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Sunday, June 30, 2019

छलना



कब तक तुम उसे
इसी तरह छलते रहोगे !
कभी प्यार जता के,
कभी अधिकार जता के,
कभी कातर होकर याचना करके,
तो कभी बाहुबल से अपना
शौर्य और पराक्रम दिखा के,
कभी छल बल कौशल से
उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाके,
तो कभी सामाजिक मर्यादाओं की
दुहाई देकर उसकी कोमलतम
भावनाओं का सौदा करके !
 

सनातन काल से तुम
यही तो करते आ रहे हो !
कभी राम बन कर
एक तुच्छ मूढ़ व्यक्ति की
क्षुद्र सोच को संतुष्ट करने के लिये
तुमने घिनौने लांछन लगा
पतिव्रता सीता का
अकारण परित्याग किया 
और उसकी अग्निपरीक्षा लेकर
उसके स्त्रीत्व का अपमान किया !
तुम्हारी हृदयहीनता के कारण
सीता क्षुब्ध हो धरती में समा गयी
लेकिन तुम फिर भी
‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ ही बने रहे !
 

भरी सभा में धन संपत्ति की तरह
अपनी पत्नी द्रौपदी को 
चौसर की बाजी में हार कर
और दुशासन के हाथों उसका
चीरहरण का लज्जाजनक दृश्य देख
तुम्हें अपने पौरुष पर
बड़ा अभिमान हुआ होगा ना !
पाँँच-पाँच पति मिल कर भी
एक पत्नी के सतीत्व की
रक्षा नहीं कर सके !
क्यों युधिष्ठिर
बड़ा गर्व हुआ होगा न तुम्हें ?
पत्नी की लाज हरी गयी
तो क्या हुआ
तुम तो आज भी
‘धर्मराज’ कहलाते हो !
क्या यही ‘धर्म’ था तुम्हारा ?

और तुम सिद्धार्थ
किस सत्य की खोज में तुम 
अपने सारे दायित्व
औरों के सर मढ़ कर
वैराग्य लेने का सोच सके ?
क्या वृद्ध माता पिता 
स्त्री पुत्र किसी के प्रति
तुम्हारा कोई कर्तव्य न था ?
तुमने तो जाने से पूर्व
यशोधरा को जगाना भी
आवश्यक न समझा !
कौन सा ज्ञान प्राप्त हो गया तुम्हें ?
सृष्टि का कौन सा नियम बदल गया ?
क्या संसार में आज लोग
वृद्ध नहीं होते ?
क्या संसार में आज लोग
रुग्ण नहीं होते ?
या तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप
संसार में सब अजर अमर हो गये ?
अब किसीकी मृत्यु नहीं होती ?
संसार में सभी कुछ उसी तरह से
आज भी चल रहा है
लेकिन तुम अवश्य अपनी सारी
अकर्मण्यताओं के बाद भी
‘भगवान’ बने बैठे हो !
आखिर कब तक तुम
नारी के कंधे पर बन्दूक रख कर
अपने निशाने लगाते रहोगे ?
अब तो बस करो !

कब तलक ‘देवी’ बनाओगे उसे
मानवी भी ना समझ पाये जिसे !
 



साधना वैद

Friday, June 28, 2019

क्रोधित त्वरा विचलित गगन


(१)
क्रोधित त्वरा
विचलित गगन
शांत वसुधा
(२)
तरल नीर
फौलाद सी चट्टानें 
श्रृंगार मेरा
(३) 
तेरी बिजली 
मेरा सुन्दर रूप 
चमका जाती 
(४)
खिल जाते हैं 
प्रकाश प्रसून भी 
मेरे तन पे
(५)
भय न जानूँ
वसुधा मेरा नाम 
धैर्य महान
 (६)
दिखा दे सारे 
हथियार अपने 
धरा हूँ मैं भी 
(७)
क्रूर घटायें
हथकड़ी बिजली 
बंदिनी धरा
 (८)
डरा न पाईं 
बिजली की बेड़ियाँ
धरा मुस्काई
(९)
और चमको
ढूँढना है मुझको 
खोया ठिकाना 
(१०)
जलाता टॉर्च
गगन का प्रहरी 
ढूँढ लो राह 
(११)
जाल बिछाये 
मछुआरा नभ में 
तारों के लिये 
(१२)
छिपा है चाँद 
घनेरी घटाओं में 
खोजे दामिनी
(१3)
निर्मम घटा 
बिजली की चाबुक 
सहमी धरा
(१४)
डराती घटा 
घनघोर गर्जन 
हँसती धरा 
(१5)
दे चेतावनी 
गरजी तो बरस 
साहसी धरा 
(१६)
दे आश्वासन 
एक बूँद सौ दाने 
उर्वरा धरा 


