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Friday, June 28, 2024

उपहार स्वरुप क्या दें - फूल या फल और सब्जियाँ ?

 

यह बिलकुल सत्य है कि पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करते करते किसी भी समारोह में फूलों का गुलदस्ता देना अब बहुत अधिक प्रचलन में आ गया है ! किसीके प्रति अपनी सद्भावना एवं आदर भाव को व्यक्त करने के लिए यह एक सर्वमान्य, सुन्दर, सुरुचिपूर्ण एवं स्वस्थ परम्परा है ! अंग्रेज़ी में एक मुहावरा भी है, “Say it with flowers”.लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन फूलों का जीवन बहुत अल्पावधि का होता है और दो तीन दिन बाद ही ये सारे सुन्दर फूल कूड़े के ढेर पर फेंक दिए जाते हैं साथ ही हज़ारों रुपये भी कूड़े के ढेर को समर्पित हो जाते हैं ! फूलों के स्थान पर सब्जियाँ देने का प्रस्ताव भी मुझे कुछ विशेष अच्छा नहीं लगा ! आजकल समाज की जैसी व्यवस्था है प्राय: परिवार बहुत छोटे छोटे हो गए हैं ! किसी समारोह में अगर दस पंद्रह लोगों ने भी सब्जी की बास्केट उपहार में दे दी तो उपहार पाने वाले के सामने कितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जायेगी उन्हें इस्तेमाल करने की ! कोई बड़ा कलाकार हुआ तो उसे तो सब्जी की दूकान लगाने की आवश्यकता पड़ जायेगी ! छोटे से परिवार में फल फ्रूट या सब्जी की खपत ही कितनी होती है ! अधिक से अधिक एक डेढ़ किलो ! एक तो समारोह स्थल से घर ले जाने की समस्या फिर ज़रा सोचिये उनके घर में २५-३० किलो सब्जी और फल आ जायेंगे तो वे क्या करेंगे ! फूल तो मुरझाने के बाद फेंक भी दिए जाते हैं लेकिन फल और सब्जियों को तो फेंकना भी गवारा नहीं होगा न ही इतनी खाई जा सकेंगी ! मोहल्ले पड़ोस में बाँटने की मुसीबत और मढ़ दी जाए उस सम्मानित व्यक्ति पर ! मेरे विचार से सबसे अच्छा उपहार पौधों का ही होता है ! हरे भरे छायादार वृक्षों के या खूबसूरत फूलों के पौधे उपहार स्वरुप दिए जाने चाहिए ताकि पर्यावरण का भी संरक्षण हो, प्रदूषण भी घटे और हरियाली भी भरपूर हो जाए ! सोचिये ज़रा शहर में कितने सम्मान समारोह रोज़ होते हैं ! सम्मानित व्यक्तियों को नीम, पीपल, बरगद, आम, अमरुद, जामुन इत्यादि के पौधे उपहार स्वरुप दिए जाएँ तो शहर की तस्वीर ही बदल जायेगी ! कितना वृक्षारोपण होगा और शहर की वायु शुद्ध हो जायेगी ! पौधे उपहार स्वरुप देने से धन की भी बर्बादी नहीं होगी बल्कि उपहार देने वाले के धन का सच्चे अर्थों में सदुपयोग ही होगा ! सम्मानित व्यक्ति के घर में भी अनुपयोगी उपहारों का ढेर नहीं लगेगा ! धरती माँ और प्रकृति भी प्रसन्न हो जायेगी ! पंछी पखेरुओं की दुआ लगेगी और इतने फूलों को भी असमय पेड़ों से नहीं तोड़ना पड़ेगा ! फूल वृक्षों पर ही शोभित होते हैं, घूरे पर नहीं ! 


