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Wednesday, November 23, 2011

कुछ कह न पायेंगे



किस्सा कहा जो दर्द का वो सह न पायेंगे ,
हर इक बयाँ पे रोये बिना रह न पायेंगे !
हर रंग है जफा का मेरी दास्ताँ में दोस्त ,
इलज़ाम खुद पे एक भी वो सह न पायेंगे !
सदियों से जिन किलों में मेरी रूह कैद है ,
छोटे से एक छेद से वो ढह न पायेंगे !
फौलाद में तब्दील जिन्हें वक्त कर चुका ,
आँसू हमारी आँख से वो बह न पायेंगे !
बर्दाश्त हैं ज़ुल्म-ओ-सितम दुनिया के सब हमें ,
इक अश्क उनकी आँख में हम सह न पायेंगे !
हर लफ्ज़ है रूदाद मेरे दर्द की ए दोस्त ,
ना पूछिये कुछ और हम कुछ कह न पायेंगे !


साधना वैद

Saturday, November 19, 2011

एक पन्ना --- डायरी का

दूर क्षितिज पर भुवन भास्कर सागर की लोल लहरियों में जलसमाधि लेने के लिये अपना स्थान सुनिश्चित कर संसार को अंतिम अभिवादन करते विदा होने को तत्पर हैं ! सूर्यास्त के साथ ही अन्धकार त्वरित गति से अपना साम्राज्य विस्तृत करता जाता है ! जलनिधि की चंचल तरंगों के साथ अठखेलियाँ करती अवसान को उन्मुख रवि रश्मियों का सुनहरा, रुपहला, रक्तिम आवर्तन-प्रत्यावर्तन हृदय को स्पंदित कर गया है ! संध्या के आगमन के साथ ही पक्षी वृन्दों को चहचहाते हुए अपने बसेरों की तरफ लौटते देख मन अवसाद से भर उठा है ! क्यों मेरा मन इतना निसंग, एकाकी और उद्भ्रांत है ! अंधकार की गहनता के साथ ही नीरवता भी पल-पल बढ़ती जाती है ! दूर-दूर तक अब कहीं प्रकाश की कोई रेखा दिखाई नहीं देती ! बच्चों का कलरव भी मंद हो चला है ! कदाचित सभी अपने-अपने घरों को लौट गये हैं ! मैं भी अनमनी सी शिथिल कदमों से लौट आई हूँ अपने अंतर के निर्जन सूने एकांतवास में जहाँ रात के इस गहन सन्नाटे में कहीं से भी कोई आहट, कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती कि मैं खुद के ज़िंदा होने का अहसास महसूस कर सकूँ ! पंछी भी मौन हो गये हैं ! इसी तरह निर्निमेष अन्धकार में छत की कड़ियों को घूरते कितने घण्टे बीत गये पता ही नहीं चला ! अब कुछ धुँधला सा भी दिखाई नहीं देता ! जैसे मैं किसी अंधकूप में गहरे और गहरे उतरती चली जा रही हूँ ! मेरी सभी इंद्रियाँ घनीभूत होकर सिर्फ कानों में केंद्रित हो गयी हैं ! हल्की सी सरसराहट को भी मैं अनुभव करना चाहती हूँ शायद कहीं कोई सूखा पीला पत्ता डाल से टूट कर भूमि पर गिरा हो, शायद किसी फूल से ओस की कोई बूँद ढुलक कर नीचे दूब पर गिरी हो, शायद किसी शाख पर किसी घोंसले में किसी गौरैया ने पंख फैला कर अपने नन्हे से चूजे को अपने अंक में समेटा हो, शायद किसी दीपक की लौ बुझने से पूर्व भरभरा कर प्रज्वलित हुई हो ! इस घनघोर अन्धकार और भयावह सन्नाटे में वह कौनसी आवाज़ है जिसे मैं सुनना चाहती हूँ मैं नहीं जानती लेकिन इतना ज़रूर जानती हूँ कि साँसों की धीमी होती रफ़्तार को गति तभी मिल सकेगी जब मुझे वह आवाज़ सुनाई दे जायेगी !

