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Wednesday, August 13, 2025

दरार - एक लघुकथा

 



आज रक्षा बंधन का त्योहार है ! असलम के पैर धीरे-धीरे अपने प्रिय दोस्त विशाल के घर की तरफ बढ़ रहे थे ! सालों से उसकी बहन प्रतिभा विशाल के साथ-साथ उसे भी बड़े प्यार से राखी बाँधती आ रही है ! विशाल की माँ ने भी हमेशा असलम को अपने बेटे की तरह ही माना है ! हर ईद पर वे असलम और उसकी छोटी बहन सबा के लिए मिठाई और उपहार देना कभी नहीं भूलीं लेकिन इस बार पहलगाम के आतंकी हमले के बाद विशाल के घर में असलम का पहले सी गर्मजोशी के साथ स्वागत होना बंद हो गया था ! प्रकट रूप से किसीने कुछ कहा नहीं लेकिन व्यवहार में आया ठंडापन बिन कहे भी बहुत कुछ कह जाता था !
दरवाज़े पर पहुँच कर असलम ने कॉल बेल का बटन दबा दिया ! विशाल ने ही दरवाज़ा खोला ! माथे पर तिलक और कलाई पर सुन्दर सी राखी जगमगा रही थी !
“अरे, राखी बँध भी गई
? मुझे आने में देर हो गई क्या ?” असलम ने अपनी मायूसी को छिपाते हुए परिहास करते हुए कहा !
“कहाँ है प्रतिभा ? जल्दी से बुला लो उसे ! मुझे भी बाँध दे राखी ! आज अम्मी को नर्सिंग होम ले जाना है दिखाने के लिए !”
“अरे तो वही काम पहले करो न !” विशाल की माँ बोली ! “राखी का क्या है ! बाद में भी बँध सकती है ! अभी तो प्रतिभा को भी जाना है अपनी सहेली के यहाँ ! तुम पहले अपनी अम्मी को दिखा आओ !”
असलम संबंधों में आई दरार को शिद्दत से महसूस कर रहा था ! विशाल की माँ के लिए अम्मी की बीमारी की बात ढाल का काम कर रही थी ! वे चोर निगाहों से अन्दर कमरे की ओर देख रही थीं कहीं प्रतिभा बाहर न आ जाए !
तभी राखी की सजी हुई थाली हाथ में लिए प्रतिभा ने कमरे में प्रवेश किया !
“ओफ्फोह, कितनी देर लगा दी असलम भैया ! आप जानते तो हैं मैं जब तक आपको राखी नहीं बाँध लेती पानी भी नहीं पीती !” मिठाई का टुकड़ा असलम को खिलाते हुए प्रतिभा की आवाज़ रुँध गयी थी ! असलम की आँखें में भी नमी आ गई थी ! आकाश में धुंध को चीर कर धूप निकल आई थी !  

साधना वैद   


Sunday, August 10, 2025

नौकरी करने वाली महिलाओं की समस्याएँ

 




आज की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था में यह एक बहुत ही ज्वलंत समस्या है ! यह एक निर्मम यथार्थ है कि नौकरी करने वाली कामकाजी महिलाओं पर दोहरी ज़िम्मेदारी होती है और उन्हें घर की जिम्मेदारियों के साथ अपने कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारियों को भी निभाना पड़ता है !

अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज में घर गृहस्थी के सारे कामों का दायित्व स्त्री पर ही होता है ! घर में खाना बनाना हो, मेहमानों की आवभगत करनी हो, बच्चों की लिखाई पढ़ाई हो या घर परिवार में किसी की बीमारी हारी की समस्या हो ! पतिदेव अपनी ज़िम्मेदारी पैसों की व्यवस्था करना या बाज़ार हाट का थोड़ा बहुत काम कर देने तक ही समझते हैं ! बाकी सारे कामों का दाइत्व स्त्री को ही निभाना पड़ता है ! अगर कहीं चूक हो जाती है तो घर में असंतोष और क्लेश का वातावरण बन जाता है ! जहाँ संयुक्त परिवार अभी भी अस्तित्व में हैं वहाँ परिवार की अन्य महिलाएं कुछ सहायता कर देती हैं लेकिन वह भी अक्सर एहसान की तरह ! जिसकी वजह से अक्सर सम्बन्ध खराब हो जाते हैं !

