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Thursday, November 28, 2013

आराधना




किस तरह बालारुण की  
एक नन्ही सी रश्मि
सागर की अनगिनत लहरों में
प्रतिबिंबित हो उसके पकाश को
हज़ारों गुना विस्तीर्ण कर देती है !
जहाँ तक दृष्टि जाती है
ऐसा प्रतीत होता है मानो  
हर लहर पर हज़ारों सूर्य ही सूर्य
उदित होते जा रहे हैं
जिनका ताप और प्रकाश
हर पल बढ़ता ही जाता है !
जो कदाचित विश्व के कोने-कोने से
अंधकार के अस्तित्व को
मिटा कर ही दम लेने का
संकल्प धार चुके हैं !  
सारे संसार को ज्योतिर्मय करने वाले
हे भुवन भास्कर  
तुम्हारे इस दिव्य प्रकाश के
असंख्यों वलयों के बीच
एक अभिलाषा लेकर मैं भी खड़ी हूँ
कि सम्पूर्ण रूप से आलोकित
बाह्य जगत के साथ-साथ
मेरे अंतर्मन का अन्धकार भी मिट जाये !
मेरा मन भी आलोकित हो जाये !
हे दिवाकर ,
मेरे मन में दृढ़ता से आसन जमाये
इस विकट तिमिर का संहार
तुम कैसे करोगे ?
किस यंत्र से कौन सा छिद्र
तुम मेरे हृदय की ठोस दीवार में करोगे
कि तुम्हारी प्रखर रश्मियाँ
मेरे अंतर्मन के सागर की हर लहर पर
इसी तरह नर्तन कर
हज़ारों सूर्यों का निर्माण कर सकें
और मेरे हृदय में व्याप्त अन्धकार का
समूल नाश हो जाये !
हे दिनकर
संसार में एक अकेली मैं ही नहीं
जो इस अन्धकार में निमग्न है
मुझ जैसे करोड़ों हैं जो प्रति पल
अपने अंतर के अन्धकार से जूझ रहे हैं !
आज तुमसे मेरी यही आराधना है कि
तुम उन सबके मन में भी
ऐसी ज्योति जला दो कि
उनका पथ आलोकित होकर
प्रशस्त एवँ सुगम्य हो जाये और उन्हें
अपना मार्ग तलाश करने के लिये
कभी ठोकर न खानी पड़े !
तथास्तु !


साधना वैद

Monday, November 25, 2013

चल उठ राही ....




मंज़िल की दूरी को लख कर
राही तू रुक जाना ना ,
पथ के सन्नाटों से डर कर
राही तू मुड़ जाना ना ,
पलक बिछाये बैठे हैं सब
शूल, धूल, कंकर, पत्थर ,
स्वागत को आतुर अपने इन
मित्रों को बिसराना ना ! 

चल उठ राही ! हिम्मत कर ले
यह पल फिर ना आयेगा ,
तेरे बुत बनने से निष्ठुर
इस जग का क्या जायेगा ,
इस पल को जी ले तू राही 
 खुशियाँ बाहों में भर ले ,  
जीवन ज्योत जला कर ही
औरों का तम हर पायेगा ! 

चल उठ राही ! बाँह पसारे
मंज़िल तुझे बुलाती है ,
कोमल कर से सहला अलकें
किस्मत तुझे जगाती है ,
क्यों बैठा है अंतर्मन के
 सब दरवाज़े बंद किये ,
जो खुद अपने मन से हारा
 दुनिया उसे भुलाती है ! 


चल उठ राही ! गुमसुम रह कर
कुछ भी ना मिल पायेगा ,
जिसने मन पर अंकुश साधा
विजय वही पा जायेगा ,
एक समूचा गगन पड़ा है
तेरे पंखों के नीचे ,
बाँध हौसला उड़ चल राही
दूर तलक तू जायेगा !


साधना वैद







Saturday, November 23, 2013

जीवन नौका




इस अनन्त, अथाह, अपार सागर की
उद्दाम लहरों पर
हर ओर से लगाम कसे
मैं खड़ी तो हूँ विश्व विजेता सी
कुछ इस तरह मानो
सृष्टि का हर रहस्य
हर आतंक, हर भय
मैंने वशीभूत कर लिया है
लेकिन क्या मेरे आकुल मन ने
सच में अपने भय और
समय-समय पर सिर उठाती  
ज़िद्दी आशंकाओं पर
विजय पा ली है ?
क्या सुनामी की उत्ताल तरंगें  
उसे भयभीत नहीं कर जातीं ?
क्या तूफानों के प्रचंड वेग से
उसका सर्वांग थर-थर
काँप नहीं जाता ?
जब बेरहम मौसमों की मार से
मेरे पाल विदीर्ण होकर
तार-तार हो जाते हैं
तब चंचल हवाओं की
हल्की सी शरारत भी  
मेरी राह को डगमगा जाती है !
मुझे भान हो चला है कि
मैं बहुत क्षुद्र हूँ ,
पुरातन हूँ और जर्जर हूँ
इसीलिये मेरी तुमसे विनती है
जबकि मेरी बुनियाद ही
सागर की अस्थिर आंदोलन कारी
लहरों पर टिकी है
तुम मुझ पर दायित्वों और
भरोसे के हिमालय तो न लादो
कि मैं एक नन्हे से जीव के
टकरा जाने भर से ही
सागर की अतल गहराइयों में
समा जाऊँ और मेरा जीवन
इतिहास के अध्यायों में
   समा कर ही रह जाये !  

साधना वैद