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Friday, December 25, 2009

उलझन

अभी तक समझ नहीं पाई कि
भोर की हर उजली किरन के दर्पण में
मैं तुम्हारे ही चेहरे का
प्रतिबिम्ब क्यों ढूँढने लगती हूँ ?
हवा के हर सहलाते दुलराते
स्नेहिल स्पर्श में
मुझे तुम्हारी उँगलियों की
चिर परिचित सी छुअन
क्यों याद आ जाती है ?
सम्पूर्ण घाटी में गूँजती
दिग्दिगंत में व्याप्त
हर पुकार की
व्याकुल प्रतिध्वनि में
मुझे तुम्हारी उतावली आवाज़ के
आवेगपूर्ण आकुल स्वर
क्यों याद आ जाते हैं ?
यह जानते हुए भी कि
ऊँचाई से फर्श पर गिर कर
चूर-चूर हुआ शीशे का बुत
क्या कभी पहले सा जुड़ पाता है ?
धनुष की प्रत्यंचा से छूटा तीर
लाख चाहने पर भी लौट कर
क्या कभी विपरीत दिशा मे मुड़ पाता है ?
वर्षों पिंजरे में बंद रहने के बाद
रुग्ण पंखों वाला असहाय पंछी
दूर आसमान में अन्य पंछियों की तरह
क्या कभी वांछित ऊँचाई पर उड़ पाता है ?
मेरा यह पागल मन
ना जाने क्यूँ
उलझनों के इस भँवर जाल में
आज भी अटका हुआ है ।


साधना वैद

Saturday, December 19, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( अंतिम भाग )

( गतांक से आगे )
नीरा का मन अपने माता-पिता की उदारता पर अभिमान से भर उठा । अगले दिन की सुबह उसे और दिनों की अपेक्षा अधिक उजली लगी थी । छ: मास की दौड़ धूप और विज्ञापनों के अध्ययन के बाद माँ बाबूजी ने विश्वास में सौम्या के लिये उपयुक्त वर की सम्भावनायें तलाशने की कोशिश की थी । उसकी पहली पत्नी का स्वर्गवास प्रसव के समय हो गया था । छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के पास रहता था और घर में माता-पिता के अलावा एक छोटा भाई और था । सौम्या के विरोध के बावजूद भी माँ बाबूजी ने कलेजे पर पत्थर रख कर सौम्या का कन्यादान कर दिया इस आशा में कि वे उसके लिए अत्यंत सुन्दर, सुखद एवं मधुर दाम्पत्य जीवन के प्रवेश द्वार की कुण्डी खोल रहे हैं । लेकिन उनके सत्प्रयासों और निष्काम प्रत्याशाओं की परिणति ऐसी होगी यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा । विधि का यह कैसा विद्रूप था । नीरा का मन सुलग रहा था ।
सौम्या चाय लेकर आ गयी थी । “ भाभी तुमने झूठ क्यों लिखा था चिट्ठियों में ?”
नीरा का स्वर रुँधा हुआ था । सौम्या अब तक संयत हो चुकी थी । “ सच कैसे लिखती नीरा । माँ बाबूजी ने जिस आस और विश्वास के सहारे मुझे इन लोगों को सौंपा था वह तुम्हारे भैया की चिता की नींव पर बना था । उस विश्वास को कैसे तोड़ देती ! इस घर में माँ जी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी कि मैं यहाँ आऊँ । वे मुझे मनहूस समझती हैं, अच्छा व्यवहार तो उनका पहले भी नहीं था पर जबसे विमल का एक्सीडेंट हुआ है वे मुझे फूटी आँख देखना नहीं चाहतीं । “ ”और विश्वास भैया ? क्या वो भी आपका साथ नहीं देते ? आपका पक्ष नहीं लेते ?” नीरा का स्वर चिंतित था ।
“ पहले तो वो तटस्थ रहते थे लेकिन अब उनका भी रुख बदल गया है । बात-बात पर बिगड़ जाते हैं । घर में इतना तनाव रहता है कि वो भी हर समय खीजे से रहते हैं । सच तो यह है नीरा कि हमारा यह रिश्ता एक समझौता भर है । शायद हम दोनों ही ना तो एक दूसरे को स्वीकार कर पा रहे हैं और ना ही इस थोपे गये रिश्ते से बाहर निकलने का कोई मार्ग ढूँढ पा रहे हैं । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा नीरा कि मैं क्या करूँ । मेरी तो यही इच्छा थी कि तुम लोगों के स्नेह और सहानुभूति का सम्बल लेकर अपना सारा जीवन माँ बाबूजी की सेवा में वहीं समर्पित कर देती । तुम्हारे भैया ने भी चलते समय मुझसे यही वचन लिया था कि मैं उनके जाने के बाद माँ बाबूजी और तुम लोगों का जी जान से ध्यान रखूँगी । ‘ सौम्या फिर रो पड़ी थी शायद सुनील को याद करके । इस बार नीरा की आँखें भी बह चली थीं ।
“ फिर यह सब उल्टा-पुल्टा कैसे हो गया भाभी ? आपने माँ बाबूजी का विरोध क्यों नहीं किया ? “ “ कैसे करती नीरा ? किस अधिकार से अपना बोझ जीवन भर के लिये उनके बूढ़े कन्धों पर डाल देती । मेरे साथ दुर्भाग्य की जो आँधी उनके जीवन में भी आयी थी वह अगर मेरे बाहर निकल जाने से थम सकती थी तो अच्छा ही था ना । यही सोच कर मैंने इस निष्कासन को उनकी मुक्ति का उपाय मान कर स्वीकार कर लिया । “ नीरा सौम्या की गोद में मुँह छिपा कर बिलख पड़ी, “ माँ बाबूजी को तो पता भी नहीं है भाभी कि आप पर यहाँ क्या बीत रही है । “
” नीरा तुम्हें मेरी सौगन्ध है माँ बाबूजी से कुछ नहीं कहना । अगर उन्हें यह भ्रम बना रहे कि मैं यहाँ बहुत खुश हूँ और अगर इस तरह उनके दुख का सौवाँ हिस्सा भी कम हो रहा है तो इस निष्कासन में भी मेरे जीवन की कुछ तो सार्थकता है । मैं इसी में स्वयम को धन्य समझूँगी कि उनका थोड़ा दुख तो मैं बाँट सकी । “
” नहीं भाभी झूठ का सहारा लेकर उन्हें भ्रम में रखना उचित नहीं है । मैं उनसे कुछ भी छिपा नहीं पाउँगी । “ सौम्या ने नीरा का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया था, “नहीं नीरा मुझे वचन दो कि तुम माँ बाबूजी को कुछ भी नहीं बताओगी । तुम इस तरह मेरी तपस्या को भंग नहीं करोगी । ”
नीरा के मन पर मानो मन भर की शिला आ पड़ी थी । प्यालों में चाय ठंडी हो चुकी थी । आँखों में आँसू और भावोद्रेक का ज्वार थम गया था । नीरा के मन में घनघोर तूफान करवटें ले रहा था । सौम्या को इस तरह आत्मघात करने से वह कैसे रोके । उसे कुछ तो करना होगा जिससे नारी की इस रूढ़िवादी कहानी का अंत बदल जाये । उसके इस अबला स्वरूप की तस्वीर का रुख बदल जाये । सौम्या को किसी भी तरह से इस नर्क से निकालना होगा यह संकल्प उसकी चेतना पर हथौड़े की तरह अनवरत चोट कर रहा था ।
सौम्या ने धीरे से नीरा की बाँह पकड़ कर उसे हिलाया, “ नीरा मैं तो इन लोगों से अपमान सह कर पत्थर बन चुकी हूँ लेकिन तुम्हारा अपमान मैं नहीं सह पाउँगी । अब तुम जाओ नीरा और फिर दोबारा यहाँ कभी मत आना । मैं यही सोच कर संतोष कर लेती हूँ कि मैं जीते जी इस चिता में जल कर तुम्हारे भैया के प्रति अपना पत्नी धर्म निभा रही हूँ । “
“ हाँ भाभी जाना तो होगा लेकिन अकेले नहीं । “ नीरा ने कस कर सौम्या की कलाई पकड़ ली थी । उसके चेहरे पर दृढ़ निश्चय और वाणी में असाधारण ओज था । “ आप भी मेरे साथ चल रही हैं अभी और इसी वक़्त । आपको इस दशा में छोड़ कर अगर आज मैं चली गयी तो जीवन भर अपने आप से आँखें नहीं मिला पाउँगी । मैं जानती हूँ माँ बाबूजी भी मेरे इस फैसले से न केवल खुश होंगे बल्कि मुझ पर बहुत गर्व करेंगे । चलिये मेरे साथ । ज़रूरी काग़ज़ात उन्हें मथुरा से भेज दिये जायेंगे । “ और सौम्या को विरोध का कोई भी अवसर दिये बिना नीरा उसकी कलाई थाम सधे कदमों से घर के बाहर निकल गयी थी ।
समाप्त
साधना वैद

Friday, December 18, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( भाग – 3 )

( गतांक से आगे )
“ नीरा “ सौम्या की आवाज़ नीरा को विह्वल कर गयी । पीछे मुड़ कर देखा तो वाणी गूँगी हो गयी । यह सौम्या ही थी या उसकी परछाईं ! दुख की कालिमा से सँवलाया चेहरा, निस्तेज आँखें, दुर्बल काया । नीरा जैसे आसमान से नीचे आ गिरी । यत्न से सँवारा गया मेकअप और नयी चमचमाती साड़ी सौम्या के मुख की उदासी और दुर्बलता को छिपाने में अक्षम थे । पल भर सौम्या को एकटक देख नीरा सौम्या के गले से लिपट फफक पड़ी, “तुम्हें क्या हो गया है भाभी ! यह कैसी दशा बना रखी है अपनी ? “ सौम्या एकदम चुप थी । आँखों से अविरल मौन अश्रुधारा बह रही थी । नीरा फिर फूट पड़ी, “ तुमने तो लिखा था भाभी तुम बहुत खुश हो यहाँ । लेकिन तुम तो पहले से आधी रह गयी हो । “ सौम्या ने कस कर नीरा का मुख अपनी हथेली से दबा दिया । इस संकेत से नीरा कुछ समझ पाती इससे पहले ही सौम्या की सास का कर्कश स्वर गूँजा, “ भूखा जो मारते हैं हम उसे आधी नहीं होगी क्या ? ऐसी ही दुलारी थी तो निकाला क्यों था उसे अपने घर से ? जब से यहाँ आयी है नरक बना के रखा है घर को अभागी ने । अपनी माँ के घर में थी तो बाप को निगल गयी , पति के घर गयी तो पति को निगल गयी अब हमारा नसीब उजाड़ने आ गयी है यहाँ तो ना जाने किसकी बारी आ जाये । विमल तो पड़ा ही है दो महीनों से अस्पताल में । “ उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया ।
अति नाटकीय इस प्रसंग से नीरा के मस्तिष्क में छाया भ्रम का कुहासा सहसा छँट गया । उसने तीक्ष्ण दृष्टि सौम्या के मुख पर डाली । वह अपमान से थरथर काँप रही थी । नीरा को समझ में आ गया था सौम्या क्यों इतनी चुप, उदास और दुर्बल है । ऐसे माहौल में भला कोई साँस भी कैसे ले सकता है ! अब पल भर भी वहाँ रुकने की उसकी इच्छा नहीं थी लेकिन सौम्या बलपूर्वक हाथ पकड़ उसे अपने कमरे में ले गयी । दरवाज़ा अन्दर से बंद कर वह कटे वृक्ष की तरह नीरा की गोद में ढह गयी । देर तक जी भर कर रो लेने के बाद ही सौम्या कुछ बोल पाने के योग्य हो पाई, “ नीरा तुम लोगों ने क्यों मुझे इस घर में भेज दिया ? मैं वहीं तुम्हारे भैया के नाम के सहारे सारा जीवन माँ बाबूजी के चरणों में बिता देती । उसी में मेरा जीवन सार्थक हो जाता । इसी संसार में मैंने उस घर सा स्वर्ग और इस घर सा नर्क सब साथ-साथ भोग लिये हैं । वहाँ तुम सबने मुझे इतना प्यार दिया, मान-सम्मान दिया यहाँ मैं सबकी आँखों की किरकिरी हूँ । सब मुझसे कतराते हैं, घृणा करते हैं, मुझे मनहूस समझते हैं क्योंकि मेरे यहाँ आने के चन्द हफ्तों बाद ही विमल का सड़क दुर्घटना में पैर टूट गया और वह अभी तक अस्पताल में है । नीरा बोलो इसमें मेरा क्या दोष है ? क्या ये सारे दुर्योग मेरे मनोवांछित थे ? क्या इन सारे दुखद प्रसंगों का उत्तरदायित्व मेरा है ? “
नीरा स्तब्ध अवाक थी । सौम्या को सांत्वना देने के लिये उसके पास शब्द नहीं थे । कहाँ किससे भूल हो गयी ! क्या माँ बाबूजी ने जिस उदारता का परिचय दिया था वह इस परिणति के लिये ! क्या उनका यही इष्ट था ! नीरा का मन ऊहापोह में फँसा था । सौम्या चाय बनाने के लिये रसोईघर में चली गयी थी और नीरा फिर से अतीत की दुखद स्मृतियों के वन में भटक गयी थी ।
विमान दुर्घटना में सुनील भैया की आकस्मिक और असामयिक मृत्यु से उन लोगों के जीवन में घनघोर अंधकार छा गया था । माँ और बाबूजी बिल्कुल ही टूट गये थे । उनके तो जीवन का जैसे प्रयोजन ही समाप्त हो गया था । सौम्या दुख से कातर हो गयी थी । नीरा और अनिल को लगता था जैसे बगीचे में वसंत आते ही हिमपात हो गया हो । सारा परिवार अवसाद के गह्वर में आकण्ठ डूब गया था । तूफान में घिरी सौम्या की नाव बिना नाविक के हिचकोले खा रही थी । मायके में पिता भी नहीं थे । भाई सबसे छोटा था और सौम्या से छोटी दो बहनें और भी थीं जो अभी पढ़ रही थीं । बेटी के दुर्भाग्य ने माँ का सपना ही तोड़ दिया था । सौम्या को गले लगा कर वे फूट-फूट कर रो पड़ी थीं, “ जो किस्मत में लिखा है उसे कौन बदल सकता है बेटी पर अब यही तेरा घर है और ये ही तेरे माता-पिता हैं । इन्हीं को सदा अपना सहारा मानना और इनकी सेवा में ही अपना जीवन सार्थक करना । “
नीरा की माँ के मन में सहसा बिजली सी कौंध गयी । उसी रात नीरा जब आधी रात को पानी पीने के लिये उठी तो उसने सुना माँ बाबूजी से कह रही थीं, “ बहू के बारे में आपने कुछ सोचा ? अभी उसकी उम्र ही क्या है, कैसे काटेगी इतना बड़ा जीवन अकेले ? साल दो साल में नीरा भी शादी के बाद अपने घर चली जायेगी । हम लोग जीवन भर थोडे ही बैठे रहेंगे । फिर इस बेचारी का क्या होगा ? “
“ तुम ठीक कह रही हो नीरा की माँ ! “ पिताजी का गम्भीर स्वर सुनाई दिया, “ कुछ तो करना ही होगा । सोचता हूँ थोड़ा समय निकल जाने दो फिर अच्छा घरबार देख कर सौम्या का विवाह कर दिया जाये । हम समझ लेंगे ईश्वर ने हमें एक नहीं दो बेटियाँ दी हैं । उसका कन्यादान भी हम करेंगे । तुम उसका मन टटोल कर देखना । वह मान जायेगी तो हम लड़का देखना शुरू करेंगे । “ ( क्रमश: )