संपन्न घरों में सहायता के लिए नौकर रख लिए जाते हैं लेकिन अक्सर उन घरों में चोरी इत्यादि के समाचार भी सुनने में आते हैं ! बच्चों की परवरिश पर भी बुरा असर पड़ता है और बच्चे उस प्यार और परवरिश से वंचित रह जाते हैं जो एक माँ उन्हें दे सकती है ! कभी काम से खीझ कर या कभी बच्चों की जिद या असहयोग से चिढ कर नौकर अक्सर बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं ! उनके साथ गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करते हैं जिसकी वजह से बच्चे भी गंदी आदतें और गंदी भाषा का प्रयोग करना सीख जाते हैं ! काम के बोझ से त्रस्त माता-पिता भी अपने अपराध बोध की क्षतिपूर्ति के लिए बच्चों की हर जिद पूरी करने का प्रयास करते हैं जिसकी वजह से बच्चे जिद्दी और उद्दंड हो जाते हैं ! नौकरों के हाथ का बना खाना पसंद न आने पर वे बाहर से खाना ऑर्डर करके मँगवाने लगते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है ! बच्चों को न तो अच्छे संस्कार मिलते हैं, न स्वास्थ्यवर्धक भोजन, न ही उचित परवरिश !
रुग्ण मानसिकता वाले परिवारों में कामकाजी महिलाओं के चरित्र पर भी संदेह किया जाता है और ऑफिस के काम में देर हो जानी वजह से घर पर उनके काम का बोझ और अधिक बढ़ा दिया जाता है !
कामकाजी स्त्रियों को भी स्कूल या ऑफिस के लिए समय पर ही निकलना होता है ! जहाँ पुरुष को उनके हाथों में चाय नाश्ता, खाना, कपड़े आदि थमाए जाते हैं वहीं स्त्री को ये सारे काम परिवार के बाकी सदस्यों के लिए भी करना पड़ता है और अपने खुद के लिए भी ! अगर न कर पाए तो उसी दिन सबका मूड खराब हो जाता है !
यह समस्या तो विकट है लेकिन इसका समाधान यही है कि पति व परिवार के अन्य सदस्यों को अपनी सोच को थोड़ा बदलना चाहिए और कामकाजी स्त्री का पूरी तरह से सहयोग करना चाहिए ! आखिर वह अपने परिवार की बेहतरी के लिए ही तो इतनी मेहनत कर रही है ! अभी तक कई घरों में लोगों की यह मानसिकता बनी हुई है कि जो स्त्री नौकरी कर रही है तो वह शौकिया कर रही है ! उसका स्थान परिवार में हमेशा सबसे नीचा ही माना जाता है ! जो कि सर्वथा अनुचित है और गलत है ! खुद स्त्रियाँ भी ऐसा ही सोचती हैं इसीलिये न वो डट कर विरोध ही कर पाती हैं और न ही लोगों की सोच बदल पाती हैं ! अपनी स्वयं की सोच के चलते वे खुद भी पिसती जाती हैं और दोहरी जिम्मेदारियाँ उठा कर थकती भी हैं
, असंतुष्ट भी रहती हैं और अवसादग्रस्त भी हो जाती हैं !
इस समस्या का एक ही समाधान है कि परिवार के लोग स्त्री के साथ सहानुभूति और संवेदना के साथ व्यवहार करें ! उसके काम को भी गंभीरता से लें, घर के कामों में उसकी सहायता और सहयोग करें और उसकी समस्याओं का संज्ञान लेते हुए उसके साथ नरमी से पेश आएं और उसके साथ मीठा व्यवहार करें ! स्त्रियाँ स्वभाव से ही भावुक होती हैं और अगर उनकी उपेक्षा अवहेलना की जाती है तो स्थिति सम्हलने की जगह और बिगड़ जाती है ! यहाँ परिवार के सभी सदस्यों से समझदारी की अपेक्षा की जाती है ! 