साधना वैद

Thursday, June 27, 2019

पहली बारिश

                                               




कितनी शिद्दत के साथ था मुझे तुम्हारा इंतज़ार ! जेठ अषाढ़ की विकल करती मरणान्तक गर्मी से एक तुम ही राहत दिला सकोगी यह विश्वास था मुझे ! खिड़की के पास खड़े होकर बाहर आसमान से उतरती रिमझिम बारिश को देखना कितना भला लगता है ! दरवाजे से हाथ बढ़ा कर हथेलियों पर बारिश की मोटी-मोटी मोती सी बूँदों को समेटना कितना सुहाना लगता है ! मन प्राण को आल्हादित कर देने वाली मिट्टी की सोंधी सुगंध को गहरी साँस के साथ मन प्राण में भर लेना कितना अच्छा लगता है ! लेकिन तुम अकेली क्यों न आईं बारिश ! अपने साथ मुसीबतों के इतने सारे ये पहाड़ क्यों बहा कर ले आईं ?
मुझे बारिश घर के बाहर ही अच्छी लगती है लेकिन तुम तो मुझे घर के हर कमरे में उपकृत करने लगीं ! मैंने ऐसा तो नहीं चाहा था ! हर कमरे की छत टपक रही है ! घर के सारे बाल्टी, मग, जग, लोटे, पतीले, भगौने कमरों में जगह-जगह टपकती छत के नीचे रखने पड़े हैं ! सुरक्षित कोने ढूँढ कर कमरों के सामान को तराऊपर गड्डी बना कर समेट दिया गया है  खिड़की दरवाजों के पास से सामान हटा कर कमरे के बीच में सरका कर रखना पड़ा है क्योंकि बारिश की बौछार से सारा सामान भीग जाता है ! लेकिन अब सब सोयें तो कैसे ! ज़मीन पर तो सोना भी मुहाल है क्योंकि बाहर का पानी कब कमरों में घुस आयेगा कहना मुश्किल है ! सड़कों के गड्ढे पानी भरा होने के कारण ठीक से नज़र नहीं आते तो रोज़ ही कोई न कोई गिर कर और कीचड़ में सन पुत कर घर में आता है ! धूप ना निकलने की वजह से रूमाल भी तीन दिन तक नहीं सूखते ! घर की हर कुर्सी मेज़ स्टूल और अस्थाई बँधी रस्सियों पर पंखों के नीचे कपड़े सुखाने पड़ते हैं खास तौर पर मोटी-मोटी पेंट्स और जींस और बच्चों के यूनीफॉर्म के कपड़े ! बारिश के दिनों में घर घर जैसा नहीं लगता युद्ध का मैदान लगता है ! ऐसे में कोई मेहमान आ जाये तब तो फिर कहना ही क्या ! बच्चों के पी टी शूज़ और सफ़ेद मोज़े रोज़ कीचड़ में सन जाते हैं जिन्हें रोज़ धोना और समय से सुखाना बहुत मुश्किल हो जाता है ! यूनीफॉर्म तो लगभग हर दिन बच्चे सीली-सीली सी ही पहन कर स्कूल जाते हैं ! इतनी सारी मुसीबतों के साथ बारिश की रिमझिम फुहार देख मन में कविता नहीं उमड़ती ! उमड़ती है तो बस अदम्य चिढ़, खीझ, झुँझलाहट और वितृष्णा !
घर के बाहर कॉलोनी में भी जगह-जगह गन्दगी के अम्बार लग जाते हैं क्योंकि वैसे ही सारे साल कोई सफाई कर्मचारी नियमित रूप से काम करने नहीं आता फिर बरसात के दिनों में काम पर ना आना तो जैसे उनका बुनियादी अधिकार ही बन जाता है ! नालियाँ सफाई के अभाव में उफनने लगती हैं जो बदबू और बीमारी दोनों ही फैलाने के लिये ज़िम्मेदार बन जाती हैं ! गन्दगी के अलावा बरसात के साथ तमाम सारे कीड़े मकोड़े आक्रमण सा कर देते हैं ! शाम को बिजली जलते ही तमाम पतंगों की फ़ौज आ जाती है ! उनसे बचा कर खाना बनाना और खिलाना दोनों ही काम चुनौती से बन जाते हैं ! उन कीड़ों की दावत उड़ाने के लिए घर की दीवारों पर छिपकलियों में घमासान छिड़ जाता है ! हालत यह हो जाती है कि ना तो घर में अच्छा लगता है ना ही बाहर ! घर से बाहर निकलना तो और भी दूभर हो जाता है ! सड़कों की दुर्दशा के चलते फल सब्ज़ी वालों तक ने कॉलोनी में आना बंद कर दिया है ! अब एक मुसीबत यह और कि हर रोज़ बाहर बाज़ार जाकर सब्ज़ी भी लानी पड़ती है ! कभी बारिश में शॉपिंग का मज़ा उठाया है आपने ? समझ ही नहीं आता कि छाता सम्हालें या सामान के पैकिट्स या पानी में भीगती साड़ी !
प्यारी सुहानी बारिश, मैंने तो तुम्हें अकेले आने का न्योता दिया था ! तुम इन सब मुसीबतों को अपने साथ क्यों ले आईं ! बारिश का मज़ा तो सिर्फ वे ही ले पाते हैं जो किलों की तरह मजबूत वाटरप्रूफ घरों में रहते हैं और जब घर से बाहर निकलते हैं तो कार से नीचे पैर रखने की उन्हें ज़रूरत ही नहीं होती ! या फिर बारिश का आनंद वे उठाते हैं जिन्हें ना तो कपड़े भीगने की चिंता होती है ना ही सामान की हिफाज़त और खरीदारी की ! घर के नाम पर उनके पास सिर्फ ज़मीन का फर्श होता है और आसमान की छत ! वे ही इस मौसम का भरपूर मज़ा उठाते हैं और बारिश की हर बौछार के साथ उन्हीं के गले से निकले सुरीले तराने फिज़ाओं में गूँजते सुनाई देते हैं !    