Thursday, December 17, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( भाग – 2 )

(गतांक से आगे)
सौम्या को बुलाने के लिये महिला घर के अन्दर चली गयी थी । नीरा व्यग्रता से उनके बाहर आने की प्रतीक्षा कर रही थी । तभी अन्दर से फिर वही स्वर सुनाई दिया, ” जाओ बाहर । मथुरा से आई हैं तुम्हारी ननद रानी तुमसे मिलने । यह हर वक़्त टसुए बहा-बहा कर न जाने किसका अपसगुन मनाया जाता है । हमारा तो जीना हराम कर दिया है । जरूर वहाँ भी कुछ लिखा होगा चिट्ठी पत्री में तभी ना हम लोगों की जासूसी करने चली आ रही हैं यहाँ । जरा हाथ मुँह धोकर कपड़े बदल कर जाना नहीं तो समझेंगी हम न जाने कौन सी आफतें तोड़ रहे हैं तुम पर । “
नीरा सर से पाँव तक काँप गयी । तो सौम्या भाभी को यह सब झेलना पड़ रहा है यहाँ । तो उनके वे पत्र क्या सिर्फ झूठ का पुलन्दा भर थे ? क्यों किया इतना छल सौम्या भाभी ने उनके साथ ? नीरा का मन आकुल हो उठा । अपनी सास के निर्देश का पालन कर सौम्या शायद तैयार होने में व्यस्त हो गयी थी इसीलिये अभी तक बाहर नहीं आयी थी । भावनाओं के आवेग पर काबू पाना अब मुश्किल था । दुपट्टे के पल्लू को मुँह में ठूँस वह बाहर गैलरी में जा खड़ी हुई और सड़क की रौनक में अपना मन लगाने की कोशिश करने लगी । पर मन बार-बार अतीत की वीथियों में उसे खींचे लिये जा रहा था ।
नीरा को याद आ रहे थे वे दिन जब सुनील भैया को फैलोशिप के लिये ऑक्स्फॉर्ड जाने का प्रस्ताव मिला था । खुशी के मारे घर में किसी के भी पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे । सुनील भैया की असाधारण प्रतिभा और उनके सुनहरे भविष्य के नशे के खुमार में सारा परिवार चूर-चूर था । नीरा जब भी अपनी सहेलियों से मिलती अपने सुनील भैया की प्रशंसा मे गर्व से सिर ऊँचा करके कशीदे से काढ़ती रहती । छोटे भाई अनिल ने तो अभी से लिस्ट बनाना शुरू कर दिया था कि उसे इंग्लैंड से क्या-क्या मँगवाना है भैया से जिन्हें दिखा कर वह अपने दोस्तों को चमत्कृत कर देना चाहता था । लेकिन माँ की एकमात्र इच्छा थी कि विदेश जाने से पहले भैया की शादी हो जाये । अपने देश की मिट्टी से जुड़ी परम्परावादी संस्कार वाली माँ को चिंता थी कि उनके भोले भाले बेटे को कहीं कोई विदेशी बाला अपने चंगुल में ना फँसा ले और उन्हें वहीं रहने को विवश ना कर दे इसीलिये वे बेटे के पैरों में बेड़ियाँ डाल देना चाहती थीं । पत्नी का बन्धन घर के अन्य सदस्यों के बन्धन से अधिक दृढ़ होता है इसे उनका अनुभवी मन खूब जानता था ।
सुनील भैया के जाने में केवल तीन माह का समय शेष रह गया था । भैया के लिये सचमुच युद्ध स्तर पर अपरूप सुन्दरी, सदगुणी लड़की की तलाश की जा रही थी । माँ बाबूजी का विचार था कि सौम्य, सुन्दर और सदगुणी लड़की अपने आप में सबसे बड़ा दहेज लेकर आती है अत: अन्य किसी दहेज की आवश्यक्ता नहीं थी । सुन्दर सजीले सुनील भैया, उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरपूर उनका सुनहरा भविष्य तथा दहेजरहित विवाह का प्रस्ताव विवाह योग्य कन्याओं के अभिभावकों को चुम्बकीय आकर्षण के साथ अपनी ओर खींच रहे थे और तभी ढेर सारे प्रस्तावों और तस्वीरों में से सौम्या का चुनाव किया गया था । स्वप्न सुन्दरी सी रूपवती सौम्या यथानाम तथागुण थी । सलज्ज, सुलक्षण, सम्वेदनशील, समझदार, बचपन से ही पितृसुख से वंचित रह जाने के कारण अतिरिक्त गम्भीर और अंतर्मुखी । विवाह से पूर्व जब नीरा माँ के साथ सौम्या को देखने गयी थी तो उसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण पहली ही भेंट में उसकी भक्त हो गयी थी ।
शादी के बाद सौम्या अपनी ससुराल में आ गयी थी और नीरा तथा अनिल के साथ इतनी घुलमिल गयी थी कि सबको अचरज होता था । सुनील आश्वस्त था कि इतनी समझदार पत्नी उसकी अनुपस्थिति में घर के सभी सदस्यों का बहुत ध्यान रखेगी । माँ बाबूजी आश्वस्त थे कि सौम्या के रूप में उन्होंने सुनील के पैरों में इतनी सुदृढ़ ज़ंजीर डाल दी है कि वह काम खत्म होते ही भागा-भागा स्वदेश वापिस आयेगा । नीरा और अनिल आश्वस्त थे कि सौम्या भाभी के साथ घर का वातावरण हमेशा स्निग्ध और मधुर तो रहेगा ही हल्का भी रहेगा और सौम्या आश्वस्त थी कि सुनील के विदेश जाने बाद विछोह के तीन वर्ष नीरा और अनिल के सुखद सान्निध्य में हँसते खेलते कट जायेंगे । सारा दिन घर में हास परिहास चुहलबाजी होती रहती और धमाल मचा रहता । माँ बाबूजी परम संतुष्ट मुग्धभाव से अपने सुख संसार के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हो बच्चों की इतना खुश देख विभोर होते रहते ।
तीन महीने का समय पलक झपकते ही निकल गया । सुनील भैया के ऑक्स्फॉर्ड जाने की घड़ी समीप आ गयी । और तभी वह काली रात आयी जो उनके सुख संसार को क्षण भर में छिन्न-भिन्न कर गयी । अतीत की वीथियों में खोयी नीरा उस अनिष्टकारी प्रसंग को याद कर सिहर गयी जब विमान दुर्घटना में सुनील भैया की मौत की मनहूस खबर उन्हें मिली थी ।

Wednesday, December 16, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( कहानी )

कॉल बेल का बटन दबाते समय नीरा के हृदय में बड़ी उथल पुथल हो रही थी – हो सकता है दरवाज़ा सौम्या भाभी ही खोलें या उनके पति विश्वास हों ! अगर कहीं सौम्या भाभी ही हुईं तो कैसे उनसे मिलूँगी ! कस के लिपट जाऊँगी उनसे । पिछले छ: महीनों में जो भावनायें मन में उमड़ती रही हैं मिलते ही सारी की सारी उनके सामने उड़ेल कर रख दूँगी । नीरा अधीर हो रही थी । कितना छटपटाई है वह इन बीते दिनों में सौम्या के सान्निध्य के लिये । शंकाओं ने फिर सिर उठाया – कहीं सौम्या भाभी यहाँ नहीं हुईं तो ? अगर हुईं भी तो क्या उनके पास वक़्त होगा उसकी बकवास सुनने के लिये ? उन्होनें लिखा था विश्वास उसे पल भर भी आँखों से दूर रखना नहीं चाहते और उनके सास ससुर तो सौम्या जैसी बहू को पाकर जैसे निहाल ही हो गये हैं । घर का हर सदस्य उसकी छोटी से छोटी इच्छा पूरी करने के लिये हमेशा तत्पर रहता है ।
नीरा का मन आशंकित हो उठा _ इतने प्यार दुलार मान सम्मान के बीच कहीं सौम्या भाभी बदल तो नहीं गयी होंगी ! उनकी रुखाई उनका ठण्डा फीका व्यवहार वह कैसे झेल पायेगी । पता नहीं वे घर पर होंगी भी या नहीं ! उन्होंने लिखा था विश्वास उन्हें टूर पर भी अपने साथ ले जाते हैं । वह तो सौम्या भाभी के अलावा अन्य किसी को यहाँ ठीक से जानती भी नहीं है । नीरा उद्विग्न हो उठी । उसे पूर्व सूचना दिये बिना यहाँ इस तरह नहीं आना चाहिये था । तरह-तरह के प्रश्न मन में उठ रहे थे । धड़कते दिल से उसने बटन दबा ही दिया और अपने भावोद्रेक पर भरसक नियंत्रण कर दरवाज़ा खुलने की प्रतीक्षा करने लगी ।
अन्दर से कुण्डी खुलने की आवाज़ आई और द्वार खुलते ही एक प्रौढ़ महिला का चेहरा सामने दिखाई दिया । नीरा के चेहरे पर उचटती सी दृष्टि डाल उन्होंने रूखे स्वर में पूछा, ” कहिये! किससे मिलना है ? “
स्वर के तीखेपन से नीरा हत्प्रभ हो गयी उसे लगा अचानक उसकी आवाज़ जैसे कहीं खो सी गयी है । मस्तिष्क में सन्नाटा छा गया । प्रश्न के प्रत्युत्तर में वास्तव में उसे सोचना पड़ गया कि वह यहाँ क्यों आयी है । यत्न करने पर विचारों का सूत्र पकड़ में आया । स्वर के कम्पन पर किसी तरह नियंत्रण कर उसने धीरे से कहा ,
” नमस्ते आण्टीजी! मैं सौम्या भाभी से मिलने आई हूँ । वे घर पर हैं क्या ? “
“ सौम्या भाभी ..! कहाँ से आयी हो ? अच्छा-अच्छा तुम क्या मथुरा से आई हो ? आओ अन्दर आओ । घर पर ही हैं तुम्हारी सौम्या भाभी । बैठो बुलाती हूँ अभी । “
’तुम्हारी सौम्या भाभी ‘ इस तरह की व्यंगोक्ति का कोई औचित्य और प्रयोजन नीरा की समझ में नहीं आया । भाषा में कोई दोष नहीं था लेकिन मात्र स्वरों के उतार चढ़ाव से कैसे किसी को घायल किया जा सकता है इस कला में वे भलिभाँति निष्णात लगीं । नीरा सहसा बचैन हो उठी । उसे यहाँ नहीं आना चाहिये था लेकिन सौम्या भाभी से मिलने की उत्कण्ठा और अपने नये घर परिवार में उनको रचा बसा देखने का मोह् उसे यहाँ तक खींच लाया । प्रौढ़ महिला की तीक्ष्ण दृष्टि और वाणी की चोट से असहज हो सहमते हुए नीरा ने कमरे में प्रवेश किया । सौम्या की सास से नीरा का यह प्रथम परिचय था ।
( क्रमश: )

Tuesday, December 15, 2009

आशा

जीवन की दुर्गमता मैंने जानी है ,
अपनों की दुर्जनता भी पहचानी है ,
अधरों के उच्छ्वास बहुत कह जाते हैं ,
निज मन की दुर्बलता मैंने मानी है ।
पर साथ तेरा पा अनुभव जब विपरीत हुए
मौन अधर ने खुलना चाहा तेरे लिये ।

टूट गये विश्वास , आस्था की माला ,
जला गयी संसार द्वेष की इक ज्वाला ,
जीवन के सब रंग हुए बेरंग , बचा
दुख, दर्द, घृणा, अवसाद, व्यथा का रंग काला ,
ऐसे में जब घायल तन को तूने छुआ
बन्द पलक ने खुलना चाहा तेरे लिये ।

जली शाख पर कली एक मुस्काई है ,
दूर तेरे आँचल की खुशबू आयी है ,
कहीं क्षितिज पर सूरज कोई चमका है ,
कहीं अंधेरा चीर रोशनी आयी है ,
भावों का उन्माद बहक कर उमड़ा है
गीत हृदय ने रचना चाहा तेरे लिये ।

साधना वैद

Thursday, December 10, 2009

तुम्हें आना ही होगा

ओ मनमोहन !
द्वापर के उस कालखण्ड से बाहर आओ
कलयुग के इस मानव वन में
भूले भटके क्लांत पथिक को राह दिखाओ ।
ओ मुरलीधर !
अधिकारों के प्रश्न खड़े हैं
काम बन्द है , सन्नाटा है
ऐसे नीरव मौन पलों में
बंद मिलों के सारे यंत्रों को थर्रा दे
ऐसी प्रेरक मंजुल मधुर बाँसुरी बजाओ ।
ओ नटनागर !
यमुना तट पर महारास के रासरचैया
कलयुग के इस थके रास को भी तो देखो
आज सुदामा अवश निरंतर नाच रहा है
भग्न ताल पर गिरते पड़ते बाल सखा को
निज बाहों का सम्बल देकर प्राण बचाओ ।
ओ नंदलाला !
उस युग में ग्वालों संग कौतुक बहुत रचाये
इस युग के बालों की भी थोड़ी तो सुध लो
बोझा ढोते और समय से पूर्व बुढ़ाते
भूखे प्यासे इन बच्चों को
माखन रोटी दे इनका बचपन लौटाओ ।
ओ गिरिधारी !
दुश्चिंताओं की निर्दय घनघोर वृष्टि में
आज आदमी गले-गले तक डूब रहा है
तब भी गिरिधर तुमने सबकी रक्षा की थी
अब भी तुम छिंगुली पर पर्वत धारण कर लो
सुख के सूरज की किरणों से जग चमकाओ ।
पार्थसारथी कृष्णकन्हैया !
उस अर्जुन की दुविधा तुमने खूब मिटाई
आज करोड़ों अर्जुन दुविधाग्रस्त खड़े हैं
इनकी पीड़ा से निस्पृह तुम कहाँ छिपे हो ?
आज तुम्हें इस तरह तटस्थ ना रहने दूँगी
रुक्मणी के आँचल में यूँ छिपने ना दूँगी
यह लीला जो रची तुम्हीं ने तुम ही जानो
इनके दुख का कारण भी तुम ही हो मानो
इनकी रक्षा हेतु तुम्हें आना ही होगा
गीता का संदेश इन्हें सिखलाना होगा
निष्काम कर्म का पाठ इन्हें भी आज पढ़ा दो
धर्म अधर्म की शिक्षा देकर ज्ञान बढ़ा दो
कृष्णा ज्ञान सुधा बरसा कर सावन कर दो
अपनी करुणा से तुम सबको पावन कर दो ।

साधना वैद

Wednesday, December 9, 2009

न दिल में ज़ख्म न आँखों में ख्वाब की किरचें

न दिल में ज़ख्म न आँखों में ख्वाब की किरचें
फिर किस गुमान पे इतने दीवान लिख डाले
तमाम उम्र जब इस दर्द को जिया मैने
तब कहीं जाके ये छोटी सी ग़ज़ल लिखी है ।