साधना वैद



Sunday, November 13, 2011

बाल दिवस --- एक चिंतन






यूँ तो सारी दुनिया में तो बाल दिवस २० नवंबर को मनाया जाता है ! परन्तु भारत में यह महत्वपूर्ण दिन १४ नवंबर को मनाया जाता है जो हमारे लोकप्रिय नेता श्री जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन है ! नेहरू जी को बच्चों से बहुत प्यार था और वो उनके विकास व हित के प्रति सदैव बहुत चिंतित रहते थे ! बाल दिवस को एक लोक प्रिय उत्सव की तरह सारे देश में मनाया जाता है ! स्कूलों में जलसे होते हैं, बच्चों को पिकनिक के लिये पार्कों या मनोरंजन स्थलों पर ले जाया जाता है और इस बहाने बच्चे “चाचा नेहरू” को भी याद कर लेते हैं ! पण्डित नेहरू यह मानते थे कि बच्चे ही देश का भविष्य हैं इसलिए उन पर ध्यान देना और उनकी बेहतरी के लिये प्रयत्न करना हमारा सबसे प्रमुख कर्तव्य होना चाहिये ! आइये देखें कि पण्डित नेहरू की मृत्यु के ४७ सालों के बाद हम इस प्रयास में कितने सफल हो पाये हैं !

एक अरब से ऊपर की आबादी वाले हमारे देश में लगभग पैंतालीस करोड़ बच्चे हैं ! पर दुःख की बात है कि प्रतिदिन दस हज़ार बच्चों की मृत्यु कुपोषण और डायरिया जैसी साधारण बीमारियों से हो जाती है ! हर वर्ष बीस लाख बच्चे अपनी पहली वर्षगाँठ मनाने से पूर्व ही काल कवलित हो जाते हैं ! प्रति दिन एक करोड़ बच्चे सर पर छत के अभाव में आधा पेट खाना खाकर सड़कों पर ही रात गुजारने के लिये मजबूर होते हैं ! हमारे संविधान के द्वारा मिले हुए शिक्षा के बुनियादी अधिकार से ये बच्चे वंचित रह जाते हैं ! दुनिया के सबसे अधिक कामकाजी बच्चे हमारे देश में हैं जो दयनीय स्थितियों में बहुत कम दिहाड़ी पर बारह-बारह घण्टे काम करने के लिये विवश हैं ! प्रतिवर्ष पैतालीस हज़ार बच्चे लापता या गुम हो जाते हैं और पेशेवर अपराधियों के हत्थे चढ़ जाते हैं ! इस संख्या में पाँच से पन्द्रह वर्ष की लड़कियों की संख्या भी शामिल है जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है !

बचपन, जिसमें बच्चा खेल खेल में ही अपने आसपास की दुनिया को खोजता है, कौतुहल के साथ समाज के नियमों और कायदों को सीखता है, संस्कारों को ग्रहण करता है, और मानवीय संवेदनाओं को अपने मन में अनुभव करता है, समाज में रह कर एक दूसरे के साथ सामंजस्य के साथ जीना सीखता है, शिक्षा ग्रहण कर अपना ज्ञान बढ़ाता है और उचित पौष्टिक आहार एवं खेलकूद के साथ अपनी शारीरिक एवं मानसिक शक्ति को विकसित करता है, ऐसे स्वस्थ बचपन को जीने के बाद ही वह एक योग्य और ज़िम्मेदार नागरिक बनता है जिस पर हम गर्व भी कर सकते हैं और अपने देश के सुंदर भविष्य के प्रति निश्चिन्त भी हो सकते हैं ! लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में जिस हाल में भारत के अधिकाँश बच्चे जी रहे हैं और उन पर जो कुछ आज बीत रहा है उसके बाद यदि उनका विकास हमारी अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो रहा है तो क्या यह हमारे देश का दुर्भाग्य नहीं है ?