साधना वैद  

Wednesday, June 26, 2019

वर्षा



चंचल चुलबुली हवा ने
जाने बादल से क्या कहा
रुष्ट बादल ज़ोर से गरजा
उसकी आँखों में क्रोध की
ज्वाला रह रह कर कौंधने लगी ।
डरी सहमी वर्षा सिहर कर
काँपने लगी और अनचाहे ही
उसके नेत्रों से गंगा जमुना की
अविरल धारा बह चली ।
नीचे धरती माँ से उसका
दुख देखा न गया ,
पिता गिरिराज हिमालय भी
उसकी पीड़ा से अछूते ना रह सके ।
धरती माँ ने बेटी वर्षा के सारे आँसुओं को
अपने आँचल में समेट लिया
और उन आँसुओं से सिंचित होकर
हरी भरी दानेदार फसल लहलहा उठी ।
पिता हिमालय के शीतल स्पर्श ने
वर्षा के दुखों का दमन कर दिया
और उसके आँसू गिरिराज के वक्ष पर
हिमशिला की भाँति जम गये
और कालांतर में गंगा के प्रवाह में मिल
जन मानस के पापों को धोकर
उन्हें पवित्र करते रहे !

साधना वैद


Tuesday, June 25, 2019

पिघलती शाम




स्तब्ध जलधि 
दूर छूटता कूल 
एकाकी मन ! 

रुष्ट है रवि 
रक्तिम है गगन 
दूर किनारा ! 

मेरे रक्ताश्रु 
मिल गये जल में 
रक्तिम झील ! 

सुनाई देती 
सिर्फ चप्पू की ध्वनि 
उठी तरंगें ! 

लोल लहरें 
ढूँढे रवि आश्रय 
छिपा जल में ! 

दग्ध हृदय 
बहता दृग जल 
मन वैरागी ! 

ले चल मुझे 
दूर इस जग से 
नन्ही सी नौका ! 

किसे सुनाऊँ 
अपनी व्यथा कथा 
कोई न पास ! 

ढलती शाम 
है छाया अँधियारा 
दूर किनारा ! 

डूबा जल में 
सुलगता भास्कर 
दहकी झील ! 

फैला चार सूँ
धरा से नभ तक 
पिघला सोना ! 
 
 
 
साधना वैद

Friday, June 21, 2019

हवाई सर्वेक्षण.......