साधना वैद

Saturday, December 5, 2009

मिड डे मील और जाँच के आदेश

आजकल अखबारों में खराब मिड डे मील का मामला सुर्खियों से छाया हुआ है । खराब, बासी, दूषित, कंकड़युक्त और दुर्गंधपूर्ण खाने की अंतहीन शिकायतों के साथ अभिभावकों और विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाएं भी विचारणीय हैं । आज 5 दिसम्बर 2009 के दैनिक जागरण में पृष्ठ 2 पर एक छात्र का पत्र पढ़ने योग्य है । समाचार पत्र की लिंक दे रही हूँ
www.jagran.com

लेकिन पाठकों की सुविधा के लिये मैं यहाँ पर इस पत्र को उद्धृत करना चाहूँगी ।
“मैडम, पुरानी शिकायतें दिखवा लें
बीएसए मैडम. यह् पत्र लिखने वाला एक परिषदीय स्कूल का छोटा सा छात्र है । मैडम हम मिड डे मील में कैसा खाना खाते हैं, यह आपको जागरण ( अखबार )से पता चल ही गया होगा । मुझे भी पता चला है कि आपने मामले की एक रिपोर्ट तलब की है । परंतु छोटा होने पर भी मैं एक सवाल उठा रहा हूँ कि जाँच के तो अक्सर आदेश हो जाते हैं, रिपोर्ट माँग ली जाती है परंतु आखिर कार्यवाही कितने मामलों में होती है ? आपकी नेकनीयती पर हमें बिल्कुल संदेह नहीं परंतु यदि कार्यवाही करना चाहती हैं तो पूर्व में आई शिकायतों की फाइल शनिवार को ही लाल फीते से बाहर निकलवा लें । इसके बाद एक तरफ से कार्यवाही कर दें । हाँ, भोजन की और खराब क्वालिटी में कितना सुधार हुआ यह फिर देखने के लिये किसी भी दिन शहरी और देहात क्षेत्र के किसी भी स्कूल में निरीक्षण फिर कर लें । बच्चे आपके बड़े आभारी होंगे । “ उपरोक्त पत्र मिड डे मील की योजनाओं और उनके कार्यान्वयन की प्रक्रिया की त्रुटियों की ओर बरबस ही सबका ध्यान आकृष्ट करता है । क्या जाँच के आदेश देकर अधिकारी अपना पल्ला झाड़ सकते हैं ? क्या ऐसी शिकायतें पहली बार आयी हैं ? अगर पहले भी आयी हैं तो उन पर कब और क्या कार्यवाही हुई क्या जनता को, जिनमें बच्चे व उनके अभिभावक भी शामिल हैं, इस बारे में जानकारी देने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती है ? आखिर कब तक ये भ्रष्ट नेता और अधिकारी आम जनता के स्वास्थ्य और उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे ? जाँच के आदेश देने का मतलब है कि दोषी व्यक्तियों को राहत दे दी जाये और उन्हें अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालने और लीपापोती करने के लिये समय दे दिया जाये ताकि वे सारे सबूत मिटा सकें और अपनी गर्दन बचा सकें । जाँच का ऐसा ढोंग करने का औचित्य क्या है ?
इस बात पर विचार करने की बहुत आवश्यक्ता है कि बच्चों को गरम भोजन ही देने की क्या ज़रूरत है ? यदि आप लोग भूले नहीं होंगे तो दक्षिण भारत के एक स्कूल में बच्चों के लिये खाना बनाते वक्त भयंकर आग लग गयी थी जिसमें कई बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था । ऐसी विरली दुर्घटनाओं को छोड़ भी दिया जाये तो गरम खाने के नाम पर जिस तरह का घटिया खाना वर्तमान में बच्चों को दिया जा रहा है क्या वह उचित है ? कंकड़ और कीड़ेयुक्त दुर्गंधपूर्ण दलिया और दूध की जगह पानी में पकाई गयी खीर देना क्या बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना नहीं है ?
गरम भोजन के स्थान पर बच्चों को अच्छे स्तर का अधिक कैलोरीयुक्त पैक्ड खाना क्यों नहीं दिया जाता जिनमें उस पैकेट क़े खाद्य पदार्थ के बारे में सभी जानकारी उपलब्ध होती है ? ऐसे पैकेट्स के वितरण पर कोई सवाल नहीं उठेंगे और उन्हें बाँटने में भी सुविधा होगी । अच्छे स्तर के बिस्किट्स, पाउडर मिल्क के पाउच , चकली और चिक्की इत्यादि के पैकेट्स इसमें शुमार किये जा सकते हैं । इन पदार्थों की बेंच लाइफ भी अधिक होती है तो इनका भंडारण भी आसानी से किया जा सकता है और स्कूलों में रसोई बनाने के ताम झाम से भी मुक्ति मिल सकती है । यदि अच्छी कम्पनियों से सम्पर्क किया जायेगा तो वे बच्चों के लिये सब्सीडाइज़्ड दामों पर छोटे पैक़ेट्स में अपने यहाँ के उत्पाद अवश्य उपलब्ध कराने में सहयोग करेंगे और बच्चे भी प्रसन्नतापूर्वक इनका आनंद उठायेंगे । बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं और दुर्बल कंधों पर हम कितना भार डाल सकते हैं कभी यह भी सोचा है आपने ?

साधना वैद

Friday, December 4, 2009

कुछ आपबीती कुछ जगबीती ( एक कविता )

पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को किस तरह से विषम परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना पड़ा है । रूढिवादी रस्मों रिवाज़ और परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े होने के बावज़ूद भी जीवनधारा के विरुद्ध प्रवाह में तैरते हुए किस तरह से उसने आधुनिक समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है , अपनी पहचान पुख्ता की है यह कविता स्त्री की हर हाल में जीत हासिल करने की उसी अदम्य जिजिविषा को अभिव्यक्ति देने की छोटी सी कोशिश है ।



तुम क्या जानो

रसोई से बैठक तक ,
घर से स्कूल तक ,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !

करछुल से कलम तक ,
बुहारी से ब्रश तक ,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !

मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक ,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक ,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !

जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !

सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !

आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर निखर कर
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय अपराजेय दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !

साधना वैद

Thursday, December 3, 2009

तुमसे कुछ भी नहीं चाहिये ।

नयनों ने बह-बह कर कितनी सींची धरती ,
आहों ने ऊपर उठ कितना जल बरसाया ,
भावों ने मथ अंतर कितने खोदे कूँए ,
क्योंकर इसका लेखा जोखा तुमको दूँ मैं ।
यह दौलत तो मेरी, बस केवल मेरी है
मुझे तुम्हारी साझेदारी नहीं चाहिये ।

मैंने टूटे इंद्रधनुष गिरते देखे हैं ,
सपनों की गलियों में दुख पलते देखे हैं ,
तारों के संग उड़ते अगणित पंछी के दल
पंखहीन नभ से भू पर गिरते देखे हैं ।
मैंने अपना लक्ष्य और पथ ढूँढ लिया है
मुझे तुम्हारी दूरदर्शिता नहीं चाहिये ।

तुमने कब मेरे सच का विश्वास किया है,
मेरे हर संवेदन का परिहास किया है ,
मेरी आँखों ने जो देखा जाना परखा
तुमने तो केवल उसका उपहास किया है ।
अपने सच की उँगली थाम मुझे जीने दो
मुझे तुम्हारी सत्यधर्मिता नहीं चाहिये ।

मेरा सच वो सच है जिसको जग जीता है ,
सत्य तुम्हारा वैभव के पीछे चलता है ,
मेरा सपना है सबकी आँखों का सपना ,
स्वप्न तुम्हारा धन दौलत तुमको फलता है ।
देखूँ निज प्रतिबिम्ब स्वेद के दर्पण में मैं
मुझे तुम्हारी दुनियादारी नहीं चाहिये ।

साधना वैद

Monday, November 30, 2009

विरासत

आज मैं पूर्णत: जागृत और सचेत हूँ !
घर आँगन में उगे अनजाने, अनचीन्हे, अदृश्य
कैक्टसों के असंख्यों विषदंशों ने
मुझे हर क्षण, हर पल
एक तीव्र पीड़ा के साथ झकझोर कर जगाया है
और हर चुभन के साथ मेरी मोहनिंद्रा भंग हुई है ।
उस अभिशप्त आँगन में
मेरा पर्यंक आज भी रिक्त पड़ा हुआ है ।
तुम चाहो तो उस पर सो लेना ।

आज मैं सर्वथा प्रबुद्ध और शिक्षित हूँ !
बाल्यकाल से ही जिन संस्कारों, आदर्शों और मूल्यों को
अनमोल थाती मान सगर्व, सोल्लास
अपने आँचल में फूलों की तरह समेट
मैं अब तक सहेजती, सम्हालती, सँवारती रही
वर्तमान संदर्भों में वे
निरे पत्थर के टुकड़े ही तो सिद्ध हुए हैं
जिनके बोझ ने मेरे आँचल को
तार-तार कर छिन्न-विच्छिन्न कर दिया है !
आज भी घर के किसी कोने में
मेरी साड़ी का वह फटा आँचल कहीं पड़ा होगा
तुम चाहो तो उसे सी लेना ।

आज मुझे सही दिशा का बोध हो गया है !
भावनाओं की पट्टी आँखों पर बाँध
टूटे काँच की किरचों पर नंगे पैर अथक, निरंतर, मीलों
जिस डगर पर मैं चलती रही
उस पथ पर तो मेरी मंज़िल कहीं थी ही नहीं !
लेकिन आज भी उस राह पर
रक्तरंजित, लहूलुहान मेरे पैरों के सुर्ख निशान
अब भी पड़े हुए हैं
तुम चाहो तो उन पर चल लेना ।

आज मेरी आँखों के वे दु:स्वप्न साकार हुए हैं
जिन्हें मैंने कभी देखना चाहा ही नहीं !
कहाँ वे पल-पल लुभावने मनोरम सपनों में डूबी
मेरी निश्छल, निष्पाप, निष्कलुष आँखें !
कहाँ वो बालू को मुट्ठी में बाँध
एक अनमोल निधि पा लेने के बाल सुलभ हर्ष से
कँपकँपाते मेरे अबोध हाथ !
कहाँ वो दिग्भ्रमित, दिशाहीन
हर पल मरीचिकाओं के पीछे
मीलों दौड़ते थके हारे मेरे पागल पाँव !
और कहाँ इन सारी सुकुमार कल्पनाओं में
झूठ के रंग भरते
पल-पल बहलाते, भरमाते, भावनाओं से खिलवाड़ करते
आडम्बरपूर्ण वक्तव्यों के वो मिथ्या शब्द जाल !
इन सारी छलनाओं के अमिट लेख
अग्निशलाकाओं से आज भी
मेरे हृदय पटल पर खुदे हुए हैं
तुम चाहो तो उन्हें पढ़ लेना ।

साधना वैद

Saturday, November 28, 2009

किताब और किनारे

वह एक किताब थी ,
किताब में एक पन्ना था ,
पन्ने में हृदय को छू लेने वाले
भीगे भीगे से, बहुत कोमल,
बहुत अंतरंग, बहुत खूबसूरत से अहसास थे ।
आँखे बंद कर उन अहसासों को
जीने की चेष्टा कर ही रही थी कि
किसीने हाथ से किताब छीन कर
मेज़ पर पटक दी ।
मन आहत हुआ ।
चोट लगी कि
किताबों पर तो औरों का हक़ भी हो सकता हैं !
उनमें संकलित भावनायें अपनी कहाँ हो सकती हैं !
कहाँ जाऊँ कि मन के उद्वेग को शांति मिले !
इसी निराशा में घिरी मैं जा पहुँची नदी के किनारे ।
सोचा प्रकृति तो स्वच्छंद है !
उस पर कहाँ किसी का अंकुश होता है !
शायद यहाँ नदी के निर्मल जल में
मुझे मेरे मनोभावों का प्रतिबिम्ब दिखाई दे जाये !
पर यह क्या ?
किनारों से बलपूर्वक स्वयम को मुक्त करता हुआ
नदी का प्रगल्भ, उद्दाम, प्रगाढ़ प्रवाह्
बहता जा रहा था पता नहीं
किस अनाम, अनजान, अनिर्दिष्ट मंज़िल की ओर
और किनारे असहाय, निरुपाय, ठगे से
अपनी जड़ों की जंजीरों से बँधे
अभागे क़ैदियों की तरह्
देख रहे थे अपने प्यार का इस तरह
हाथों से छूट कर दूर होते जाना ।
और विलाप कर रहे थे सिर पटक कर
लेकिन रोक नहीं पा रहे थे नदी के बहाव को ।
मन विचलित हुआ ।
मैंने सोचा इससे तो बंद किताब ही अच्छी है
उसने कितनी घनिष्टता के साथ
अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को,
अपने सबसे नर्म नाज़ुक अहसासों को
सदियों के लिये
अपने आलिंगन में बाँध कर रखा है !
ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
पतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।

साधना वैद

Thursday, November 26, 2009

यह साल भी आखिर बीत गया

26/11//08 को मुम्बई में हुए आतंकी हमले की बरसी के अवसर पर उन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए यह कविता प्रस्तुत कर रही हूँ जिन्होंने देश के लिये प्राण न्यौछावर करने में एक पल भी नहीं गंवाया और मातृभूमि के प्रति अपना ऋण चुका कर अपने जीवन को सफल कर लिया |

यह साल भी आखिर बीत गया ।
कुछ खून बहा, कुछ घर उजड़े,
कुछ कटरे जल कर राख हुए,
कुछ झीलों का पानी सूखा,
कुछ सुर बेसुर बर्बाद हुए ।
कुछ माचिस से कुछ गोली से
जल जीवन का संगीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ आँचल फट कर तार हुए,
कुछ दिल ग़म से बेज़ार हुए,
कुछ बहनों की उजड़ी माँगें,
कुछ बचपन से लाचार हुए ।
मौसम तो आये गये बहुत
दहशत का मौसम जीत गया ।

यह साल भी आखिर बीत गया ।

कुछ लोगों ने जीना चाहा
कुछ जानों का सौदा करके,
कुछ लोगों ने मरना चाहा
कुछ सिक्कों का सौदा करके ।
कुछ वहशत से कुछ नफरत से
खुशियों का हर पल रीत गया ।
यह साल भी आखिर बीत गया ।

सभी शहीदों को मेरा भावभीना नमन !

साधना वैद

Sunday, November 22, 2009

गवाही

आज मैंने जागी आँखों
एक भयावह दु:स्वप्न देखा है !
बोलो क्या तुम मेरे उस कटु अनुभव को बाँट सकोगे ?
पिघलते सीसे सी उस व्यथा कथा की
तेज़ धार को काट सकोगे ?