साधना वैद 


Tuesday, June 25, 2024

प्रेम प्रसाद - पहली प्रांजल प्रस्तुति





प्रियतम पुकारे

प्रेमातुर प्रणयिनी प्रियतमा

परसे परछाईं

पूछे प्रश्न प्रति प्रश्न

प्रबल प्रखर प्रवाहमान प्रेमावेग

प्रस्फुटित प्रेम पाती

पी पी प्याला प्रेमरस

पागल पवन पहुँचाए पाती

प्यारी प्रियतमा

पहने पीत परिधान

पहुँचे पवित्र प्रकोष्ठ

पूजे परम पूज्य

प्राण प्रतिष्ठित पावन प्रतिमा

प्रज्वलित प्रदीप

पहनाये पुष्पहार

प्रति पल प्रार्थनारत

पावे प्रतिदान

प्रेम प्रसाद !



चित्र - गूगल से साभार


साधना वैद 

Thursday, June 20, 2024

क्या कहते हैं ये पेड़

 




जो काट दोगे

कहाँ फिर पाओगे

इतने फल

 

कैसे मिलेगी

इतनी प्राणवायु

इतना बल

 

काट के मुझे

बन जाएगा सोफा

या एक कुर्सी

 

जिन पे बैठ

कर लेना बातें या

मिजाजपुर्सी

 

पर न भूलो

घुट जायेगी साँस

जो पेड़ काटे

  

रोयेगी कुर्सी

धूल फाँकेगा सोफा

सहोगे घाटे

 

कृतघ्न प्राणी

हमने सिर्फ दिया

तुमने लिया

 

कभी न माँगा

उदारतापूर्वक

दिया ही दिया

 

और तुमने ?

हमें ही काट डाला

यह क्या किया ?

 

कितना क्रूर

हमारे सौहार्द्र का

बदला दिया ?

 

कैसे पाओगे

ताकत के प्रतीक

रसीले फल


शीतल हवा

जीने को प्राणवायु

सुखद पल

 

तपी धरती

झुलसता ब्रह्माण्ड

अब तो जागो

 

छोड़ो मूढ़ता

लगाओ हरे पेड़

इन्हें न काटो

 

हरे वृक्ष हैं

जीवन का आधार

यही सत्य है

 

इनकी सेवा

इनका संरक्षण

पुण्य कृत्य है !

 

साधना वैद

 


Saturday, June 15, 2024

जाने कहाँ गए वो दिन




 बचपन और शरारतों का वैसा ही रिश्ता होता है जैसा पतंग और डोर का ! और इस संयोग को और दोबाला करना हो तो कुछ हमउम्र संगी साथी और भाई बहनों का साथ मिल जाये और गर्मियों की छुट्टियों का माहौल तो बस यह समझिए कि सातों आसमान ज़मीन पर उतार लाने में कोई कसर बाकी नहीं रह जाती ! और तब घर के बड़े बुजुर्गों को भी बच्चों को अनुशासन में रखने के लिये जो नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं उसका तो मज़ा ही कुछ और होता है !