प्रदेश में बच्चे ‘चमकी’ बुखार और लू से
बड़ी संख्या में हर रोज़ मर रहे हैं
ज़मीनी हकीक़त से बड़ी गहराई से जुड़े नेताजी
हवाई सर्वेक्षण से स्थिति का जायज़ा
लेने का उपक्रम कर रहे हैं !
कष्ट भोग रही, दुखों से जूझती
जनता के सवालों के जवाब
कहाँ हैं उनके पास
हेलीकॉप्टर की खिड़की से दिखते
टीले पहाड़, नदी नाले,
गाँव देहात, जंगल मैदान
लगते हैं कितने सुन्दर, कितने ख़ास !
सारा विचार विमर्श
इन कुदरती नज़ारों से कर
इन्हें तो भरमा ही लेंगे नेता जी
सारी ज्वलंत समस्याओं के
सार्थक और सटीक समाधान
इन्हें तो थमा ही देंगे नेताजी !
न पूछेंगे ये कोई सवाल
ना होगा धरना, विरोध या कोई प्रदर्शन
ना मचेगा कोई बवाल !
आम के आम गुठलियों के दाम !
बनी रहेगी प्रदेश में शान्ति
और निखर जायेगी
नेताजी के मुख मंडल की कान्ति !
इतने ज़बरदस्त श्रम के बाद
ज़मीनी विपदाओं से जूझ कर
थके हारे लौटने के बाद
नेताजी का अपने कक्ष में
लंबा विश्राम करने का हक़ तो
तो बनता है ना !  
समस्याओं की ओखली में
अपना सर देने के लिए और
विपत्तियों की दु:सह मार झेलने के लिए
तो जनता है ना !
कल फिर जाना होगा नेता जी को
जनता के दुखों के निवारण के लिये
किसी और दिशा में
फिर किसी हवाई सर्वेक्षण पर, 
इसलिए आराम करने दो उन्हें
पूरा पूरा हक़ है उनका
जनता की ज़िंदगियों पर और
जनता के श्रम से कमाए धन पर !


साधना वैद



मैं एकाकी कहाँ


मैं एकाकी कहाँ !

जब भी मेरा मन उदास होता है
अपने कमरे की
प्लास्टर उखड़ी दीवारों पर बनी
मेरे संगी साथियों की
अनगिनत काल्पनिक आकृतियाँ
मुझे हाथ पकड़ अपने साथ खींच ले जाती हैं,
मेरे साथ ढेर सारी मीठी-मीठी बातें करती हैं,
और उनके संग बोल बतिया कर
मेरी सारी उदासी तिरोहित हो जाती है !
फिर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी मेरा मन उत्फुल्ल हो
सजने सँवरने को लालायित होता है
शीतल हवा के नर्म, मुलायम,
रेशमी दुपट्टे को लपेट ,
उपवन के सुगन्धित फूलों का इत्र लगा
मैं अपनी कल्पना के संसार में
विचरण करने के लिये निकल पड़ती हूँ,
जहाँ कोई अकुलाहट नहीं,
कोई पीड़ा नहीं,
कोई छटपटाहट नहीं
बस केवल आनंद ही आनंद है !
फिर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी कभी सावन की घटाएं
मेरे हृदय के तारों को झंकृत कर जाती हैं,
टीन की छत पर सम लय में गिरती
घनघोर वृष्टि की थाप पर
मेरा मन मयूर थिरक उठता है,
खिड़की के शीशे पर गिरती
बारिश की बूँदों की संगीतमय ध्वनि
मेरे मन को आल्हादित कर जाती है
और उस अलौकिक संगीत से
मेरे अंतर को
निनादित कर जाती है !
फिर मैं एकाकी कहाँ !

जब भी कभी मेरा मन
किसी उत्सव समारोह में सम्मिलित होने को
उतावला हो जाता है
मैं अपने हृदय की पालकी पर सवार हो
सुदूर आकाश में पहुँच जाती हूँ
जहाँ सितारों की रोशनी से
सारा उत्सव स्थल जगमगाता सा प्रतीत होता है,
जहाँ घटाओं की मृदंग
और बिजली की धार पर
दिव्य अप्सराओं का नृत्य हो रहा होता है
और समस्त ग्रह नक्षत्र झूम-झूम कर
करतल ध्वनि से उनका
उत्साहवर्धन करते मिल जाते हैं !
फिर इन सबके सान्निध्य में
मैं एकाकी कहाँ ! 


साधना वैद 

Wednesday, June 19, 2019

राम तुम बन जाओगे


आओ तुमको मैं दिखाऊँ
मुट्ठियों में बंद कुछ 
लम्हे सुनहरे ,
और पढ़ लो 
वक्त के जर्जर सफों पर 
धुंध में लिपटे हुए 
किस्से अधूरे !
आओ तुमको मैं सुनाऊँ 
दर्द में डूबे हुए नगमात 
कुछ भूले हुए से,
और कुछ बेनाम रिश्ते
वर्जना की वेदियों पर
सर पटक कर आप ही
निष्प्राण हो 
टूटे हुए से !
और मैं प्रेतात्मा सी 
भटकती हूँ उम्र के 
वीरान से 
इस खण्डहर में 
कौन जाने कौन सी
उलझन में खोई,
देखती रहती हूँ 
उसकी राह 
जिसकी नज़र में 
पाई नहीं 
पहचान कोई ! 
देख लो एक बार जो 
यह भग्न मंदिर 
और इसमें प्रतिष्ठित 
यह भग्न प्रतिमा 
मुक्ति का वरदान पाकर 
छूट जाउँगी 
सकल इन बंधनों से,
राम तुम बन जाओगे 
छूकर मुझे 
और मुक्त हो जायेगी 
एक शापित अहिल्या 
छू लिया तुमने 
उसे जो प्यार से 
निज मृदुल कर से !



चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

Tuesday, June 18, 2019

एक पिता की फ़रियाद




हमने भी जिया है जीवन ! मर्यादाओं के साथ ! मूल्यों के साथ ! सीमाओं में रह कर ! अनुशासन के साथ !

जीवन तुम भी जी रहे हो ! लेकिन अपनी शर्तों के साथ ! नितांत निरंकुश होकर ! बिना किसी दखलंदाजी के ! बिलकुल अपने तरीके से !

असहमति तब भी थी ! असंतोष तब भी था ! झुँझलाहट तब भी थी ! विरोध तब भी था ! हर नयी पीढ़ी का अपने से पुरानी पीढ़ी से कुछ न कुछ, कम या ज्यादह मतभेद स्वाभाविक है ! 
हर युग में होता है ! लेकिन हर युग में उसे व्यक्त करने के तरीके बदल जाते हैं !

तब असभ्यता नहीं थी ! उच्श्रन्खलता नहीं थी ! उद्दंडता नहीं थी और निर्लज्जता नहीं थी !

रिश्तों का सम्मान था ! छोटे बड़े का लिहाज़ था ! मर्यादा का मान था ! अनुशासन का ज्ञान था !

विरोध था लेकिन विद्रोह नहीं था ! असहमति थी लेकिन असभ्यता नहीं थी ! असंतोष था लेकिन जोड़ने और जुड़े रहने की भावना प्रबल थी ! गुस्से में यदि कभी मुँह खुल भी गया तो पश्चाताप भी था मानसिक अनुताप भी था ! झुकने से परहेज़ नहीं था ! माफी माँग लेने से कोई गुरेज़ नहीं था !

तुम्हारी छोटी छोटी भूलों और नादान शरारतों पर दूसरों के गुस्से से  
तुम्हें बचाने के लिए हम औरों से लड़ पड़ते थे ! अब औरों की
बड़ी बड़ी गलतियाँ और गुनाह छिपाने के लिए तुम हम से लड़ पड़ते हो !   

तुम्हारी हर छोटी से छोटी फरमाइश को पूरा करने के लिए मैंने लगभग हर रोज़ ओवरटाईम किया ! रोज़ रात को अपनी जेब खाली कर गिनता था कि तुम्हारे मुख की मुस्कान खरीदने के लिए अभी कितने रुपयों की ज़रुरत और है ! हिसाब तुम भी रोज़ लगाते हो कि आज दिन भर में मैंने चाय के कितने कप पिये और कितनी रोटियाँ अधिक बनानी पडीं ताकि गृहस्थी पर पड़े बोझ की चर्चा कर तुम मेरे मुख की मुस्कान छीन सको !

अब युग बदल गया है अब अपनी ही संतान अपने माता पिता से हिसाब माँगती है कि बचपन में उन्होंने अपने बच्चों के लिए क्या किया, कितना किया और जितना किया सिर्फ उतना ही क्यों किया ! माता पिता ने जो किया वह भी कैसे किया यह जानने की शायद उन्हें ज़रुरत ही नहीं !

लेकिन डंके की चोट पर दिन भर सबके सामने यह गाने और जतलाने में उन्हें कोई एतराज़ नहीं कि, भले ही महीने दो महीने ही सही, अपने वृद्ध, बीमार और असहाय माता पिता को ज़िंदा रखने की प्रक्रिया में उन्होंने कितना हाथ पैरों से काम किया और कितना धन व्यय किया !

जिन माता पिता ने जीवन भर संघर्ष कर अपना पेट काट अपनी हर इच्छा को मार बच्चों को सीने से लगा पैरों पर खड़ा कर दिया उनके वे ही दुलारे बच्चे उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी देर नहीं लगाते !

यह कलयुग है भाई यहाँ दूसरों की आँखों के तिनके गिनने के सब अभ्यस्त हैं लेकिन अपनी ही आँखों के शहतीर हटाना या तो उन्हें आता नहीं या वे इसकी ज़रुरत ही नहीं समझते !   


साधना वैद