मैने यथार्थ के निर्मम बीहड़ में
नंगे पैरों दौड़ते लहुलुहान
उसके दुधमुँहे सुकुमार सपनों को देखा है ।

मैंने निराशा के अंधड़ में यहाँ वहाँ उड़ते
उसकी योजनाओं के डाल से टूटे हुए
सूखे पत्तों को देखा है ।

मैंने दर्द के दलदल में आकण्ठ डूबी
उसकी महत्वाकांक्षाओं की
घायल नियति को देखा है ।

मैंने कड़वाहट के तपते मरुथल में
जिजीविषा की मरीचिका के पीछे भटकते
उसकी अभिलाषाओं के जीवित शव को देखा है ।

मैने नफरत के सैलाब में
अपने मूल्यों की गहरी जड़ों से विच्छिन्न हो
उसे क्षुद्र तिनके की तरह बहते देखा है ।

मैंने उसे संशय और असमंजस के
दोराहे पर खड़े हो अपनी अंतरात्मा के
विक्रय पत्र पर हस्ताक्षर करते देखा है ।

मैंने कुण्ठाओं के अवगुण्ठन में लिपटी
सहमती झिझकती सिसकती
उसकी मूर्छित चेतना को देखा है ।

मैंने ज़रूरतों के लौहद्वार पर दस्तक देती
उसकी बिकी हुई अंतरात्मा का उसीके हाथों
पल-पल तिल-तिल मारा जाना देखा है ।

मैंने आदर्शों के चटके दर्पण में
उसके टूटे हुए व्यक्तित्व का
दरका हुआ प्रतिबिम्ब देखा है ।

मैने आज एक मसीहा को
मूल्यों से निर्धन इस समाज की बलिवेदी पर
अपनी मर्यादा की बलि देते देखा है ।
अपनी आत्मा का खून करते देखा है ।

क्या मेरी यह चश्मदीद गवाही
समाज की अन्धी न्यायव्यवस्था के
बहरे नियंताओं के कानों में जा सकेगी ?

क्या मेरी यह गवाही
उस बेबस लाचार मजबूर इंसान की झोली में
इंसाफ के चन्द टुकड़े डलवा सकेगी ?


साधना वैद

Saturday, November 21, 2009

उदास शाम

सागर का तट मैं एकाकी और उदासी शाम
ढलता सूरज देख रही हूँ अपलक और अविराम ।

जितना गहरा सागर उतनी भावों की गहराई
कितना आकुल अंतर कितनी स्मृतियाँ उद्दाम ।

पंछी दल लौटे नीड़ों को मेरा नीड़ कहाँ है
नहीं कोई आतुर चलने को मेरी उंगली थाम ।

सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
दूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम ।

बाहर भी तम भीतर भी तम लुप्त हुई सब माया
सुनती हूँ दोनों का गर्जन निश्चल और निष्काम ।

कोई होता जो मेरे इस मूक रुदन को सुनता
कोई आकर मुझे जगाता बन कर मेरा राम।

साधना वैद

Wednesday, November 18, 2009

वर्षा

चंचल चुलबुली हवा ने
जाने बादल से क्या कहा
रुष्ट बादल ज़ोर से गरजा
उसकी आँखों में क्रोध की
ज्वाला रह रह कर कौंधने लगी ।
डरी सहमी वर्षा सिहर कर
काँपने लगी और अनचाहे ही
उसके नेत्रों से गंगा जमुना की
अविरल धारा बह चली ।
नीचे धरती माँ से
उसका दुख देखा न गया ,
पिता गिरिराज हिमालय भी
उसकी पीड़ा से अछूते ना रह सके ।
धरती माँ ने बेटी वर्षा के सारे आँसुओं को
अपने आँचल में समेट लिया
और उन आँसुओं से सिंचित होकर
हरी भरी दानेदार फसल लहलहा उठी ।
पिता हिमालय के शीतल स्पर्श ने
वर्षा के दुखों का दमन कर दिया
और उसके आँसू गिरिराज के वक्ष पर
हिमशिला की भाँति जम गये
और कालांतर में गंगा के प्रवाह में मिल
जन मानस के पापों को धोकर
उन्हें पवित्र करते रहे।

साधना वैद

सम्भल के रहना अपने घर में ----

अपने बचपन की यादों के साथ देश प्रेम और देश भक्ति के जो चन्द गाने आज भी ज़ेहेन में गूँजते हैं उनके सम्मोहन से इतने वर्षों बाद आज भी मुक्त हो पाना असम्भव सा लगता है । संगीत के सूक्ष्म गुण दोषों के पारखी महान संगीतकारों के लिये हो सकता है ये गीत अति सामान्य और साधारण गीतों की श्रेणी में शुमार किये जायें लेकिन बालमन पर इनका प्रभाव कितना स्थायी और अमिट होता था यह मुझसे बढ़ कर और कौन जान सकता है । “ दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल “, “ आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिन्दुस्तान की “ ,“ सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा “ , जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा “ ऐसे ही और भी ना जाने कितने गीत थे जिनको सुनते ही मन गर्व से भर उठता था और आँखे भावावेश से नम हो जाया करती थीं । उन्ही दिनों एक गीत और बहुत लोकप्रिय हुआ था जो वर्तमान समय में जितना सामयिक और प्रासंगिक है उतना शायद उन दिनों में भी नहीं होगा । वह गीत है _ “ कहनी है एक बात हमें इस देश के पहरेदारों से सम्भल के रहना अपने घर में छिपे हुए ग़द्दारों से “ । इस गाने की सीख को हम क्यों भुला बैठे ? यदि हमने इस बात पर ग़ौर किया होता तो आज हमारे देश को ये छिपे हुए ग़द्दार इस तरह से खोखला नहीं कर पाते ।
समाचार पत्र और टी वी के सभी न्यूज़ चैनल आतंकवादियों के नये-नये कारनामों और भारत के समाज और सरज़मीं पर उनकी गहरी जड़ों के वर्णन से रंगे रहते हैं । लेकिन क्या कभी कोई इस पर विचार करता है कि कैसे ये आतंकवादी ठीक हमारी नाक के नीचे इतने खतरनाक कारनामों को अंजाम दे लेते हैं और हम बेबस लाचार से इनके ज़ुल्म का शिकार हो जाते हैं और प्रतिकार में कुछ भी नहीं कर पाते । इसकी सिर्फ एक वजह है कि यहाँ चप्पे-चप्पे पर उनके मददगार बैठे हुए हैं जो उनकी हर तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं , उनकी ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं और अपने देश और देशवासियों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं । कोई उनको नकली पासपोर्ट बनाने में मदद कर रहा है, तो कोई उनको सैन्य गतिविधियों और संवेदनशील ठिकानों की जानकारी उपलब्ध करा रहा है, तो कोई उन्हें अपने घर में शरण देकर उनका आतिथ्य सत्कार कर रहा है और उन्हें अपने नापाक इरादों को पूरा करने देने के लिये अवसर प्रदान कर रहा है तो कोई उन्हें उनकी आवश्यक्ता के अनुसार हथियार और विस्फोटकों की आपूर्ति कर रहा है । जैसे कि वे कोई आतंकवादी नहीं हमारे कोई अति विशिष्ट सम्मानित अतिथि हैं । और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे “ मेहमान नवाज़ “ समाज के निचले वर्ग में ही नहीं मिलते ये तो समाज के हर वर्ग में व्याप्त हैं । नेता हों या अभिनेता , सैनिक अधिकारी हों या प्रशासनिक अधिकारी , प्राध्यापक हों या विद्यार्थी , धर्मगुरू हों या वैज्ञानिक , कम्प्यूटर विशेषज्ञ हों या वकील , सेना या पुलिस के जवान हों या ढाबों और चाय की दुकानों पर काम करने वाले ग़रीब तबके के नादान कर्मचारी जिनमें दुर्भाग्य से अबोध बच्चे भी शामिल हैं , सब अपने छोटे-छोटे व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये अवसर पाते ही देश के साथ ग़द्दारी करने से पीछे नहीं हटते । फिर चाहे कितने ही निर्दोष लोगों की जान चली जाये या देश की फ़िज़ा में कितना ही ज़हर क्यों ना घुल जाये । इनके अंदर का भारतवासी मर चुका है । ये सिर्फ लालच का एक पुतला भर हैं जिन्हें ना तो देश से प्यार है ना देशवासियों से । किसी को पैसों का लालच है तो किसीको धर्म के नाम पर गुमराह किया जाता है । अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबा ये अपने विदेशी आकाओं की बीन पर नाचने के लिये मजबूर हो जाते हैं ।
विदेशों से आये आतंकवादियों की खोजबीन में जितनी कसरत कवायद की जाती है उसकी आधी भी यदि घर के भेदी इन “ विभीषणों “ को पहचानने में और उन पर कड़ी कार्यवाही करने में लगाई जाये तो आधी से ज़्यादह समस्या खुद ही समाप्त हो जायेगी और आतंकवादियों की जड़ें ढीली हो जायेंगी क्योंकि इनकी मदद के बिना बाहर से आये विदेशी आतंकवादी आसानी से घुसपैठ कर ही नहीं सकते । जब तक स्थानीय लोगों का साथ और सहयोग इन दुर्दांत आतंकवादियों को मिलता रहेगा इनके हौसले बुलन्द रहेंगे और मुम्बई, दिल्ली, गुजरात और हैदराबाद जैसी भीषण काण्ड घटित होते रहेंगे । अनेकों निर्दोष लोगों की बलि चढ़ती रहेगी और अनगिनत घर परिवार उजड़ते रहेंगे ।
सवाल यह उठता है कि देश का कामकाज चलाने के लिये और लोगों की सुरक्षा के लिये जिन ज़िम्मेदार व्यक्तियों को यह काम सौंपा है यदि वे ही अपने कर्तव्यपालन से चूक जाते हैं या बेईमानी पर उतर आते हैं तो आम आदमी किसके पास जाये अपनी फरियाद लेकर ? ऐसी स्थिति में हमें स्वयम ही खुद को सबल , समर्थ और सक्षम करना होगा । मेरा सभी भारतवासियों से निवेदन है कि सजग रहिये, सतर्क रहिये, चौकन्ने रहिये अपनी आँखे और कान खुले रखिये, यदि कोई भी संदेहास्पद गतिविधि या व्यक्ति आपकी नज़र में आते हैं तो उसे अनदेखा मत करिये और अपने देश को ऐसे ग़द्दारों के हाथों खोखला होने से बचाइये । देश को तोड़ने वालों की कमी नहीं है । आज ज़रूरत है देश को जोड़ने वालों की । उसे एकता के सूत्र में पिरोने वालों की । आज अपने देश की पहरेदारी के लिये हमें खुद कमर कस कर तैयार रहना होगा और इन छिपे हुए ग़द्दारों से अपने देश को बचाना होगा । अपने कर्तव्य को पहचानिये और मातृभूमि के प्रति अपने ऋण को चुकाने से पीछे मत हटिये । अशेष शुभकामनाओं के साथ आप सभी को मेरा जय भारत ! जय हिन्दोस्तान !

साधना वैद

Thursday, October 22, 2009

कुछ तो करूँ

थी चाह्त उजालों की मुझको बहुत
अँधेरा जगत का मिटाना जो था ।
दिये तो जलाये थे मैने बहुत
एक शमा रौशनी की जला ना सकी ।
थी चाहत कि महकाऊँ सारा चमन
बहा दूँ एक खुशबू का दरिया यहाँ ।
बगीचे लगाये थे मैने बहुत
एक कली प्यार की भी खिला ना सकी ।
था रस्ता कठिन दूर मंज़िल बहुत
थी चाह्त कि तुम साथ देते मेरा
सदायें तो पहुँचीं बहुत दूर तक
एक तुम्हें पास ही से बुला ना सकी ।
मैं कुछ तो करूँ कि अन्धेरा मिटे
मेरे चार सूँ ज़िन्दगी मुस्कुराये ।
मिटे दिल की नफरत खिलें सुख की कलियाँ
मोहब्बत की खुशबू चमन को सजाये ।
हो दिल में सुकूँ और लबों पर तराने
खुशी की लहर से जहाँ जगमगाये ।
हर एक आँख में एक उजली किरन हो
हर एक लफ्ज़ उल्फत का पैग़ाम लाये ।
अकेली हूँ मैं तुम चलो साथ मेरे
है मुश्किल डगर अब चला भी ना जाये ।
है हसरत यही कि मैं जब भी पुकारूँ
मेरी एक सदा पर जहाँ साथ आये |

साधना वैद

Friday, October 2, 2009

बी.पी.एल. से नीचे रहने वालों के लिये आवासीय योजना में गम्भीर भूलें

भारत में जनसंख्या की अधिकता की वजह से आवासीय समस्या बहुत गम्भीर होती जा रही है । गाँवों की अपेक्षा शहरों में यह समस्या और अधिक विकराल रूप धारण कर चुकी है । इस समस्या का दुष्परिणाम भारत की ग़रीब जनता को सबसे अधिक भोगना पड़ता है क्योंकि रोज़गार की तलाश में अपना घर छोड़ कर शहरों की ओर पलायन करना उनकी विवशता है और इस कारण रहने के लिये उचित व्यवस्था के ना होने से उन्हें अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है । समय समय पर प्रदेश की सरकार तथा केंद्र सरकार ने ग़रीबी की रेखा से नीचे रहने वाले भारतीयों के लिये आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने के असफल प्रयास किये हैं लेकिन वे मकान अंतत: या तो घोटालेबाजों की भेंट चढ़ गये या केवल काग़ज़ों में ही सिमट कर रह गये और कभी यथार्थ में आकार नहीं ले सके । इन योजनाओं के क्रियान्वयन में कई गम्भीर भूलें संज्ञान में आती हैं जिनको निजी स्वार्थों के कारण सम्बन्धित अधिकारियों के द्वारा या तो जानबूझ कर नज़र अन्दाज़ किया गया है या यह उनकी अदूरदर्शिता का ज्वलंत उदाहरण हैं ।
ग़रीब जनता को सस्ते मकान मिल सकें या उन्हें कम दरों पर सस्ते भूमि के टुकड़े मिल सकें इसके लिये सरकार ने कई योजनायें लागू कीं लेकिन उनके त्रुटिपूर्ण होने की वजह से उनका लाभ ऐसे लोगों ने उठाया जो किसी भी तरह से इसके अधिकारी नहीं थे । व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते उन व्यक्तियों तक तो योजना की सूचना सही तरीके से पहुँची ही नहीं जो वास्तव में इसके हक़दार थे । प्लॉट्स के आवंटन में अनेकों धाँधलियाँ हुईं जैसे पैसे और रुतबेदार लोगों के नाते रिश्तेदार फर्ज़ी नामों का सहारा लेकर ग़रीबों के लिये सुरक्षित की गयी ज़मीन हथियाने में कामयाब हो गये । जो स्थान ग़रीबों की रिहाइशी मकानों के लिये सुरक्षित किये गये थे उन स्थानों पर ग़रीबों के लिये मकान बनाने की जगह शॉपिंग मॉल या बहुमंज़िला इमारतें बन गयीं । कुछ भाग्यशाली लोग जो प्लॉट या ज़मीन खरीदने में कामयाब हो गये वे उन्हें अधिक समय तक अपने पास रोक नहीं पाये । मकान खरीदने की कोशिश में अपनी सारी जमा पूँजी खर्च कर देने के बाद किसी को दाल रोटी के भी लाले पड़ गये तो किसी को अपना कर्ज़ उतारने के लिये धन की आवश्यक्ता हो गयी । क़िसी को इलाज के लिये पैसों की ज़रूरत थी तो किसीको घर में बहन बेटी के ब्याह के लिये धन जुटाने की ज़रूरत आन पड़ी । ऐसे में उनके पास सबसे सहज सुलभ विकल्प इन मकानों या ज़मीन का ही था जो उन्होंने सस्ते दरों पर सरकार से खरीदे थे । भू माफियाओं ने इनकी मजबूरी का फायदा उठाया और थोड़े से ज़्यादह पैसे देकर इनके मकान और प्लॉट्स इनसे खरीद लिये । इस प्रकार मकानों और ज़मीन का मालिकाना हक़ ग़रीबों को दे देना दूसरी सबसे बड़ी भूल साबित हुई । ग़रीबों की इस मजबूरी का फायदा भी पैसे वाले रुतबेदार लोगों ने उठाया और उनके हिस्से की ज़मीन औने पौने दामों में भूमाफियाओं के अधिग्रहण में चली गयी । जिन थोड़े से लोगों ने अपने मकान नहीं बेचे उन्हें लालच देकर या डरा धमका कर उनकी ज़मीनें और मकान हथिया लिये गये और यह सारा तमाशा सरकारी अधिकारी तटस्थ भाव से चुपचाप देखते रहे क्योंकि इस सारे तमाशे को देखने की कीमत उनके लिये कोई और अदा कर रहा था ।
जनता को राहत देने की सरकार की सारी कोशिशें इस तरह नाकामयाब नहीं होतीं यदि थोड़ी सी दूरदर्शिता और समझदारी से काम लिया जाता । ग़रीबों के हित में काम करना बहुत अच्छी बात है । लेकिन यह नहीं भूलना चाहिये कि ग़रीब और मजबूर व्यक्ति के पास यदि पैसे प्राप्त करने का छोटे से छोटा भी विकल्प होगा तो वह बिना सोचे समझे उसे इस्तेमाल कर लेगा । भारत जैसे ग़रीब देश में जहाँ चन्द रुपयों के लिये लोग अपनी संतान तक बेच डालते हैं वहाँ घर क्या चीज़ है । होना यह चाहिये कि सस्ते मकान बना कर सरकार को ग़रीब लोगों को न्यूनतम किराये पर उन्हें रहने के लिये देना चाहिये । वे जब तक चाहें वहाँ रह सकें लेकिन उन्हें बेचने या अन्य किसीको किराये पर देने का हक़ उन्हें नहीं होना चाहिये । यदि कोई मकान छोड़ कर जाना चाहे तो वह मकान किसी और को आवंटित किया जा सके यह प्रावधान होना चाहिये । अपनी मेहनत और बुद्धिबल से यदि कोई इतनी तरक्की कर लेता है कि वह ग़रीबी की रेखा से ऊपर निकल जाता है तो उसे इन मकानों को छोड कर जाने के लिये कहा जा सकता है । ग़रीबों के लिये बनाये जाने वाले इन मकानों में सभी बुनियादी आवश्यक्ताओं का ध्यान रखा जाना चाहिये लेकिन ये मज़बूत, सदगीपूर्ण और सस्ते होने चाहिये । मकान जितने मँहगे बनाने की कोशिश की जायेगी भ्रष्टाचार के लिये उतने ही रास्ते खुलेंगे । मकानों के पास बच्चों के लिये पार्क, स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधायें समीप ही उपलब्ध हों इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिये ।
ग़रीबी की रेखा से नीचे रहने वाली जनता के पास जब बिना किसी बाधा के रहने के लिये मकान की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी तो वह तनावरहित होकर एकाग्र चित्त से अपने काम पर ध्यान केन्द्रित कर सकेगा । भूमाफियाओं का भय भी उसे नहीं होगा और अनधिकृत भू अधिग्रहण की समस्या से भी छुटकारा मिल सकेगा । शहर के विकास की योजना में भी इस तरह की अवांछनीय निर्माण की बाधायें सामने नहीं आयेंगी और भारत के शहर भी दर्शनीय हो जायेंगे ।
साधना वैद