सालाना इम्तहान समाप्त होते ही हम बड़ी बेसब्री से अपने मामाजी और चाचाजी के परिवारों से मिलने के लिये अधीर हो जाते थे ! कभी हम तीनों भाई बहन मम्मी बाबूजी के साथ उन लोगों के यहाँ चले जाते तो कभी वे सपरिवार हम लोगों के यहाँ आ जाते ! पाँच बच्चे मामाजी केपाँच बच्चे चाचाजी के और हम तीन भाई बहन और साथ में आस पड़ोस के बच्चों की मित्र मण्डलीबस पूछिए मत कितना ऊधमकितना धमाल और कितना हुल्लड़ सारे दिन होता था ! लड़कियों का ग्रुप अलग बन जाता और ज़माने भर के लोक गीतों और फ़िल्मी गीतों के ऊपर सारे-सारे दिन नाच-नाच कर कमर दोहरी कर ली जाती ! उधर लड़कों का ग्रुप अलग बन जाता जो कभी तो छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाने में और पेंच लड़ाने में व्यस्त रहते तो कभी इब्ने सफी बी.ए. के जासूसी उपन्यासों से प्रेरणा ले विनोद हमीद की भूमिका ओढ़ झूठ मूठ के केसों की छानबीन में लगे रहते ! दिन में धूप में बाहर निकलने की सख्त मनाही होती थी ! उन दिनों कूलर और ए सी का ज़माना नहीं था ! खस की टट्टियाँ दरवाजों पर और खिड़कियों पर लगा कर कमरों को ठंडा रखा जाता था ! दिन भर कमरे में हम लोग या तो कैरमसाँप सीढ़ीलूडो और ताश आदि खेलते या फिर मम्मी सब लड़कियों को कढ़ाई करने के लिये मेजपोश या तकिये के गिलाफों पर डिजाइन बना कर दे देतीं कि जब तक बाहर का मौसम अनुकूल ना हो जाये कमरे में ही रह कर कुछ हुनर की चीज़ें भी लड़कियों को सिखा दी जायें ! सबसे सुन्दर कढ़ाई करने वाले के लिये आकर्षक इनाम दिये जाने की घोषणा भी की जाती ! बस फिर क्या था हम सभी बहनें स्पर्धा की भावना के साथ जुट जातीं कि यह इनाम तो हमें ही जीतना है ! दिन भर बच्चों के लिये कभी फालसे या बेल का शरबत तो कभी कुल्फी और आइसक्रीम या कभी आम और खरबूजे के खट्टे मीठे पने का चुग्गा डाल कर मम्मियाँ हम लोगों को कमरे में ही टिकाये रखने के लिये सारे प्रयत्न करती रहतीं ! बीच-बीच में बच्चों की ड्यूटी बाहर जाकर खस के पर्दों की तराई करने के लिये भी लगा दी जाती ! कमरे में खूब हो हल्ला मचा रहता ! कभी अन्त्याक्षरी का शोर मचता तो कभी कोरस में नये पुराने फ़िल्मी गीतों को फुल वॉल्यूम पर गाने का शोर मचता ! कभी-कभी बड़े लोग भी हमारे इस खेल में शामिल हो जाते अन्त्याक्षरी के खेल में हारने वाली टीम के कानों में गाने बता कर उन्हें जीतने में मदद करने लगते ! उस समय ‘चीटिंग-चीटिंग’ का बड़ा शोर मचता और ‘शेम-शेम’ की गगन भेदी चीत्कारों के साथ खेल वहीं समाप्त कर दिया जाता !

यूँ तो लड़के अपना ग्रुप अलग ही बना कर रखते थे लेकिन जब उन्हें अपनी पतंगों के लिये ‘माँझा’ बनाने की ज़रूरत होती थी तो उन्हें हमारे सहयोग की बड़ी ज़रूरत होती थी ! उसके लिये घर के कबाड़े में से पुरानी काँच की शीशियों को जमा करतोड़ करकूट पीस कर और कपड़े से छान कर उसका पाउडर बनाना पड़ता था ! उसके बाद काँच के उस महीन पाउडर को गोंद में मिला कर उसका लेप तैयार करना पड़ता था ! फिर बगीचे के किसी एक पेड़ से धागे के एक सिरे को बाँध कर दूसरा सिरा सबसे दूर वाले पेड़ से बाँधा जाता था ! फिर गोंद में मिले उस लेप को धागे पर अच्छी तरह से लपेटा जाता था ! निगरानी भी करनी पड़ती थी कि जब तक धागा पूरी तरह से सूख ना जाये कोई बच्चा उसके पास जाकर घायल ना हो जाये ! अपने इस बहुमूल्य सहयोग की मोटी कीमत भी वसूलते थे हम अपने भाइयों से ! वे बड़े थे तो कभी हम लोगों को मम्मी बाबूजी की इजाज़त लेकर बाहर पार्क में घुमाने ले जाते थे जहाँ पूरी शाम हम लोग झूलोंशूटसी सौ आदि पर जमे रहते थे और ‘आई स्पाई’ और ‘बोल मेरी मछली कितना पानी’ खेला करते थे या कभी-कभी वे लोग हमें पिक्चर हॉल में बच्चों की कोई फिल्म दिखाने के लिये ले जाते थे ! कई अच्छी फ़िल्में जैसे जागृतिबूट पॉलिशहम पंछी एक डाल केकैदी नंबर नौ सौ ग्यारहमासूमप्यार की प्यासतूफ़ान और दिया आदि हमने इसी तरह देखी थीं ! शाम होते ही आँगन में पानी का छिड़काव और छिड़काव के बहाने एक दूसरे को पानी से सराबोर करने की शरारतें तो अंतहीन होती थीं ! जब तक ठन्डे पानी से बदन काँपने नहीं लगता था और मम्मी बाबूजी की डाँटने की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती थी यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता था !