हमें बाल दिवस अवश्य मनाना चाहिये ! यह हमारा महत्वपूर्ण पर्व है लेकिन इस दिन सबसे अधिक विमर्श इस बात पर ही होना चाहिये कि इन वंचित बच्चों के लिये हम, हमारी सरकार और हमारी सामाजिक संस्थाएं क्या कर सकती हैं और क्या कर रही हैं ! यद्यपि यह समस्या गरीबी से जुड़ी हुई है तथापि हमारे गरीब देश में जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उसका बड़ा हिस्सा यदि इन बच्चों के बेहतर विकास के ऊपर खर्च किया जाये और उचित नियंत्रण रख इसे भ्रष्टाचार रूपी दानव के चंगुल में जाने से बचा लिया जाये तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है ! यह ऐसी मेहनत होगी जिसका फल निश्चित रूप से बहुत मीठा होगा और तब बाल दिवस को हम सही अर्थों में एक राष्ट्रीय पर्व की तरह मना सकेंगे !

साधना वैद

Thursday, November 10, 2011

मध्यम वर्गीय मानसिकता और दहेज प्रथा


दहेज विरोधी अनेकों अभियानों, आन्दोलनों तथा प्रचारों के उपरान्त भी दहेज के अभिशाप से अभी तक समाज मुक्त नहीं हो सका है ! लगभग प्रतिदिन ही समाचार पत्रों में दहेज प्रेमी स्वजनों से प्रताड़ित बहुओं की करुण कथाएं प्रकाशित होती रहती हैं ! कुछ समय पूर्व जब तक केबिल टी वी ने अपने पैर इतने नहीं पसारे थे रेडियो तथा दूरदर्शन पर भी दहेज विरोधी वार्ताएं, नाटक, झलकियाँ इत्यादि का प्रसारण बड़ी जोर शोर से किया जाता था ! जागरूक कलम के सिपाहियों ने भी पत्र पत्रिकाओं में लेख, कहानियाँ, कवितायें या व्यंग लिख कर पाठकों के विवेक को इस दहेज रूपी दानव से बचाने हेतु नाना प्रकार से अभिमंत्रित करने के यथासाध्य प्रयत्न किये लेकिन फिर भी दहेज के लालची लोगों की आँखों से लोभ और लालसा की पट्टी नहीं उतार पाये !

दहेज की इस विकराल समस्या से सर्वाधिक रूप से हमारे समाज का मध्यम वर्ग ग्रस्त एवं त्रस्त है ! यह बीमारी सबसे अधिक इसी वर्ग में व्याप्त दिखाई देती है ! इसी वर्ग में इस कुप्रथा के सबसे बड़े पोषक व समर्थक भी मिल जाते हैं और इसके चंगुल में फँसे छटपटाते निरीह शिकार भी दिखाई दे जाते हैं ! समाज की संरचना में मध्यम वर्ग की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है ! उच्च वर्ग के मुट्ठी भर लोगों का प्रतिशत तो बहुत कम होता है निम्न वर्ग के लोगों में भी यह प्रथा इतनी गहराई से अपनी जड़ें नहीं जमा पाई है कदाचित इसलिए कि ना तो इन लोगों में इतनी अधिक लालसा और महत्वाकांक्षाएं हैं कि उन्हें पूरा करने के लिये ये कुछ भी कर डालें ना ही विवाह सम्बन्ध के टूट जाने से समाज में प्रतिष्ठा भंग हो जाने का भय है ! दहेज लेने देने की हैसियत ना होने के लिये उन्हें समाज या बिरादरी के सामने नाक कट जाने की चिंता नहीं होती ना ही वे किसी भी तरह से धर्म या समाज के निर्धारित किये हुए नीति नियमों की चिंता करते हैं ! उनके लिये विवाह किसी बंधन का नाम नहीं है जिसे उन्हें आजीवन निभाना है ! उनके लिये तो यह खुशी का सौदा है ! जब तक साथ अच्छा लगा साथ रह लिये जब जीवन में कटुता आ गयी तो अलग हो गये ! इसीलिये शायद उसे बचाए रखने के लिये ससुराल पक्ष की माँग या शर्त को आजीवन मानते रहने की भी कोई बाध्यता नहीं है ! पाश्चात्य जीवन शैली को शायद इस वर्ग ने अनजाने में ही सबसे अधिक आत्मसात कर लिया है ! दहेज की दौड़ में तो हमारा मध्यम वर्ग ही सबसे आगे हाँफता काँपता दौड़ता दिखाई देता है और जनसंख्या में वृद्धि के साथ सबसे अधिक विस्तार भी इसी वर्ग का हो रहा है !