Thursday, October 1, 2009

सोचती हूँ

सोचती हूँ
जो आँसू तुमने मुझे दिये
उन्हें एक दिन में बहा देना तो सम्भव नहीं
इसलिये एक सागर अपने मन में ही
क्यों ना रच लूँ ।
सोचती हूँ
जो दु:ख तुमने मुझे दिये
उन्हें एक पल में उतार फेंकना तो मुमकिन नहीं
इसलिये एक हिमालय अपने अंतर में ही
क्यों ना समेट लूँ ।
सोचती हूँ
जो यादें तुमने मुझे दीं
उन्हें पल भर में फूँक मार कर बुझा देना तो आसाँ नहीं
इसलिये एक ज्वालामुखी अपने हृदय में ही
क्यों ना प्रज्ज्वलित कर लूँ ।
सोचती हूँ
जो दंश तुमने मुझे दिये
उनकी चुभन से मुक्ति मिलना तो सम्भव नहीं
इसलिये पैने कैक्टसों का एक बागीचा अपने दिल में ही
क्यों ना खिला लूँ ।
चाहती हूँ
काश तुम जान पाते
तुमसे मिली इन छोटी छोटी दौलतों ने
मुझे कितना समृद्ध कर दिया है
कि मैं इस सारी कायनात को अपने अंतर में समेटे
जन्म जन्मांतर तक ऐसे ही जीती रहूँगी ।
काश तुम भी तो कभी पीछे मुड़ कर देखते
कि इस तरह से दौलतमन्द होने का अहसास
कैसा होता है ।


साधना वैद

Monday, September 14, 2009

टुकड़ा टुकड़ा आसमान

अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?

साधना वैद

Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस – आत्म चिंतन की महती आवश्यक्ता

शिक्षक दिवस पर उन सभी विभूतियों को मेरा हार्दिक नमन और अभिनन्दन है जिन्होंने विद्यादान के पावन कर्तव्य के निर्वहन के लिये अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया । नि:सन्देह रूप से यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और वन्दनीय कार्य है एवम् इसे वही कर सकता है जो पूर्ण रूप से निर्वैयक्तिक हो चुका हो और जिसने अपने जीवन का ध्येय ही अनगढ़ पत्थरों को तराश कर अनमोल हीरों में परिवर्तित कर देने का बना लिया हो । जैसे एक मूर्तिकार कच्ची माटी को गूँध कर अनुपम मूर्तियों का निर्माण करता है उसी तरह एक सच्चा शिक्षक बच्चों के मन मस्तिष्क की कोरी स्लेट पर पुस्तकीय ज्ञान के अलावा अच्छे संस्कार और उचित जीवन मूल्यों की परिभाषा इतनी गहराई से उकेर देता है जिसे जीवन पर्यंत कोई मिटा नही पाता । एक समाजोपयोगी व्यक्तित्व का बीजारोपण एक शिक्षक बालक के मन में बचपन में ही कर सकता है यदि यह लक्ष्य उसकी प्राथमिकताओं में शामिल हो ।
वर्तमान परिदृश्य में समर्पण का ऐसा भाव विरले महापुरुषों में ही देखने को मिलता है । आज के युग में शिक्षक सरस्वती के उपासक नहीं रह गये हैं वे तो अब लक्ष्मी की तरफ अधिक आकृष्ट हो गये हैं । शिक्षा का क्षेत्र अब व्यावसायिक हो गया है और शिक्षादान अब धनोपार्जन का अच्छा विकल्प माना जाने लगा है । शिक्षक और छात्रों में परस्पर सम्बन्ध भी अब उतने पावन और वात्सल्यपूर्ण नहीं रह गये हैं जितने होने चाहिये । वरना दण्ड देने के नाम पर बच्चों के साथ अमानवीयता की हद तक अत्याचार करने के प्रसंग सामने नहीं आते । मेरा आज का यह आलेख ऐसे ही शिक्षकों को समर्पित है जो पूरा वेतन तो वसूल कर लेते हैं लेकिन बच्चों को पढ़ाने के लिये कभी स्कूल नहीं जाते , जो बच्चों के साथ हद दर्ज़े की बदसलूकी करते हैं और उनका निजी हितों के लिये शोषण करने से ज़रा भी नहीं हिचकते , जो बच्चों के लिये दी गयी अनुदान राशि को खुद हड़प कर जाते हैं और जिन्हें बच्चों को बासी , विषाक्त भोजन खिलाते समय ईश्वर का भय भी नहीं सताता ।
क्या ऐसे शिक्षक सचमुच नमन के योग्य हैं ? क्या आज शिक्षक दिवस के दिन ऐसे शिक्षकों को चिन्हित करके उनकी सार्वजनिक रूप से भर्त्सना नहीं की जानी चाहिये ? वास्तव में शिक्षकों के आदरणीय वर्ग में कुछ ऐसे अपवाद भी घुलमिल गये हैं जिनकी अनुचित हरकतों ने सबकी छवि को धूमिल किया है ।
मेरी ऐसे शिक्षकों से विनम्र विनती है कि वे अपने कर्तव्यों को पहचानें , जिन बच्चों के व्यक्तित्व और भविष्य को सँवारने का दायित्व उन्होने स्वयम लिया है उसे पूरा करें । बच्चे बहुत कोमल होते हैं अपने शिक्षक पर उनकी अगाध श्रद्धा और विश्वास होता है इस विश्वास का वे मान रखें और कभी इसे कलंकित ना होने दें । बच्चों को इतना प्यार , इतना भरोसा और निर्भयता का वातावतण दें कि वे उनके सान्निध्य में स्वयम को सबसे सुरक्षित , सुखी और आश्वस्त महसूस करें । उन्हें अपने शिक्षक से डर ना लगे , वे बेझिझक अपने मन की गुत्थियों को उनके सामने खोल सकें और उनके सुझाये समाधानों को अपना सकें ।
आज का दिन अपने अंतर में झांकने का दिन है । आप ईमानदारी से अपने क्रियाकलापों का विश्लेषण कीजिये क्या शिक्षक दिवस के इस पवित्र दिन पर आप वास्तव में उन श्रद्धा सुमनों को पाने के योग्य हैं जिन्हें अगाध विश्वास, प्यार और भक्तिभाव के साथ आपके विद्यार्थी आपको समर्पित करते हैं ? यदि नहीं तो यही दिन है जब आप यह संकल्प ले सकते हैं कि आप इन श्रद्धासुमनों को पाने की पात्रता स्वयम में अवश्य अर्जित् करेंगे और शिक्षक तथा विद्यार्थी के पवित्र रिश्ते को कभी कलंकित नहीं होने देंगे ।
साधना वैद

Tuesday, August 25, 2009

क्या यह आत्मघात नहीं है ?

स्वप्न नींदों मे,
अश्रु नयनों में,
गुबार दिल में ही
छिपे रहें तो
मूल्यवान लगते हैं यह माना ।
भाव अंतर में,
विचार मस्तिष्क में,
शब्द लेखनी में ही
अनभिव्यक्त रहें तो
अर्थवान लगते हैं यह भी माना ।
पर इतनी ज्वाला,
इतना विस्फोटक
हृदय में दबाये
खुद से बाहर निकलने के
सारे रास्ते क्यों बन्द कर लिये हैं ?
क्या यह आत्मघात नहीं है ?

Sunday, August 9, 2009

अतिथि देवो भव

हमारी भारतीय संस्कृति की यह परम्परा रही है कि हम अपने अतिथियों को देवतुल्य मानते हैं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनके स्वागत सत्कार और अभ्यर्थना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते । अतिथियों के साथ सज्जनता से व्यवहार करना, उनकी आवश्यक्ताओं को समझ कर उनको पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहना, उनके मान सम्मान और उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखना और उनके लिये यथा सम्भव एक सुखद और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण उपलब्ध कराना ही अब तक हमारी सर्वोपरि प्राथमिकता रही है और आज भी होनी चाहिये । यही संस्कार बचपन से हमें हमारे माता पिता देते आये हैं और स्कूलों में भी यही शिक्षा अब तक हमें अपंने गुरुजनों से मिली है ।
वर्तमान संदर्भ में ये अवधारणायें अपना औचित्य खोती हुई प्रतीत होती हैं । कहीं न कहीं मूल्यों का विघटन इतनी बुरी तरह से हुआ है कि विश्व बिरादरी के सामने हमें अक्सर शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ता है । सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत एक अत्यंत वैभवशाली और समृद्ध देश है । यहाँ के छोटे से छोटे गाँव या कस्बे से भी अतीत के गौरव की अनमोल गाथायें गुँथी हुई हैं । यहाँ के कण-कण में पर्यटकों को लुभाने और मोहित कर लेने की अद्भुत क्षमता है । हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत एक विकासशील देश है और यहाँ की अर्थ व्यवस्था में पर्यटन व्यवसाय का बहुत अधिक महत्व है । यदि हम अपने देश में आने वाले पर्यटकों का विशिष्ट ध्यान रखें उन्हें भारत भ्रमण के समय सम्पूर्ण निष्ठा और सद्भावनापूर्ण सहयोग के साथ उनकी सहायता करें तो इस व्यवसाय की आय में चार चाँद लग सकते हैं । लेकिन होता बिल्कुल इसके विपरीत है । मैं विश्व प्रसिद्ध ताजनगरी आगरा में रहती हूँ और पर्यटन व्यवसाय से जुड़े सभी व्यक्तियों को आत्मावलोकन के लिये यह बताना चाहती हूँ कि हम अपने अतिथियों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं इस पर चिंतन करने की महती आवश्यक्ता है । ज़रा ध्यान दें – पर्यटक रेल से या बस से नगर में जैसे ही प्रवेश करते हैं लपके जोंक की तरह उनसे चिपट जाते हैं और कभी कभी तो पर्यटक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ में खींचतान करने से भी पीछे नहीं हटते । यदि आगंतुक पर्यटक का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित है तो अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिये वे अशोभनीय और आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करने से खुद को रोक नहीं पाते । पर्यटक भले ही कहे हुए वाक्य का शाब्दिक अर्थ ना समझ पायें लेकिन लपकों की भाव भंगिमा और आवाज़ के उतार चढ़ाव से उन्हें समझने में ज़रा भी देर नहीं लगती कि उनके लिये कैसी अपमांजनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है और नगर में प्रवेश के साथ ही उनका मन खट्टा हो जाता है । पर्यटकों के मार्गदर्शन के लिये जो पुस्तिकायें छपती हैं उनमें भी इन लपकों से सावधान रहने की हिदायतें दी गयी हैं । क्या हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिये कि ये लपके किसकी शह पर क्रियाशील रहते हैं और इनके व्यवहार पर नियंत्रण लगाने के लिये क्या प्रयास किये जा रहे हैं ? ज़बर्दस्ती कर अपने वाहन से ले जाने की ज़िद करना, फिर अपनी पसन्द के होटल में ठहरने के लिये विवश करना, अपने कमीशन बँधे हस्त शिल्प के शो रूम्स से खरीदारी करने के लिये मजबूर करना, जैसे कृत्य तो हम भारवासियों के लिये अति सामान्य और सर्व साधारण द्वारा मान्यता प्राप्त हो गये हैं लेकिन बाहर से आने वाले अतिथि अवश्य इस प्रकार के अभद्र आचरण से असंतुष्ट और रुष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार की अप्रत्याशित मेहमाननवाज़ी से वे सकते में आ जाते हैं । सड़कों पर गली मोहल्लों के अशिक्षित बच्चे उन्हें अश्रवणीय और अकथनीय भाषा में तरह तरह के नामों से पुकार कर उनका मज़ाक बनाते हैं, स्मारकों पर जहाँ जूते उतारना अनिवार्य हो जाता है अक्सर उनके कीमती जूते चोरी हो जाते हैं, पर्यटकों के हाथों से उनके बैग और कैमरे छीन लिये जाते हैं, महिलाओं के साथ छेड़खानी की जाती है यहाँ तक कि कई बार उनके साथ यौन शोषण और बलात्कार की घटनायें भी संज्ञान में आई हैं । हमारे शहर में आकर वे अपना रुपया पैसा और सभी कीमती सामान गँवा कर बड़ी परेशानी में फँस जाते हैं । इस पर क्या पर्यटकों की संख्या में आने वाली कमी की शिकायत करने का हमारा कोई नैतिक आधार बनता है ? क्या इस तरह के आचरण पर अंकुश लगाने की हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती ? अगर हम ग़लत आचरण को रोक नहीं सकते तो उसकी वजह से होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिये भी हमें तैयार रहना चाहिये । आखिर इस घर के मेजबान भी तो हमीं हैं । जैसा आतिथ्य सत्कार हम अपने अतिथियों को देंगे वैसा ही प्रतिदान हम उनसे पायेंगे ।
इन सबके अलावा कभी हम अपने शहर की स्वच्छता और साज सज्जा की तरफ भी ध्यान देते हैं ? जगह-जगह पर गन्दगी और कूड़े के ढेर सड़कों पर सजे रहते हैं । मच्छर और मक्खियों का बोलबाला है । शहर की एकाध विशिष्ट सड़क को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश सड़कें टूटी-फ़ूटी और छोटे-बड़े गड्ढों से आच्छादित हैं । पर्यटक मलेरिया और हैजे के डर से शहर में घुसने से भी डरते हैं । गन्दगी के ढेर उनके सौंदर्य बोध को ग्रहण लगाते हैं और वे जान छुड़ा कर यहाँ से भागना चाहते हैं । क्या हम इस सबको रोकने के लिये कोई प्रयत्न कर रहे हैं ?
हमारा प्रशासन और पुलिस कितनी कार्यकुशल और तत्पर है यह तो सभी जानते हैं । इन समस्याओं से जूझने के लिये हमें स्वयं अपनी कमर कसनी होगी । पर्यटन व्यवसाय से जुड़े सभी उद्यमियों और संगठनों को एक समानांतर फौज खड़ी करनी होगी जो इस तरह के कुकृत्यों पर अंकुश लगा सके और इस प्रकार की असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को दण्डित कर एक भयमुक्त वातावरण की रचना कर सके । शहर की साफ सफाई के लिये नगरपालिका पर निर्भर रहने की बजाय सफाई कर्मियों को संगठन स्वयम नियुक्त करे और उन्हें अच्छा वेतन देकर उनसे अच्छा काम ले । सभी ऐतिहासिक इमारतों और पर्यटकों की रुचि के स्थलों के आस-पास नियमित रूप से डी डी टी और मक्खी मच्छरों को मारने के लिये उपयुक्त दवाओं का छिड़काव किया जाये । ताकि पर्यटकों को बीमार होने का अंदेशा ना रहे ।
यदि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को साकार करना है तो इस विचार को भी आत्मसात करना होगा कि विश्व के हर देश के लोग हमारे सगे सम्बन्धी हैं और हमें उन्हें वही आदर मान देना होगा जो हम अपने सगे सम्बन्धियों को देना चाहते हैं । तभी हमारे देश का गौरव बढ़ेगा, पर्यटकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि होगी, कमर टूटते पर्यटन व्यवसाय को भी सहारा मिलेगा और साथ ही देश की अर्थ व्यवस्था में भी कुछ सुधार आयेगा ।

