क्या देखा है उसे ?
नहीं, कभी नहीं देखा ! लेकिन कभी ऐसा भी नहीं हुआ
कि एक पल के लिए भी उसके अंकुश, उसके नियंत्रण या उसके अनुशासन से स्वयं को मुक्त
पाया हो ! विवाह से पहले भी और विवाह के बाद भी कभी स्वयं को उन्मुक्त नहीं पाया !
उसने ना कभी डराया, न धमकाया, न ही कभी दण्डित किया लेकिन न जाने कौन से अदृश्य
हाथों से मन की लगाम को वह थामे रहा ! विवाह से पूर्व कॉलेज में बड़े प्रलोभन मिले
सखियों सहेलियों के,
“चलो न पिक्चर देख कर आते हैं”,
“चलो ना फलाँ सहेली के घर चलते हैं !”
बड़ा मन होता था जाने का ! लेकिन न जाने कौन
अदृश्य सत्ता लगाम खींच कर वहीं बरज देती !
विवाह के बाद तो घर, परिवार, शहर, गली, मोहल्ला
सब बदल जाते हैं ! शादी के बाद कुछ छूट भी मिल जाती है ! हमारी गिनती भी बड़ों में
होने लगी ! सोचा अब तो नियंत्रण की यह तलवार सर से हट ही जायेगी ! ससुर जी बीमार
थे मायके में वर्षों के बाद घर में लक्ष्मी के रूप में भतीजी का पदार्पण हुआ था !
बहुत बड़ा उत्सव का आयोजन था ! मैंने भी अपना सूटकेस उतारा पैकिंग के लिए ! तुरंत
उसी अदृश्य सत्ता ने लगाम खींची !
“कहाँ चल दीं ?’
“क्यों ? न जाऊँ क्या ? वर्षों के बाद भाभी की
गोद भरी है ! न जाऊँगी तो सब दुखी न होंगे ?”
“ठीक है, जाओ ! तुम्हारे ससुर जी को दवा कौन देगा
? उनकी बीमारी में उनके परहेजी खाने पीने का ख़याल कौन रखेगा ?”
हाथों की पकड़ ढीली हो गयी ! सूटकेस वापिस अलमारी
पर रख दिया गया और मैं रसोई में ससुर जी का दलिया बनाने चल दी !
बहुत चाहती हूँ इस अदृश्य नियामक को किसी दिन खींच
कर सामने ले आऊँ ! लेकिन यह आवाज़ मेरे अंतर से निकलती है ! बचपन से मिले संस्कारों
की, माता पिता से मिली हुई शिक्षा की जो कभी कहीं दिखाई नहीं देती लेकिन एक कदम भी
डगमगाने पर तुरंत हाथ पकड़ कर थाम लेती है और ज़िद करने पर इतनी ज़ोर से झकझोर देती
है कि हफ़्तों पश्चाताप की अग्नि में हम खुद ही सुलगते रहते हैं !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद