अवहेलना कर

अपने शौर्य और शक्ति के मद में चूर

गर्वोन्नत हो

मुझे ही जला कर भस्म करने में

कोई कसर नहीं छोड़ते !

दिन चढ़ने के साथ-साथ

तुम्हारा यह रूप

और प्रखर, और प्रचंड,

रौद्र और विप्लवकारी होता जाता है !

लेकिन एक समय के बाद

जैसे हर मदांध आतातायी का

अवसान होता है !

संध्या के आगमन की दस्तक के साथ

तुम्हारा भी यह

रौरवकारी आक्रामक रूप

अवसान की ओर उन्मुख होने लगता है

और तुम थके हारे निस्तेज

विवर्ण मुख

पुन: मेरे आँचल में अपना आश्रय

ढूँढने लगते हो !

मैं धरा हूँ !

संसार के न जाने कितने कल्मष को

जन्म जन्मांतर से निर्विकार हो

मैं अपने अंतर में

समेटती आ रही हूँ !

आज तुम्हारा भी क्षोभ

और पश्चाताप से आरक्त मुख देख

मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ !

आ जाओ मेरी गोद में

मैंने तुम्हें क्षमा किया

क्योंकि मैं धरा हूँ !

साधना वैद



Thursday, March 15, 2012

कसक













कैसा लगता है
जब गहन भावना से परिपूर्ण
सुदृढ़ नींव वाले प्रेम के अंतर महल को
सागर का एक छोटा सा ज्वार का रेला
पल भर में बहा ले जाता है ।

क़ैसा लगता है
जब अनन्य श्रद्धा और भक्ति से
किसी मूरत के चरणों में झुका शीश
विनयपूर्ण वन्दना के बाद जब ऊपर उठता है
तो सामने न वे चरण होते हैं और ना ही वह मूरत ।

क़ैसा लगता है
जब शीतल छाया के लिये रोपा हुआ पौधा
खजूर की तरह ऊँचा निकल जाता है
जिससे छाया तो नहीं ही मिलती उसका खुरदरा स्पर्श
तन मन को छील कर घायल और कर जाता है ।

कैसा लगता है
जब पत्तों पर संचित ओस की बूंदों की
अनमोल निधि हवा के क्षणिक झोंके से
पल भर में नीचे गिर धरा में विलीन हो जाती हैं
और सारे पत्तों को एकदम से रीता कर जाती हैं ।

साधना वैद

Friday, March 9, 2012

आक्रोश










क्यों भला आया है मुझको पूजने

है नहीं स्वीकार यह पूजा तेरी ,

मैं तो खुद चल कर तेरे घर आई थी

क्यों नहीं की अर्चना तूने मेरी ?


आगमन की सूचना पर क्यों तेरे

भाल पर थे अनगिनत सिलवट पड़े ,

रोकने को रास्ता मेरा भला

किसलिये तब राह में थे सब खड़े ?


प्राण मेरे छीनने के वास्ते

किस तरह तूने किये सौ-सौ जतन ,

अब भला किस कामना की आस में

कर रहा सौ बार झुक-झुक कर नमन !


देख तुझको यों अँधेरों में घिरा

रोशनी बन तम मिटाने आई थी ,

तू नहीं इस योग्य वर पाये मेरा ,

मैं तेरा जीवन बनाने आई थी !


मैं तेरे उपवन में हर्षोल्लास का

एक नव पौधा लगाने आई थी ,

नोंच कर फेंका उसे तूने अधम

मैं तेरा दुःख दूर करने आई थी !


मार डाला एक जीवित देवी को

पूजते हो पत्थरों की मूर्ती ,

किसलिये यह ढोंग पूजा पाठ का

चाहते निज स्वार्थों की पूर्ती !


है नहीं जिनके हृदय माया दया

क्षमा उनको मैं कभी करती नहीं ,

और अपने हर अमानुष कृत्य का

दण्ड भी मिल जायेगा उनको यहीं !



साधना वैद

Sunday, March 4, 2012

एक बाँझ सी प्रतीक्षा



सदियों से प्रतीक्षा में रत
द्वार पर टिकी हुई
उसकी नज़रें
जम सी गयी हैं !
नहीं जानती उन्हें
किसका इंतज़ार है
और क्यों है
बस एक बेचैनी है
जो बर्दाश्त के बाहर है !
एक अकथनीय पीड़ा है
जो किसीके साथ
बाँटी नहीं जा सकती !
रोम रोम में बसी
एक बाँझ विवशता है
जिसका ना कोई निदान है
ना ही कोई समाधान !
बस एक वह है
एक अंतहीन इंतज़ार है
एक अलंघ्य दूरी है
जिसके इस पार वह है
लेकिन उस पार
कोई है या नहीं
वह तो
यह भी नहीं जानती !
वर्षों से इसी तरह
व्यर्थ, निष्फल, निष्प्रयोजन
प्रतीक्षा करते करते
वह स्वयं एक प्रतीक्षा
बन गयी है
एक ऐसी प्रतीक्षा
जिसका कोई प्रतिफल नहीं है !

साधना वैद !