साधना वैद

Monday, July 20, 2009

हमारे शहरों के रेल मार्ग सुन्दर क्यों नहीं हो सकते ?

मुझे यात्रा करने का बड़ा शौक है, वह भी रेल से । रास्ते में मिलने वाले जंगल, पहाड़, नदियाँ, तालाब, खेत, खलिहान सभी मुझे बहुत लुभाते हैं । लेकिन जैसे ही रेल किसी शहर या कस्बे के पास आने को होती है खिड़की के बाहर टँगी मेरी चिर सजग आँखे संकोच और शर्मिंदगी से खुद ब खुद बन्द हो जाती हैं । इसकी केवल एक ही वजह है कि जैसे ही रेल किसी भी रिहाइशी इलाके में प्रवेश करती है वहाँ की गन्दगी और नज़ारा देख वितृष्णा से मन कसैला हो जाता है । यह समस्या वैसे तो पूरे भारत में ही पसरी हुई है लेकिन विशेष रूप से पंजाब , हरियाणा, उत्तर प्रदेश व बिहार में अधिक विकट है । जिस तरह से हम अपने हवाई अड्डों को विश्वस्तरीय बनाने के लिये प्रयत्नशील हैं , अपने शहर के सड़क मार्गों को भी साफ सुथरा और आकर्षक बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं वैसे ही हम अपने रेल मार्ग को सुन्दर बनाने की कोशिश क्यों नहीं करते ? जबकि यथार्थ रूप में अधिकांश शहरों में सड़क मार्ग से आने वालों की तुलना में रेल मार्ग से आने वाले यात्रियों की संख्या कहीं अधिक होती है । फिर रेल मार्ग के प्रति इतनी उपेक्षा क्यों ? क्या उसके द्वारा आने वाले यात्री और अतिथि हमारे शहर के लिये कोई महत्व नहीं रखते या फिर हमारे शहर या गाँव के प्रति बनाई हुई उनकी धारणा कोई अर्थ नहीं रखती ? आगंतुकों के स्वागत सम्बन्धी बोर्ड्स और पोस्टर्स सड़क मार्ग पर तो कभी कभी दिखाई भी दे जाते हैं लेकिन रेल मार्ग से गुजरने वाले अतिथियों को यह सम्मान नसीब नहीं हो पाता । रेल के द्वारा शहर में प्रवेश करने वाले मेहमानों को स्टेशन पर पहुँचने से पहले किस प्रकार के अशोभनीय दृश्य और गन्दगी से दो चार होना पड़ता है इस ओर हमारा ध्यान कभी नहीं जाता । किसी भी आबादी वाले हिस्से के आने से पूर्व कम से कम डेढ़ दो किलो मीटर पहले से रेल यात्रियों को खुले में शौच जाने वाले लोगों के निर्लज्ज एवम अशोभनीय दृश्यों से न चाहते हुए भी दो चार होना पड़ता है । समूचा मार्ग गन्दगी और दुर्गन्ध से भरा होता है । हमारे शहरों के नागरिक और रेल प्रशासन इस नारकीय स्थिति को सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाते ।
रेलवे स्टेशन के आस पास के रिहाइशी इलाकों में प्रयोग के लिये अनेक शौचालयों का निर्माण कराया जाना चाहिये जिनके नि:शुल्क प्रयोग के लिये आम जनता को प्रोत्साहित करने के लिये सभी सार्थक प्रयास किये जाने चाहिये । इसके लिये सुलभ इंटरनेशनल वालों के अनुभवों और ज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है । घनी आबादी के बीच से जहाँ रेल मार्ग गुजरते हैं उसके दोनों तरफ छोटी बड़ी निजी सम्पत्तियों के जो मालिक इस अभियान में सहयोग करें उन्हें टैक्स आदि में रियायत देकर प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ।
रेल मंत्रालय के पास ना तो संसाधनों की कमी है ना ही रेलवे फ्रण्ट के सौंदर्यीकरण के लिये अधिक खर्च की आवश्यक्ता है । थोड़ी सी सफाई और खूब सारी हरियाली ही तो चाहिये । क़्या ऐसा नहीं हो सकता कि जो शहर और कस्बे अपने रेलवे फ्रण्ट को सुन्दर रखें उन्हें प्रति माह रेलवे कुछ नगद पुरस्कार दे । इस पुरस्कार राशि में पर्यटन विभाग तथा केन्द्र व राज्य की सरकारें भी चाहें तो भागीदार बन सकती हैं । इस प्रयास को और अधिक व्यापक रूप से प्रचारित करने के लिये रेल मंत्रालय द्वारा अंतर्शहरी प्रतियोगितायें भी आयोजित कराई जा सकती हैं जिससे नागरिकों को एक अच्छे काम के लिये प्रोत्साहित किया जा सके । आशा है नई रेल मंत्री सुश्री ममताजी इस दिशा में भी विचार करेंगी और रेल मार्गों के सौंदर्यीकरण की दिशा में सार्थक कदम उठायेंगी ।
साधना वैद

Tuesday, July 14, 2009

पता नहीं क्यों

पता नहीं क्यों
पलकों मे बंद तुम्हारी छवि
मेरी आँखों में चुभ सी क्यों जाती है ?
पता नहीं क्यों
तुमसे जुड़ी हर बात
छलावे के प्रतिमानों की याद क्यों दिला जाती है ?
पता नहीं क्यों
तुमसे जुड़ी हर याद
गहराई तक अंतर को खरोंच क्यों जाती है ?
पता नहीं क्यों
तुमसे मिलने के बाद
आस्था अपना औचित्य खो क्यों बैठी है ?
पता नहीं क्यों
तुमसे मिले हर अनुभव के बाद
विश्वास की परिभाषा बदली सी क्यों लगती है ?
पता नहीं क्यों
तुमसे बिछुड़ने के बाद
हार की टीस की जगह जीत का दर्द क्यों सालता है ?
पता नहीं क्यों
तुम्हें देखने की तीव्र लालसा के बाद भी
आँखे खोलने से मन क्यों डरता है ?
पता नहीं क्यों
सालों पहले तुम्हारे दिये ज़ख्म
पर्त दर पर्त आज तक हरे से क्यों लगते हैं ?
पता नहीं क्यों
जीवन के सारे अनुत्तरित प्रश्न
उम्र के इस मुकाम पर आकर भी
अनसुलझे ही क्यों रह जाते हैं ?
पता नहीं क्यों .....
साधना वैद

Monday, July 13, 2009

कसक

कैसा लगता है
जब गहन भावना से परिपूर्ण
सुदृढ़ नींव वाले प्रेम के अंतर महल को
सागर का एक छोटा सा ज्वार का रेला
पल भर में बहा ले जाता है ।
क़ैसा लगता है
जब अनन्य श्रद्धा और भक्ति से
किसी मूरत के चरणों में झुका शीश
विनयपूर्ण वन्दना के बाद जब ऊपर उठता है
तो सामने न वे चरण होते हैं और ना ही वह मूरत ।
क़ैसा लगता है
जब शीतल छाया के लिये रोपा हुआ पौधा
खजूर की तरह ऊँचा निकल जाता है
जिससे छाया तो नहीं ही मिलती उसका खुरदरा स्पर्श
तन मन को छील कर घायल और कर जाता है ।
कैसा लगता है
जब पत्तों पर संचित ओस की बूंदों की
अनमोल निधि हवा के क्षणिक झोंके से
पल भर में नीचे गिर धरा में विलीन हो जाती हैं
और सारे पत्तों को एकदम से रीता कर जाती हैं ।

साधना वैद

Monday, July 6, 2009

माँ

रात की अलस उनींदी आँखों में
एक स्वप्न सा चुभ गया है ,
कहीं कोई बेहद नर्म बेहद नाज़ुक ख़याल
चीख कर रोया होगा ।

सुबह के निष्कलुष ज्योतिर्मय आलोक में
अचानक कालिमा घिर आयी है ,
कहीं कोई चहचहाता कुलाँचे भरता मन
सहम कर अवसाद के अँधेरे में घिर गया होगा ।

दिन के प्रखर प्रकाश को परास्त कर
मटियाली धूसर आँधी घिर आई है ,
कहीं किसी उत्साह से छलछलाते हृदय पर
कुण्ठा और हताशा का क़हर बरपा होगा ।

शिथिल शाम की अवश छलकती आँखों में
आँसू का सैलाब उमड़ता जाता है ,
कहीं किसी बेहाल भटकते बालक को
माँ के आँचल की छाँव अवश्य मिली होगी ।

साधना वैद

Friday, June 19, 2009

क्या कोई सुन रहा है ?

आगरा में राष्ट्रीय राजमार्ग पर मृत जानवरों के अंगों से चर्बी निकाल कर देशी घी बनाया जा रहा था और उसे धड़ल्ले से मशहूर ब्राण्ड्स के नकली रैपर लगा कर सालों से बाज़ार में बेचा जा रहा था लेकिन हमारी पुलिस और प्रशासन किसी को कानोंकान खबर भी ना हुई आश्चर्य होता है । फिर किसी तरह मामला संज्ञान में आया भी तो जिस त्वरित गति से उस पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है वह बेहद शर्मनाक है ।
जिस दिन से इस घिनौने कृत्य के बारे में पता चला है उसी दिन से अधिकारियों के द्वारा इस पर लीपापोती कर मामले को दबाने की कोशिश की जा रही है । सबूतों के साथ कोई छेड़ छाड़ ना हो सके इसके लिये ज़रूरत थी कि कारखाने को सील कर दिया जाता और सूक्ष्म निरीक्षण परीक्षण के लिये सारे सामान को ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाता । लेकिन यहाँ तो उल्टी गंगा ही बहती है । कारखाने को सील करने के बजाय उस पर बुलडोज़र चलाकर उस जगह को मैदान में तब्दील कर दिया और सारे सबूत मिटा डाले । इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना कार्यवाही के लिये कौन जवाब देगा ? किसके आदेश से वहाँ बुलडोज़र चलाया गया ? क्या उस अधिकारी को कोई दण्ड मिलेगा ? कारखाना किसका था , किसके वरद हस्त के नीचे वह इस जघन्य काण्ड को बेखौफ चला पा रहा था , उसके इस गुनाह में कौन विशिष्ट लोग उसके भागीदार थे क्या इन रहस्यों से पर्दा उठेगा ? इस विषय पर सारे अधिकारी मौन क्यों साधे हुए हैं ? आखिर किसे बचाने के लिये सारी मशक्कत की जा रही है ? वैसे तो मीडिया तिल का ताड़ बनाने में माहिर है लेकिन इस मामले में वह भी दबे स्वरों में दिन भर में एकाध संक्षिप्त समाचार देकर चुप्पी साध लेता है ?
समाज को भयमुक्त और अपराधमुक्त बनाने के मुख्यमंत्री जी के दावे कहाँ गये ? आगरा आजकल आये दिन होने वाली आपराधिक वारदातों से थर्राया हुआ है । हर रोज़ समाचार पत्र चोरी , डकैती , लूट , खसोट , हत्या , आगजनी आदि के समाचारों से भरे रहते हैं । अपराधी इतने निडर हैं कि दिन दहाड़े ऐसे जघन्य कारनामों को अंजाम देते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता ना पुलिस ना प्रशासन । आखिर क्यों ? यह सब किसकी शै पर हो रहा है ? आगरा ही नहीं पूरा उत्तर प्रदेश अपराधियों की गिरफ्त में है ? क्या हमारे नेता निजी स्वार्थों से अपना ध्यान हटा कर आम जनता के हितों के बारे में भी कभी सोचेंगे या जनता के साथ अंतरंगता केवल चुनाव के महीने में चन्द आम सभाओं तक ही सिमट कर खत्म हो जाती है ? अभी कुछ समय पूर्व नकली दूध के काले धन्धे का पर्दाफाश हुआ था । टी वी पर बाकायदा नकली दूध बनाने वालों के साक्षात्कार तक दिखाये गये थे ? क्या हुआ इस मामले में ? अपराधियों को क्या सज़ा मिली ? अगर नहीं मिली तो कब मिलेगी ? इसी तरह इस केस की फाइल भी सालों के लिये किसी न्यायालय के गोदाम में धूल चाटती रहेगी और मिलावटी खाद्य पदार्थों के बनाने और बचने का सिलसिला इसी तरह से धडल्ले के साथ बखौफ चलता रहेगा । है कोई माई का लाल जो इसको रोक सके ?
हमें कब तक इन हृदयहीन मुनाफाखोरों के हाथों का खिलौना बने रहना पड़ेगा जिनके पास ना तो मानवीयता है ना ही उन्हें ईश्वर का भय है ? राजनीति के बाहुबलियों के साथ साँठ गाँठ उनके ऐसे काले धन्धों को पनपने पसरने में मददगार सिद्ध होती है । जनता के स्वास्थ्य और विश्वास के साथ खिलवाड़ किया जाता है और हम निरुपाय हो सब सहने के लिये मजबूर हैं क्योकि यह तो अंधेर नगरी चौपट राजा का देश बन चुका है । जिनसे न्याय की आशा हो वे ही गुनाहों के दलदल में आकण्ठ डूबे हों तो आम आदमी किसके सामने जाकर अपना दुखडा रोये और उसके आँसू पोंछने के लिये किसके हाथ उठेंगे ? ऐसे में ज़रूरत है कि जनता को समाज के चन्द प्रबुद्ध प्रतिनिधियों के नेतृत्व में एकजुट हो इस तरह के जघन्य काण्डों का पुरज़ोर विरोध करना चाहिये और जब तक मामले की गहन जाँच पड़ताल होकर ठोस नतीजे सामने ना आ जायें प्रशासनिक कार्यवाही पर पैनी नज़र रखनी चाहिये कि वे मामले को दबाने की कोशिश ना कर पायें ।
साधना वैद