आज के युग में सुख, समृद्धि, सम्मान, सम्पन्नता तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने की चाह किसे नहीं होती ! इनकी चाह रखना कोई अपराध भी नहीं है ! बस यह महत्वपूर्ण है कि अपनी इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये व्यक्ति कौन सा आधार अपनाता है ! वह स्वयं अपने बलबूते पर इन्हें हासिल करना चाहता है या इसके लिये वह बड़े सभ्य, सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित होने का दंभ पाले अपनी मूंछों पर ताव देते हुए योजनाबद्ध तरीके से डंके की चोट पर सरे आम बड़ी सफाई से औरों की मेहनत की गाढ़ कमाई पर हाथ साफ़ करना चाहता है ! लेकिन यह कैसी चाहत है कि उसकी पूर्ति के लिये किसी और का शोषण किया जाये ! किसी और के बैंक बैलेंस पर डाका डाला जाये !

मध्यम वर्ग की विडम्बना यह है कि वह निम्न वर्ग की तरह अपने बच्चों को अशिक्षित भी नहीं छोड़ सकता और ना ही उच्च वर्ग की तरह उनके पास अनाप-शनाप धन है कि बिना कष्ट उठाये और अपनी इच्छाओं, हसरतों और सपनों की बलि चढ़ाए वह अपने लक्ष्य को हासिल कर ले ! समाज में सबके सामने अपनी सम्पन्नता की नुमाइश करने की ललक भी उनके मन में भी विद्यमान रहती है ! धनाढ्य एवं प्रभावशाली लोगों की जीवन शैली का उन लोगों की मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है ! आस पड़ोस के लोगों से भी वे कमतर नहीं रहना चाहते ! अगर पड़ोस के शर्मा जी ने कार खरीदी है तो अचानक ही घर के सभी सदस्यों को अपना पुराना स्कूटर एकदम से खटारा दिखाई देने लगता है ! अगर साथ वाले मकान के श्रीवास्तव जी के बच्चे शहर के सबसे मोटी फीस वाले स्कूल में पढ़ते हैं तो चाहे आमदनी पर्याप्त हो या ना हो अपने बच्चों को भी उसी स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश मन में घर कर जाती है ! आये दिन घर वालों की फरमाइशें, ताने, उलाहने उनकी दुर्बल इच्छा शक्ति पर नित नये प्रहार कर उसे और कमज़ोर करते हैं और वे येन केन प्रकारेण इन सुख सुविधाओं को जुटाने के लिये कृत संकल्प हो जाते हैं और उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत के अंतर को भूलते चले जाते हैं ! ऐसे में बेटे के विवाह के अवसर पर बहू व उसके घर वाले उन्हें सम्पन्नता के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ाने के लिये सबसे अधिक सहज सुलभ सीढ़ी की तरह दिखाई देने लगते हैं !