कितने सुहाने दिन थे वे ! जहाँ सिर्फ मस्ती थीमौज थीबेफिक्री थी और थीं ढेर सारी खुशियाँ ही खुशियाँ ! उन्हें याद करके आज भी मन यही कहता है !

जाने कहाँ गये वो दिन!'

साधना वैद

Monday, June 3, 2024

दीवारों के भी कान होते हैं

 



कुछ कहावतें सुनने में बहुत ही अच्छी लगती हैं| कुछ ग्लैमर होता है उनमें, कुछ शोखी होती है और रोचकता तो भरपूर होती ही है| उन्हीं में से एक कहावत यह है कि ‘दीवारों के भी कान होते हैं|’
छोटे थे तो इस कहावत को पढ़ कर बड़ा रोमांच सा होता था| बड़ी हैरानी भी होती थी| पता नहीं किस दीवार के कान कितने तेज़ हैं| पता नहीं कौन सी बात सुन कर वह कैसे रिएक्ट करे| क्या दीवारों के मुँह भी होता है? क्या ये सुनी हुए बात किसीसे कह भी देती होंगी? या सिर्फ सुन कर अपने तक ही सीमित रखती होंगी? अगर मुँह नहीं होता है तो क्या खतरा है
? किसीसे कुछ कह तो पाएंगी नहीं| गोपनीयता तो बनी ही रहेगी ना| तो अब बातों का सूत्र पकड़ में आया कि सारा खेल गोपनीयता का है| 

दीवारों के कान होते हैं इसलिए कोई ऐसी बात न कही जाए कि पड़ोसी भी सुन लें और फिर वह जग जाहिर हो जाए| लेकिन यह तो ग़लत बात हुई ना| यानी कि ये दीवारें तो हमारे बुनियादी अधिकारों का ही हनन कर रही हैं| हम क्या अपने ही घर में नाप तोल कर बोलें? अब क्या हमें अपने घर की विश्वासघाती दीवारों को भी गिराना होगा? क्या पक्के मकानों की जगह तम्बू डेरे में रहने लगें? लेकिन अपनी निजता बरकरार रखने के लिए, पर्दों की ही सही, दीवारें तो वहाँ भी बनानी ही पड़ेंगी ना? तो यह तो तय रहा कि मनुष्य क्योंकि एक सामाजिक प्राणी है| वह समूह में रहता है तो अपनी निजता बनाए रखने के लिए उसे एक घर की ज़रुरत तो निश्चित रूप से पड़ेगी ही| फिर सिर्फ निजता ही क्यों, सर्दी, गर्मी, आँधी, तूफ़ान, ओले, बरसात इन सबसे बचाव के लिए भी तो घर ज़रूरी है| तो जहाँ घर होगा वहाँ दीवारें भी लाज़िमी तौर पर होंगी और दीवारें होंगी तो उनके कान भी होंगे और अगर ये दीवारें कहीं चुगलखोर हुईं तो आपकी तो समझ लीजिये कि शामत ही आ गईं| अब कोई यह कैसे पता करे कि दीवारें कच्चे कान वाली हैं या पक्के कान वाली| आज का युग होता तो ज़बरदस्त विज्ञापनों की मुहिम शुरू हो जाती अम्बुजा सीमेंट और अल्ट्रा टेक सीमेंट की तरह| बड़े-बड़े फिल्म स्टार भाँति-भाँति के अजीबोगरीब करतब दिखाते और विचित्र-विचित्र पोशाकें पहन कर हमें कन्विंस करने की कोशिश करते कि कौन सा उत्पाद लगाएं कि दीवारों के कान बिलकुल साउण्डप्रूफ़ हो जाएँ और वो एक भी बात इधर से उधर न कर पायें| खैर यह तो हुई बेबात की बात| सूत न कपास| थोड़ा सा शगल ही सही|