Friday, June 5, 2009

दस सूत्रीय सुझाव

न्याय प्रणाली में सुधार भारत में लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये आपके दस सूत्रीय सुझाव आमंत्रित हैं । आशा है हम सबके सम्मिलित प्रयासों से प्रस्तावित सुझावों की जो सूची सामने आयेगी उस पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा तो अवश्य ही अनुकूल परिणाम सामने आयेंगे ।
1. भ्रष्टाचार उन्मूलन
2. न्याय प्रणाली में सुधार
त्वरित न्याय का प्रावधान
मुकदमों में तारीखें कम से कम पडें
मुकदमें की प्रकृति को देखते हुए समय सीमा का निर्धारण
सज़ा सुनाये जाने बाद उसे तुरंत लागू किया जाये
छोटी मोटी शिकायतों के मुकदमों को आउट ऑफ कोर्ट निपटा दिया जाये
विचाराधीन मुकदमों को निपटाने के लिये और न्यायालयों का निर्माण हो
लोक अदालतों और पंचायतों को और अधिक अधिकार सम्पन्न किया जाये
3. शिक्षा का प्रसार
4. सुस्त प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार
5. पुलिस की कार्य प्रणाली में सुधार
6. आम लोगों को स्वास्थ्य व स्वच्छता के प्रति जागरूक करना
7. बेरोज़गार युवाओं के लिये स्व रोज़गार के अवसरों को उपलब्ध कराना
8. नारी सशक्तिकरण के लिये कारगर उपाय
9. निर्धन बच्चों के लिये बेहतर जीवन के अवसर उपलब्ध कराना
10.देश के संविधान में आवश्यक्तानुसार परिवर्तन और कानून का कड़ाई के साथ अनुपालन करना

मेरे दृष्टिकोण से इन बिन्दुओं पर कार्य किया जाये तो भारत में लोकतंत्र को सुदृढ़ किया जा सकता है । आपके सुझाव भी आमंत्रित हैं । जब सभी प्रबुद्ध लोग इस दिशा में सोचेंगे तो आशा है कि कोई भी बिन्दु अछूता नहीं रह जायेगा ।

साधना वैद

Tuesday, June 2, 2009

घर फूँक तमाशा

देश में कहीं कुछ हो जाये हमारे मुस्तैद उपद्रवकारी हमेशा बड़े जोश खरोश के साथ हिंसा फैलाने में, तोड़ फोड़ करने में और जन सम्पत्ति को नुक्सान पहुँचाने में सबसे आगे नज़र आते हैं । अब तो इन लोगों ने अपना दायरा और भी बढ़ा लिया है । वियना में कोई दुर्घटना घटे या ऑस्ट्रेलिया में, अमेरिका में कोई हादसा हो या इंग्लैंड में, हमारे ये ‘जाँबाज़’ अपने देश की रेलगाड़ियाँ या बसें जलाने में ज़रा सी भी देर नहीं लगाते । विरोध प्रकट करने का यह कौन सा तरीका है समझ में नहीं आता । यह तो हद दर्ज़े का पागलपन है ।
आजकल यह रिवाज़ सा चल पड़ा है कि सड़क पर कोई दुर्घटना हो गयी तो तुरंत रास्ता जाम कर दो । जितने भी वाहन आस पास से गुज़र रहे हों उनको आग के हवाले कर दो फिर चाहे उनका दुर्घटना से कोई लेना देना हो या ना हो और घंटों के लिये धरना प्रदर्शन कर यातायात को बाधित कर दो । किसी अस्पताल में किसी के परिजन की उपचार के दौरान मौत हो गयी तो डॉक्टर के नर्सिंग होम में सारी कीमती मशीनों को चकनाचूर कर दो और डॉक्टर और उसके स्टाफ की जम कर धुनाई कर दो । जनता का यह व्यवहार कुछ विचित्र लगता है । हद तो तब हो जाती है जब अपना आक्रोश प्रदर्शित करने के लिये ये लोग आम जनता की सहूलियत और ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वर्षों के प्रयासों और जद्दोजहद के बाद जैसे तैसे जुटायी गयी बुनियादी सेवाओं को अपनी वहशत का निशाना बनाते हैं ।
आम जनता के मन में यह भ्रांति गहराई तक जड़ें जमाये हुए है कि सारी रेलगाड़ियाँ, बसें या सरकारी इमारतें ‘सरकार’ की हैं जो कोई दूसरे पक्ष का व्यक्ति है और उसके सामान की तोड़ फोड़ करके वे अपना बदला निकाल सकते हैं । हम सभी यह जानते हैं कि हमारा देश अभी पूरी तरह से सुविधा सम्पन्न नहीं हुआ है । अभी भी किसी क्षेत्र की किसी ज़रूरत को पूरा करने के लिये सरकार को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता है और उस सुविधा का उपभोग करने से पहले आम जनता को भारी मात्रा में टैक्स देकर धन जुटाने में अपना योगदान करना पड़ता है तब कहीं जाकर दो शहरों को जोड़ने के लिये किसी बस या किसी रेल की व्यवस्था हो पाती है या किसी शहर में बच्चों के लिये स्कूल या मरीज़ों के लिये किसी अस्पताल का निर्माण हो पाता है । लेकिन चन्द वहशी लोगों को उसे फूँक डालने में ज़रा सा भी समय नहीं लगता । अपने जुनून की वजह से वे अन्य तमाम नागरिकों की आवश्यक्ताओं की वस्तुओं को कैसे और किस हक से नुक्सान पहुँचा सकते हैं ? जो लोग इस तरह की असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं क्या वे कभी रेल से या बस से सफर नहीं करते ? अपने परिवार के बच्चों को स्कूलों में पढ़ने के लिये नहीं भेजते या फिर बीमार पड़ जाने पर उन्हें अस्पतालों की सेवाओं की दरकार नहीं होती ? फिर बुनियादी ज़रूरतों की इन सुविधाओं को क्षति पहुँचा कर वे किस तरह से एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का दायित्व निभा रहे होते हैं ?

लोगों तक यह संदेश पहुँचना बहुत ज़रूरी है कि जिस सरकारी सम्पत्ति को वे नुक्सान पहुँचाते हैं वह जनता की सम्पत्ति है और उसके निर्माण के लिये उनकी खुद की भी गाढ़े पसीने की कमाई कर के रूप में जब सरकार के पास पहुँचती है तब ये सुविधायें अस्तित्व में आती हैं । इन के नष्ट हो जाने से पुन: इनकी ज़रूरत का शून्य बन जाता है और उसकी पूर्ति के लिये पुन: अतिरिक्त कर भार और उसके परिणामस्वरूप बढ़ने वाली मँहगाई का दुष्चक्र आरम्भ हो जाता है जिसका खामियाज़ा चन्द लोगों की ग़लतियों की वजह से सभी को भुगतना पड़ता है । यह नादानी कुछ इसी तरह की है कि घर में किसी बच्चे की नयी कमीज़ की छोटी सी माँग पूरी नहीं हुई तो वह अपने कपड़ों की पूरी अलमारी को ही आग के हवाले कर दे ।
इस समस्या के समाधान के लिये ज़रूरी है कि जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के नागरिकों को केवल धरना प्रदर्शन का प्रशिक्षण ही ना दें वरन उनके कर्तव्यों के लिये भी उन्हें जागरूक और सचेत करें । नेता गण खुद भी धरना प्रदर्शन और हिंसा की राजनीति से परहेज़ करें और आम जनता के सामने संयमित और अनुशासित आचरण कर अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करें ताकि जनता के बीच उद्देश्यपूर्ण संदेश प्रसारित हो । रेडियो और टी.वी. चैनल्स पर नागरिकों को इस दिशा में जागरूक करने के लिये समय समय पर संदेश प्रसारित किये जायें और मौके पर तोड़ फोड़ की असामाजिक गतिविधि में लिप्त पकड़े गये लोगों को कठोर दण्ड दिया जाये उन्हें सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ा ना जाये । जब तक कड़े कदम नहीं उठाये जायेंगे हम इसी तरह पंगु बने हुए इन उपद्रवकारियों के हाथों का खिलौना बने रहेंगे ।

साधना वैद

Wednesday, May 27, 2009

तुम आओगे ना !

रात ने अपनी अधमुँदी आँखे खोली हैं
सुबह ने अपने डैने पसार अँगड़ाई ली है ।
नन्हे से सूरज ने प्रकृति माँ के आँचल से मुँह घुमा
संसार को अपनी उजली आँखों से देखा है ।

दूर पर्वत शिखरों पर देवताओं की रसोई में
सुर्ख लाल अँगीठी सुलग चुकी है ।
कल कल बहते झरनों का आल्हादमय संगीत
सबको आनंद और स्फूर्ति से भर गया है ।

सुदूर गगन में पंछियों की टोली पंख पसार
अनजाने अनचीन्हे लक्ष्य की ओर उड़ चली है ।
फूलों ने अपनी पाँखुरियों से ओस के मोती ढुलका
बाल अरुण को अपना मौन अर्घ्य दिया है ।

मेरे मन में भी एक मीठी सी आशा अकुलाई है
मेरे मन में भी उजालों ने धीरे से दस्तक दी है ।
मेरे मन ने भी पंख पसार आसमान में उड़ना चाहा है
मेरे कण्ठ में भी मीठी सी तान ने आकार लिया है ।

मेरी करुणा के स्वर तुम तक पहुँच तो जायेंगे ना !
झर झर बहते अश्रुबिन्दु का अर्घ्य तुम्हें स्वीकृत तो होगा !
मैंने अंतर की ज्वाला पर जो नैवेद्य बनाया है प्रियतम
उसे ग्रहण करने को तो तुम आओगे ना !

साधना वैद

Sunday, May 24, 2009

यह कैसा विकास !

इक्कीसवीं सदी के इस मुकाम पर पहुँच कर हम गर्व से मस्तक ऊँचा कर खुद के पूरी तरह विकसित होने का ढिंढोरा पीटते तो दिखाई देते हैं लेकिन सच में हमें आत्म चिंतन की बहुत ज़रूरत है कि हम वास्तव में विकसित हो चुके हैं या विकसित होने का सिर्फ़ एक मीठा सा भ्रम पाले हुए हैं ।
विकास को सही अर्थों में नापने का क्या पैमाना होना चाहिये ? क्या आधुनिक और कीमती परिधान पहनने से ही कोई विकसित हो जाता है ? क्या परम्परागत जीवन शैली और नैतिकता को अमान्य कर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने से ही कोई विकसित हो जाता है ? क्या सामाजिक मर्यादा और पारिवारिक मूल्यों की अवमानना कर विद्रोह की दुंदुभी बजाने का साहस दिखाने से ही कोई विकसित हो जाता है ? या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के दम्भ में अपने से पीछे छूट जाने वालों को हिक़ारत और तिरस्कार की दृष्टि से देखने वालों को विकसित माना जा सकता है ? या फिर अकूत धन दौलत जमा कर बड़े बड़े उद्योग खड़े कर समाज के चन्द चुनिन्दा धनाढ्य लोगों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लेने वालों को विकसित माना जा सकता है ? या फिर वे लोग विकसित हैं जिन्होंने विश्व के अनेकों शहरों में आलीशान कोठियाँ और बंगले बनवा रखे हैं और जो समाज के अन्य सामान्य वर्गों के साथ एक मंच पर खड़े होने में भी अपना अपमान समझते हैं ? आखिर हम विकास के किस माप दण्ड को न्यायोचित समझें ? यह तस्वीर भारत के ऐसे बड़े शहरों की है जहाँ समाज के सबसे सभ्य और सम्पन्न समझे जाने वाले लोग रहते हैं । लेकिन ऐसे ही विकसित और सभ्य लोगों के बीच जैसिका लाल हत्याकाण्ड, नैना साहनी हत्याकाण्ड, मधुमिता हत्याकाण्ड, बी. एम. डबल्यू काण्ड, शिवानी हत्याकाण्ड, निठारी काण्ड, आरुषी हत्याकाण्ड ऐसे ही और भी न जाने कितने अनगिनत जघन्य काण्ड कैसे घटित हो जाते हैं ? इन घटनाओं के जन्मदाता तो विकसित भारत का प्रतिनिधित्व करते जान पड़ते हैं । तो क्या ‘विकसित’ और ‘सभ्य’ भारतीयों की मानसिकता इतनी घिनौनी और ओछी है ? उनमें मानवीयता और सम्वेदनशीलता का इतना अभाव है कि इस तरह की लोमहर्षक और रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदातें हो जाती हैं और बाकी सारे लोग निस्पृह भाव से मूक दर्शक बने देखते रहते हैं कुछ कर नहीं पाते । क़्या सभ्य होने की हमें यह कीमत चुकानी होगी ? तो क्या भौतिक सम्पन्नता को विकास का पैमाना मान लेना उचित होगा ?
भारत के छोटे शहरों की तस्वीर भी इससे कुछ अलग नहीं है । सभ्य और सुसंस्कृत होने का दम्भ हमारे छोटे शहरों के लोगों को भी कम नहीं है और विकास का झंडा वे भी बड़ी
शान से उठाये फिरते हैं । लेकिन यहाँ अशिक्षा, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और सड़ी गली रूढ़ियों ने अपनी जड़ें इतनी मजबूती से जमा रखी हैं कि आसानी से उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है । शायद इसीलिये यहाँ 21वीं सदी के इस दौर में भी जात पाँत और छूत अछूत का भेद भाव आज भी मौजूद है । आज भी यहाँ सवर्णो द्वारा किसी दलित युवती को निर्वस्त्र कर गाँव में परेड करायी जाती है तो सारा गाँव दम साधे चुप चाप यह अनर्थ होते देखता रहता है विरोध का एक भी स्वर नहीं फूटता । आज भी यहाँ ठाकुरों की बारात में यदि कोई दलित सहभोज में साथ में बैठ कर खाना खा लेता है तो उसे सरे आम गोली मार दी जाती है । आज भी यहाँ अबोध बालिकायें वहशियों की हवस का शिकार होती रहती हैं और थोड़ी सी जमीन या दौलत के लिये पुत्र पिता का या भाई भाई का खून कर देता है । तो फिर हम कैसे खुद को सभ्य और विकसित मान सकते हैं ? हमें आत्म चिंतन की सच में बहुत ज़रूरत है । विकास भौतिक साधनों को जुटा लेने से नहीं आ जाता । अपने विचारों से हम कितने शुद्ध हैं, अपने आचरण से हम कितने सात्विक हैं, और दूसरों की पीड़ा से हमारा दिल कितना पसीजता है यह विचारणीय होना चाहिये । अपने अंतर में झाँक कर देखने की ज़रूरत है कि निज स्वार्थों को परे सरका कर हम दूसरों के हित के लिये कितने प्रतिबद्ध हैं, कितने समर्पित हैं । सही अर्थ में विकसित कहलाने के लिये मानसिक रूप से समृद्ध और सम्पन्न होना नितांत आवश्यक है और इसके लिये ज़रूरी है कि हम अपनी सोच को बदलें , अपने आचरण को बदलें और एक बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में कृत संकल्प हो जायें ।