कदाचित बेटे की शादी का अरमान ही उनके मन में इसलिये होता है कि अर्थाभाव के कारण जो कीमती सामान वे अभी तक खरीद नहीं पाये थे वे बेटे के ससुराल वालों से वसूल कर लिये जायें ! इसीलिये दहेज प्रेमियों की सूची में मोटर साइकिल या स्कूटर, फ्रिज, कलर टीवी, लैप टॉप, वाशिंग मशीन, कुकिंग रेंज, डबल बेड, ड्रेसिंग टेबिल, डाइनिंग टेबिल, सोफा सेट, कीमती डिनर सेट और यहाँ तक कि कार इत्यादि सभी कुछ सम्मिलित होता है ! घर के पुराने सामान का बहिष्कार कर उसे नये, आधुनिक व कीमती सामान से एक्सचेंज करने का भला इससे बेहतर और कौन सा विकल्प हो सकता है ! इसके अलावा ढेर सारा कैश, घर परिवार के सभी सदस्यों के लिये उपहार स्वरुप यथा प्रथा कीमती आभूषण और गहने, सूट, शॉल साड़ियाँ इत्यादि तो गिनती में शुमार होने ही नहीं चाहिये क्योंकि ये तो परम्परा का अहम् हिस्सा हैं ! दुःख होता है यह सोच कर कि ऐसे लोग अपने बेटों की शिक्षा दीक्षा पर हुए खर्च को एक निवेश की तरह मानते हैं जिनसे लाभ कमाने का वक्त उनकी शादी के अवसर पर आता है ! जितना उच्च शिक्षित बेटा उतनी ही ऊँची उसकी बोली और दहेज में माँगे गये सामान की उतनी ही बड़ी फेहरिस्त ! शर्म आती है कि यह कैसी रोगग्रस्त मानसिकता हो चली है हमारी !

सवाल यह उठता है कि यह सोच कहाँ तक उचित है ! क्या हमारे मध्यमवर्गीय समाज के पुरुष वर्ग में आत्म सम्मान एवं आत्मविश्वास जैसे सद्गुणों का नितांत अभाव हो गया है ? क्या ये लोग इतने पराश्रयी हो गये हैं कि अपने भावी जीवन के लिये अपनी आवश्यक्ता एवं इच्छा के अनुरूप सुख सुविधा का सामान जुटाने लायक योग्यता एवं क्षमता भी उनमें बाकी नहीं रह गयी है ? या उनकी अंतरात्मा इतना नीचे गिर चुकी है कि विवाह के थाल में पत्नी के साथ परोसे जाने वाले दहेज रूपी षठ रस व्यंजन ही उनके मन को भाने लगे हैं जिन्हें पाने के लिये उन्हें ना तो अपने हाथ पैर हिलाने की ज़रूरत महसूस होती है ना ही इसके लिये वे अपने माथे के स्वेद बिंदुओं को बहाना चाहते हैं ! वे इतने असंवेदनशील हो जाते हैं कि इस प्रक्रिया में लडकी वालों की कमर कितनी टूटती है इससे उन्हें कोई सरोकार ही नहीं होता !

बहू अगर बड़े घर की बेटी है तब तो समझिये लॉटरी ही खुल गयी ! बहू का मायका कामधेनु की तरह हो जाता है ! जब जी चाहा दुह लिया और अपने घर के ‘स्टैण्डर्ड’ में एकाध सितारा और टाँक लिया ! बहू अगर साधारण परिवार की है तो समझ लीजिए कि बेचारी का जीवन नर्क बन गया ! निरीह गाय की तरह वह जब तक दूध देती रहती है उसे दुहा जाता है ! उसके मायके का सारा बैंक बैलेंस भी बिलकुल निचोड़ कर सुखा लिया जाता है ! और जब कुछ भी मिलने की संभावना समाप्त हो जाती है उसे निरर्थक कूड़े कचरे की तरह मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया जाता है ! जिससे किसी और बदकिस्मत लड़की के जीवन के साथ खेलने के लिये ऐसे कायरों को कानूनी रूप से स्वतन्त्रता मिल सके !