अब ये दीवारें तो क्या ही बोलेंगी लेकिन कच्चे कान वाली दीवारों के पार क्या हो रहा है इसका व्यौरा कभी-कभी चकित कर जाता है| यह किस्सा एक अति संवेदनशील, सहृदय लेखक महोदय ने बयान किया और अपने घर की कच्चे कान वाली खुराफाती दीवारों की करतूत पर अपना सर पीट लिया| तो किस्सा कुछ इस तरह शुरू हुआ| नए शहर में आने के बाद लेखक महोदय ने जिस घर में किराये पर रहने के लिए कमरा लिया उसी घर में दूसरी तरफ उनके मकान मालिक का बहुत छोटा सा परिवार रहता था| परिवार में चलने फिरने से लाचार एक वृद्ध माता जी थीं, उनकी एक बूटा सी बहू थी और एक बेटा था जो नौकरी के सिलसिले में किसी दूसरे शहर में रहता था और छुट्टी मिलने पर ही महीने में एकाध बार अपने घर आता था| बहू लम्बे घूँघट में ढकी बहुत संस्कारी, शालीन, हमेशा चुपचाप काम में लगी रहने वाली, दुबली पतली नाज़ुक सी लड़की थी जिसकी कभी आवाज़ तक नहीं सुनी थी किसीने| यह उन दिनों की बात है जब लोगों की ज़िंदगी बड़ी खामोश सी हुआ करती थी| एकदम सीधी सादी| न तो डी जे, लाउड स्पीकर्स का शोर ही था न घरों में टी वी वगैरह होते थे| शाम के बाद जब सन्नाटा छा जाता तो उस समय लेखक महोदय के अन्दर का साहित्यकार जाग जाता और वे मनोयोग से अपनी कलम और कॉपी सम्हाल कर बैठ जाते| लेकिन उनके कमरे की कच्चे कान वाली दीवारें उसी समय सक्रिय हो जातीं और दीवार के उस पार वाले हिस्से से बूढ़ी माँ जी की डाँट फटकार, चीखने चिल्लाने और अनर्गल प्रलाप का दौर उस सन्नाटे को तोड़ता हुआ कुछ इस तरह से शुरू हो जाता कि लेखक महोदय के दिल दिमाग पर हथौड़े से चलने लगते| वृद्धा क्या कहती थी वह तो समझ में नहीं आता था लेकिन यह बात बिलकुल स्पष्ट थी कि वह अपनी बहू पर ही चीख चिल्ला रही होती थी और उसीको धिक्कारते हुए गालियाँ देती रहती थी| वृद्धा की कर्कश आवाज़ देर तक गूँजती रहती और फिर धीरे-धीरे मद्धम होती हुई बंद हो जाती| थकान के मारे शायद वृद्धा को भी नींद आ जाती होगी| लेकिन लेखक का मन विचलित हो जाता| बेचारी बहू कैसे इस कठोर निर्दय सास के साथ निर्वाह करती होगी| उन्हें हैरानी भी होती किस मिट्टी की बनी है यह लड़की| कभी पलट के जवाब नहीं देती| कितना सब्र दिया है मालिक ने उसे| रोज़ रात का यही सिलसिला था| लेखक महोदय बिलकुल भी चित्त नहीं लगा पा रहे थे लिखने में| पड़ोसन बहू की व्यथा वेदना उन्हें व्यथित कर जाती| लेकिन कुछ उपाय भी तो नहीं था सास बहू की सुलह कराने का| उनके घर में कोई स्त्री नहीं थी जो मकान मालिक के घर में जाकर स्थिति को सम्हाल ले और मकान मालिक के घर में