साधना वैद  


Friday, August 8, 2025

बचपन का रक्षा बंधन

 



बचपन की बातें और बचपन की यादें जब भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं मन गुलाबी-गुलाबी सा होने लगता है ! विशेष तौर पर जब किसी त्योहार से जुड़ी यादों का ज़िक्र हो तो न जाने कितनी खुशबुओं से घिरा पाने लगती हूँ खुद को !
कोई भी पर्व त्योहार हो मम्मी का आसन रसोई में सुनिश्चित होता था और घर भर में सुबह शाम पकवानों की खुशबू बरबस ही हम सबको खींच-खींच कर चौके में ले जाती जहाँ हर पकवान का भोग हम ही सबसे पहले लगाते !
सावन का महीना विशेष रूप से उल्लास और उत्साह को समेट लाता ! घर में बड़ी मजबूत रस्सी वाला झूला डाला जाता ! कारपेंटर से लकड़ी की बड़ी सी पटलियाँ बनवाई जातीं कि कम से कम दो लोग तो एक साथ झूले पर बैठ जाएं ! तीजों पर मम्मी हमारे दुपट्टे रंगतीं कभी चुनरी प्रिंट के कभी लहरिये के ! उनमें रात-रात भर जाग कर किरण गोटा लगातीं ! पत्तों वाली मेंहदी सिल बट्टे पर पीस कर मूँज की खरेरी खाट पर पुरानी दरी पर लिटा कर हमारे हाथों और पैरों में मेंहदी लगातीं और घर में सिंवई
, घेवर, खीर, अंदरसे की खुशबू तैरती रहती !
रक्षा बंधन के आने से पंद्रह दिन पहले से हलचल मची रहती ! राखियाँ दूसरे शहरों में रहने वाले चचेरे, तयेरे
, मौसेरे, ममेरे भाइयों को भी तो भेजनी होती थीं ! लिफ़ाफ़े में कौन सी राखी ठीक रहेगी और कौन सी सबसे सुन्दर भी हो यह छाँटने में ही बहुत समय लग जाता ! आठ दिन पहले ही सब पोस्ट हो जाएं यह कोशिश रहती थी ताकि सबको समय से मिल जाएं !
रक्षा बंधन के दिन सुबह से व्रत रखते थे कि जब तक राखी नहीं बाँध लेंगे मुँह नहीं जुठारेंगे ! भैया को सुबह से ही जल्दी-जल्दी तैयार होने के लिए मम्मी टोकती रहतीं, “अरे ! नहाए नहीं अभी तक ? जल्दी राखी बँधवा लो देखो तुम्हारी छोटी बहन सुबह से भूखी बैठी है !”
बड़ी खातिर होती थी उस दिन हमारी ! राखी बाँधने के बाद शगुन के पाँच रुपये मिला करते थे ! पाँच रुपये भैया देते पाँच रुपये बाबूजी ! कुछ अपनी गुल्लक से बचत किये हुए पैसे निकाल कर हम दूसरे ही दिन बाज़ार पहुँच जाते ! उन दिनों आजकल की तरह मँहगे-मँहगे सूट साड़ियों या उपहारों का फैशन नहीं था ! दो तीन रंगों की सलवारें हुआ करती थीं ! उनसे मैचिंग प्रिंट का कपड़ा लाकर घर में ही हमारे कुरते मम्मी खुद सिया करती थीं ! दर्जी से जनाने कपडे सिलवाने का चलन उन दिनों नहीं था ! बहुत बढिया कॉटन के प्रिंटेड कपड़े चार पाँच रुपये मीटर के आ जाया करते थे ! दो मीटर में हमारा कुर्ता बन जाता था ! कुछ पैसे मम्मी से भी मिल जाते ! तो बस रक्षाबंधन के अगले ही दिन कम से कम दो कुर्तों का कपड़ा आ जाता और हमारी बल्ले-बल्ले हो जाती !
तो ऐसे मनाते थे हम अपने त्योहार ! न थोड़ा सा भी शोर शराबा
, न कोई आडम्बर, न दिखावा लेकिन सुख, आनंद और संतुष्टि अपरम्पार !

चित्र - गूगल से साभार 


साधना वैद


Friday, August 1, 2025

दो - मुक्तक - सावन

 



जाने कैसे सावन में मेरा ये मन बँट जाता है !
‘पी’ घर ‘बाबुल’, ‘बाबुल’ के घर ‘साजन’ क्यों तरसाता है
बैठी हूँ बाबुल के अँगना झूल रही हूँ झूले पे 
पर कजरी का हर मुखड़ा प्रियतम की याद दिलाता है !  