शर्म आती है यह सोच कर कि आधुनिक और विकसित होने का दंभ भरने वाले हमारे समाज में ऐसी पाशविक मनोवृत्तियों से ग्रस्त लोग हर मोहल्ले, हर बस्ती, हर कोलोनी में आज भी मिल जाते हैं ! लेकिन घनघोर अन्धकार में आशा की किरण की तरह आज भी चंद ऐसे नवयुवक दिखाई दे जाते हैं जो ऐसी कुप्रथाओं का विरोध करते हैं और उन्होंने स्वयं दहेजरहित विवाह कर समाज के सामने अपनी संवेदनशीलता, उदारता और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया है ! बहुत ज़रूरत है कि ऐसे नवयुवक जागृति की मशाल थामें और ऐसी मुहिम चलायें कि संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त अन्य नवयुवक भी अपना दृष्टिकोण बदलें ! उन्हें निज बाहुबल एवं योग्यता पर भरोसा करने के लिये प्रेरित करें ! अपने परिचितों, मित्रों और पास पड़ोसियों में भी यह चेतना फैलानी होगी कि जीवन में जो कुछ वे पाना चाहते हैं उसे अपने बलबूते पर स्वयं अर्जित धन से पाने का लक्ष्य बनायें और यह संकल्प करें कि वे दहेज के नाम पर एक रुपया भी स्वीकार नहीं करेंगे ! युवतियों को भी चाहिये कि वे दहेज लोभी लोगों के साथ सम्बन्ध तय किये जाने का दृढ़ता के साथ विरोध करें तथा अपने अभिभावकों को भी ऐसे लोगों के सामने घुटने टेकने से रोकें ! जब ऐसे दृढ़ संकल्प वाले नौजवान और नवयुवतियाँ समाज की बागडोर थामेंगे तो निश्चित ही देश सही मायनों में सभ्य और सुसंस्कृत होने के मार्ग पर अग्रसर होगा और दहेज के दानव का दम टूटने में देर नहीं लगेगी !

साधना वैद

Friday, November 4, 2011

चिराग और जुगनू

कौन कहता है कि
सामान अब
पहले से
बेहतर मिलने
लगा है ,
हमारी राहें तो
आज भी
माज़ी में जलाये
चिरागों से ही
रौशन हैं !
ताज़े जलाये
चिराग तो
जुगनू की तरह
टिमटिमा कर
बुझते जाते हैं
और आँखों को
कसैले धुएँ से
भरते जाते हैं !




साधना वैद

Tuesday, November 1, 2011

कुछ तो है


कुछ तो है जो ,

परिंदे भी चुप हैं ,

पत्ते भी खामोश हैं,

फूल भी उदास हैं ,

तितलियों के सुहाने

शोख रंग भी

बेरंग से हो चले हैं !

कुछ तो है जो ,

खुशियों में कमी सी है ,

आँखों में नमी सी है ,

साँसे भी थमी सी हैं ,

यादों के जखीरे पर

वक्त की बर्फ की

सर्द सी पर्त जमी है !

कुछ तो है जो ,

हवाएं भी बोझिल हैं ,

बादलों की आँखें भी

बरस रही हैं ,

संवेदनाएं भी तिक्त हैं ,

हृदय भी रिक्त है ,

अधरों पर ठहरे

सहमे हुए से शब्द भी

वेदना से सिक्त हैं !

कुछ तो है जो ,

कायनात की हर शै

अपनी जगह से बेवजह

कहीं दूर हट चुकी है ,

खुशियों पर पकड़

ढीली हो चली है ,

निगाहें सामने पसरे

असीम रेगिस्तान के

प्रखर ताप से

झुलस चुकी हैं ,

शायद इसलिए कि

'तुम चुप हो' !




साधना वैद