कोई पुरुष नहीं था जिससे लेखक महोदय स्वयं बात कर लेते| रोज़ रात को वृद्धा का अनर्गल एकालाप निर्बाध गति से चलता और बहुत कान लगा कर सुनने पर भी बहू का कोई भी जवाब लेखक को सुनाई नहीं देता| उसके धैर्य और सहनशीलता के लेखक कायल हो गए थे| मन ही मन उससे पुत्रीवत स्नेह भी करने लगे थे| उस पर उन्हें बहुत दया आने लगी थी| कभी-कभी मन करता बूढ़ी कर्कशा सास को जाकर जोर से झिंझोड़ दें| क्या उनके हृदय में ज़रा सी भी माया ममता नहीं है| कैसे वे इस मासूम सी बच्ची के प्रति इतनी निर्दय हो सकती हैं जो उनका इतना अत्याचार सहते हुए भी दिन रात उन्हीं की सेवा में लगी रहती है|  
एक दिन तो हद ही हो गयी| सासू माँ का प्रलाप और प्रबल हो गया था| साथ ही किसी बर्तन को फेंक कर मारने की आवाज़ भी आई थी| शायद वृद्धा ने लोटा गिलास जो भी हाथ में आया हो वही फेंक कर बहू पर निशाना साधा था| लेखक महोदय घबरा गए| आज तो खून खच्चर होने की नौबत आ गयी है| वृद्धा तो वैसे ही अपाहिज है| बेचारी बहू अगर घायल हो गयी होगी तो उसे कौन उपचार के लिए ले जाएगा| लेखक महोदय के मन में पड़ोसी धर्म ज़ोर से करवटें लेने लगा| लेकिन इतनी रात में एकाएक उन स्त्रियों के घर में जाने की हिम्मत भी वो नहीं जुटा पा रहे थे| उनके कमरे में ऊँचाई पर छत के पास एक वेंटीलेटर लगा था जो मकान मालिक के आँगन में खुलता था| पहले उन्होंने वहाँ से वस्तु स्थिति का सही जायज़ा लेने का मन बनाया| अपनी लिखने की मेज़ पर पहले एक कुर्सी और फिर कुर्सी पर एक स्टूल रख कर उन्होंने हिलती डुलती मीनार सी बनाई और फिर बमुश्किल अपने बदन को साध किसी तरह वे वेंटीलेटर तक पहुँचे| मकान मालिक के आँगन में झाँका तो हैरानी से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं| अपाहिज वृद्धा अपनी चारपाई पर औंधी पड़ी बहू से खाने के लिए रोटी माँग रही थी और बहू उसके सामने ही दूसरी खाट पर अपनी पूरी थाली सजा कर बैठी थी और चटखारे लेकर अचार से पराँठा खा रही थी और जब सास उससे खाना माँगती वह बेरहमी से उसे अँगूठा दिखा देती और जीभ निकाल कर उसे चिढ़ा देती| सास का प्रलाप और तेज़ हो जाता और बहू के मुख पर कुटिलता भरी मुस्कान और भी चौड़ी हो जाती| उसकी इस हरकत पर सास के मुख से गालियों का निर्बाध झरना बहने लगता था और ‘संस्कारी’, ‘शालीन’ बहू बेपरवाही से सास को मुँह बिराती, अँगूठा दिखाती आम के अचार की फाँक को मज़े ले लेकर कुतर रही थी
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अब बताइये ऐसे खुराफाती कान वाली दीवारों को आप क्या कहेंगे|

साधना वैद