सीला सावन, तृषित तन मन, दूर सजन 
गाते विहग, सुरभित सुमन, पुलकित पवन
सावन आया, रिमझिम फुहार, झूमी धरा  
भीगे नयन, व्याकुल है मन, आओ सजन !


चित्र  - गूगल से साभार 

साधना वैद 

Tuesday, July 29, 2025

विकास का रथ – लघुकथा

 



नव निर्मित पुल का उदघाटन करके मंत्री जी अभी-अभी मंच पर आए थे ! पीछे-पीछे पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों का हुजूम था ! उनके पीछे आम जनता की बड़ी भारी भीड़ नेता जी की जय जयकार करती और ‘नेता जी जिंदाबाद’ के नारे लगाती उमड़ी पड़ रही थी ! मंच पर आसीन होते ही नेता जी ने माइक सम्हाला, “ हमारी सरकार का पहला उद्देश्य रहा है जनता की सेवा और उनका सर्वांगीण विकास ! हमारा तो ध्येय ही जनता को जोड़ने का रहा है ! इसीलिए हमने अपने तीन साल के कार्यकाल में प्रदेश में तीन नए पुलों का निर्माण किया है और हज़ारों लोगों को इन पुलों के माध्यम से एक दूसरे के साथ जोड़ा है ! उनके बीच व्यापार और सामाजिक सौहार्द्र की संभावनाओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है ! हमारा विकास का रथ बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है ! अपने दो वर्ष के कार्यकाल में अभी हमारी दो पुल बनाने की योजना और है ! इस तरह प्रदेश में पुलों की संख्या आठ हो जाएगी ! पाँच पुल हमारे बनाए हुए और तीन पुल पहले के बने हुए !”
“नहीं-नहीं नेता जी ! कुछ भूल हो रही है ! वर्तमान में पुलों की संख्या कुल तीन ही है ! तीन पुल तो देख रेख और मरम्मत के अभाव में ढह चुके हैं ! एक पुल और जिसका निर्माण दो साल पहले ही हुआ था, गिरने की कगार पर है ! दो साल बाद कितने पुल अस्तित्व में होंगे अभी से कहना मुश्किल है !” भीड़ में से एक आवाज़ उभरी !




साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार 

Monday, July 28, 2025

काँवड़ यात्रा

 



संकल्प की शक्ति
भक्ति की पराकाष्ठा
श्रद्धा की अनुपम परिणति
काँवड़ियों की यह यात्रा !
सिर्फ एक भोला सी आशा
कि चढ़ा दें अपने देवता पर
श्रद्धा से संकल्पित
यह पवित्र जल
जो भर कर लाए हैं
अपनी गागर में
पवित्र नदियों से !
ले जा रहे हैं धर कर
श्रम से सुसज्जित काँवड़ में
चढ़ाने को अपने इष्ट देव पर
कि प्रसन्न कर उन्हें
पा सकें वरदान
जीवन में सफलता का
सुख समृद्धि का
परिवार की खुशियों का
कि बना लें अपना जीवन
खुशहाल प्रभु की कृपा से !
हे महादेव
पूरण करना आशा  
इन भोले-भाले काँवडियों की
रक्षा करना इनके विश्वास की
और कर देना इनकी
यह यात्रा सफल !
मेरा विश्वास भी तो जुड़ा है
इनके विश्वास के साथ !
इन्होंने तो अपनी पारी खेल ली
अब तुम्हारी बारी है !  



साधना वैद  
 


Sunday, July 20, 2025

कुण्डलियाँ

 



पेड़ों पे झूले पड़े सखियों का है शोर

खनक रही हैं चूड़ियाँ मन आनंद विभोर

मन आनंद विभोर मगन मन झूल रही हैं

कजरी, गीत, मल्हार, सभी दुख भूल रही हैं

बोली कोयल, फूल ‘साधना’ वन में फूले

आया सावन मास पड़े पेड़ों पर झूले !



रास रचैया की सुनी, जब मुरली की तान।

भागीं जमुना तीर पर, ज्यों तरकश से बाण।।

ज्यों तरकश से बाण, किशन को ढूँढ रही हैं ।

थिरक उठे हैं पाँव मुदित मन झूम रही हैं ।।

होतीं सभी विभोर, ‘साधना काकी, मैया।

दिखे न कोई और,  कान्ह सा रास रचैया ।


चित्र - गूगल से साभार 



साधना वैद