साधना वैद

Wednesday, May 13, 2009

विश्वासघात या अवसरवाद

चुनाव चक्र अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच रहा है और अब एक नये दुष्चक्र के आरम्भ का सूत्रपात होने जा रहा है । मंत्रीमंडल में अपनी कुर्सी सुरक्षित करने के लिये सांसदों की खरीद फरोख्त और जोड़ तोड़ का लम्बा सिलसिला शुरु होगा और आम जनता ठगी सी निरुपाय यह सब देख कर अपना सिर धुनती रहेगी । व्यक्तिगत स्तर पर चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय प्रत्याशियों और छोटी मोटी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का वर्चस्व रहेगा । उनकी सबसे मँहगी बोली लगेगी और सत्ता लोलुप और सिद्धांतविहीन राजनीति करने वाले आयाराम गयारामों की पौ बारह होगी |
नेताओं के प्रति विश्वास और सम्मान आम आदमी के मन से इस तरह धुल पुँछ गया है कि गिने चुने अपवादों को छोड़ दिया जाये तो किसी भी नेता के नाम पर मतदाता को मतदान केंद्रों तक खींच कर लाना असम्भव है । आज भी मतदाता पार्टी के नाम पर अपना वोट देता है और पार्टी के घोषणा पत्र पर भरोसा करता है । लेकिन यही सिद्धांतविहीन नेता चुनाव जीतने के बाद आम जनता के विश्वास का गला घोंट कर और पार्टी विशेष की सारी नीतियों के प्रति अपनी निष्ठाओं की बलि चढ़ा कर कुर्सी के पीछे पीछे सम्मोहित से हर इतर किस्म के समझौते करते दिखाई देते हैं तो आम जनता की वितृष्णा की कोई सीमा नहीं रहती । मतदान के प्रति लोगों की उदासीनता का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि लोगों के मन में निराशा ने इस तरह से जड़ें जमा ली हैं कि किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव का आश्वासन उन्हें आकर्षित और उद्वेलित नहीं कर पाता । तुलसीदास की पंक्तियाँ आज के राजनैतिक परिदृश्य में उन्हें अधिक सटीक लगती है-
कोई नृप होहि हमहुँ का हानि
चेरी छोड़ि ना होवहिं रानी ।।
जनता की इस निस्पृहता को कैसे दूर किया जाये , उनके टूटे मनोबल को कैसे सम्हाला जाये और नेताओं की दिन दिन गिरती साख को कैसे सुधारा जायें ये आज के युग के ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनके उत्तर शायद आज किसी युधिष्ठिर के पास नहीं हैं ।
इन समस्याओं को विराम देने के लिये एक विकल्प जो समझ में आता है वह यह है कि देश में सिर्फ दो ही पार्टीज़ होनी चाहिये । अन्य सभी छोटी मोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का इन्हीं दो पार्टियों में विलय हो जाना चाहिये । जो पार्टी चुनाव में बहुमत से जीते वह सरकार का गठन करे और दूसरी पार्टी एक ज़िम्मेदार और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाये । इस कदम से सांसदों की खरीद फरोख्त पर रोक लगेगी और अवसरवादी नेताओं की दाल नहीं गल पायेगी । इसके अलावा संविधान में इस बात का प्रावधान होना चाहिये कि चुनाव के बाद प्रत्याशी पार्टी ना बदल सके और जिस पार्टी के झंडे तले उसने चुनाव जीता है उस पार्टी के प्रति अगले चुनाव तक वह् निष्ठावान रहे । यदि किसी तरह का मतभेद पैदा होता है तो भी वह पार्टी में रह कर ही उसे दूर करने की कोशिश करे । पार्टी छोड़ने का विकल्प उसके पास होना ही नहीं चाहिये । तभी नेताओं की निष्ठा के प्रति लोगों में कुछ विश्वास पैदा हो सकेगा और पार्टीज़ की कार्यकुशलता के बारे में लोग आश्वस्त हो सकेंगे । इस तरह के उपाय करने से जनता स्वयम को छला हुआ महसूस नहीं करेगी और राजनेताओं और राजनीति का जो पतन और ह्रास इन दिनों हुआ है उसे और गर्त में जाने से रोका जा सकेगा और उसकी मरणासन्न साख को पुनर्जीवित किया जा सकेगा ।

साधना वैद

Friday, May 8, 2009

दोषी कौन ?

चुनाव का चौथा चरण भी बीत गया । बड़े दुख की बात है कि मतदान का प्रतिशत अभी तक जस का तस है । लोगों को ‘जगाने’ के सारे भागीरथ प्रयत्न विफल हो गये । लेकिन उससे भी बडे दुख की बात यह है कि जो ‘जाग’ गये थे उनको हमारे अकर्मण्य तंत्र की खोखली अफसरी ने दोबारा ‘सोने’ के लिये मजबूर कर दिया ।
जिस दिन से चुनाव की घोषणा हुई थी मतदाता सूचियों के सुधारे जाने और उनका नवीनीकरण किये जाने का एक ‘वृहद कार्यक्रम’ चलाया गया । कई दिनों तक दिन में शांति से बैठ नहीं सके कि कभी फोटो चाहिये तो कभी पासपोर्ट की कॉपी तो कभी ड्राइविंग लाइसेंस की कॉपी तो कभी परिवार के सारे सदस्यों के विस्तृत वृत्तांत कि कौन कहाँ रहता है और उसकी आयु क्या है आदि आदि । हमने भी बडे धैर्य के साथ उन्हें पूरा सहयोग दिया और सभी वांछित जानकारी उन्हें उपलब्ध कराई इस आशा के साथ कि इस बार तो बड़ी मुस्तैदी से काम हो रहा है और इस बार के चुनाव के साथ अवश्य ही बदलाव की सुख बयार बहेगी और भारतीय लोकतंत्र की जीर्ण शीर्ण काया का अकल्पनीय रूप से सशक्तिकरण हो जायेगा । लेकिन कल बड़ी कोफ्त हुई जब मतदाता सूची में अपना नाम ढूँढने में हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ी और उससे भी ज़्यादह कोफ्त शाम को हुई जब टी.वी. पर कई लोगों को अपना दर्द बयान करते देखा कि मतदाता सूची में नाम नहीं मिलने की वजह से उन्हें वोट नहीं डालने दिया गया । अपने मताधिकार से वंचित रहने वालों में एक बडी संख्या अशिक्षित मतदाताओं की थी । व्यवस्था में इतनी बड़ी चूक के लिये आप किसे दोष देंगे ? मतदाता सूचियों में सुधार की प्रक्रिया का प्रदर्शन क्या दिखावा भर था ? कई लोग अपना फोटो पहचान पत्र भी दिखा रहे थे लेकिन क्योंकि सूची में नाम नहीं था इसलिये उन्हें वोट नहीं डालने दिया गया । जहाँ इतनी लचर व्यवस्था हो और उनकी ‘कार्यकुशलता’ के आधार पर नियमों का अनुपालन हो वहाँ सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाती है !
मतदान केन्द्रों पर एक ऐसे निष्पक्ष अधिकारी को नियुक्त करना चाहिये जो स्वविवेक से यह निर्णय ले सके कि निकम्मी व्यवस्था के शिकार ऐसे लोग किस तरह से अपने मताधिकार का प्रयोग करें और उन्हें अपने बुनियादी अधिकार से वंचित रहने का दंश ना झेलना पड़े । भारत जैसे विशाल देश में जहाँ एक बड़ी संख्या में अशिक्षित मतदाता हैं शासन तंत्र को उनका छोटे बच्चों की तरह ध्यान रखने की ज़रूरत है । छिद्रांवेषण कर उनको वोट देने से रोकने से काम नहीं चलेगा ज़रूरत इस बात की है कि तत्काल वहीं के वहीं उन कमियों को दूर करने के विकल्प तलाशे जायें और उन्हें भी नई सरकार के निर्माण में अपना अनमोल योगदान देने के गौरव को अनुभव करने दिया जाये । चुनाव का अभी भी अंतिम चरण बाकी है । शायद चुनाव आयोग इस ओर ध्यान देगा ।
साधना वैद

Tuesday, May 5, 2009

एक आम आदमी की कहानी

जीवन के महासंग्राम में दिन रात संघर्षरत एक आम इंसान के कटु अनुभव से अपने सुधी पाठकों को अवगत कराना चाहती हूं और अंत में उनके अनमोल सुझावों की भी अपेक्षा रखती हूँ कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में उस व्यक्ति को क्या करना चाहिये था ।
मेरे एक पड़ोसी के यहाँ चोरी हो गयी । चोर घर में ज़ेवर, नकदी और जो भी कीमती सामान मिला सब बीन बटोर कर ले गये । पड़ोसी एक ही रात में लाखपति से खाकपति बन गये । उस वक़्त उनको जो आर्थिक और मानसिक हानि हुई उसका अनुमान लगाना तो मेरे लिये मुश्किल है लेकिन उसके बाद उन्हें सालों जो कवायद करनी पड़ी और जिस तरह से न्याय पाने की उम्मीद में वे पुलिस की दुराग्रहपूर्ण कार्यप्रणाली की चपेट में आकर थाने और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा लगा कर चकरघिन्नी बन गये इसे मैने ज़रूर देखा है । चोरी की घटना के बाद उन्होंने थाने में रिपोर्ट लिखा दी । तीन चार दिन तक लगातार जाँच की प्रक्रिया ‘ सघन ‘ रूप से चली । परिवार के सदस्यों सहित सारे नौकर चाकर और पड़ोसियों तक के कई कई बार बयान लिये गये । फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट, फोटोग्राफर्स के दस्तों ने कई बार घटनास्थल पर फैले बिखरे सामान, अलमारियों के टूटे तालों, और टूटे खिड़की दरवाज़ों का निरीक्षण परीक्षण किया । नगर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों के पत्रकार पड़ोसी के ड्राइंग रूम में सोफे पर आसीन हो घटना की बखिया उधेड़ने मे लगे रहे । इस सबके साथ साथ इष्ट मित्र , रिश्तेदार और पास पडोसी भी सम्वेदना व्यक्त करने और अपना कौतुहल शांत करने के इरादे से कतार बाँधे आते रहे और चाय नाश्ते के दौर चलते रहे ।
अंततोगत्वा इतनी कवायद के बाद इंसपेक्टर ने अज्ञात लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर मुकदमा दायर कर दिया । पड़ोसी महोदय ने चैन की साँस ली । उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे अभी बेटी के ब्याह से फारिग हुए हैं । अब पुलिस वाले चंद दिनों में चोरों को पकड़ लेंगे और चोरी गये सामान की रिकवरी हो जायेगी और सब कुछ ठीक हो जायेगा । उन्हें क्या पता था कि असली मुसीबत तो अब पलकें बिछाये उनकी प्रतीक्षा कर रही है ।
क़ई दिन की उठा पटक के बाद उन्होंने चार पाँच दिन बाद ऑफिस की ओर रुख किया । मेरे पड़ोसी एक प्राइवेट कम्पनी में प्रोडक्शन इंजीनियर हैं । इतने दिन की अनुपस्थिति के कारण कम्पनी के काम काज का जो नुक्सान हुआ उसकी वजह से उन्हें बॉस का भी कोप भाजन बनना पड़ा । खैर जैसे तैसे उन्होंने पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर चढ़ाने की कोशिश की और अपने सारे दुख को भूल फिर से जीवन की आपाधापी में संघर्षरत हो गये ।
लेकिन अब एक कभी ना टूटने वाला कोर्ट कचहरी का सिलसिला शुरु हुआ । आरम्भ में हर हफ्ते और फिर महीने में दो – तीन बार केस की तारीखें पड़ने लगीं । हर बार वे ऑफिस से छुट्टी लेकर बड़े आशान्वित हो कोर्ट जाते कि इस बार कुछ हल निकल जायेगा लेकिन हर बार बाबू लोगों की जमात और वकीलों के दल बल को चाय पानी पिलाने चक्कर में और सुदूर स्थित कचहरी तक जाने के लिये गाड़ी के पेट्रोल का खर्च वहन करने में उनके चार - पाँच सौ रुपये तो ज़रूर खर्च हो जाते लेकिन केस में कोई प्रगति नहीं दिखाई देती । केस की तारीख फिर आगे बढ़ जाती और वे हताशा में डूबे घर लौट आते । यह क्रम महीनों तक चलता रहा ।
परेशान होकर पड़ोसी ने पेशी पर कोर्ट जाना बन्द कर दिया । चोरी की घटना बीते तीन साल हो चुके थे । ना तो किसी सामान की बरामदगी हुई थी ना ही कोई चोर पकड़ में आया था । चोरी के वाकये को वे एक बुरा सपना समझ कर सब भूल चुके थे और नये सिरे से जीवन समर में कमर कस कर जुट गये थे कि अचानक कोर्ट से नोटिस आ गया कि मुकदमें की पिछली तीन तारीखों पर पड़ोसी कोर्ट में नहीं पहुँचे इससे कोर्ट की अवमानना हुई है और अगर वे अगली पेशी पर भी कोर्ट नहीं पहुँचेंगे तो उनके खिलाफ सम्मन जारी कर दिया जायेगा । ज़िसने चोरी की वह आराम से मज़े उड़ा रहा था क्योंकि वह कानून की गिरफ्त से बाहर था और पुलिस तीन सालों में भी उसे पकड़ने में नाकाम रही थी । पर जिसका सब कुछ लुट चुका था वह तो एक सामाजिक ज़िम्मेदार नागरिक था वह कहाँ भागता ! इसीलिये उस पर नकेल कसना आसान था । लिहाज़ा उसे ही कानूनबाजी का मोहरा बनाया गया । अंधेर नगरी चौपट राजा ! नोटिस पढ़ कर पड़ोसी के होश उड़ गये । फिर भागे कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने । कई दिनों की कवायद के बाद अंततोगत्वा पाँच हज़ार रुपये की रिश्वत देकर उन्होने अपना पिंड छुड़ाया और अज्ञात चोरों के खिलाफ अपना मुकदमा वापिस लेकर इस जद्दोजहद को किसी तरह उन्होंने विराम दिया ।
अपने पाठकों से मैं उनकी राय जानना चाहती हूँ कि इन हालातों में क्या पडोसी को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का दोषी माना जाना चाहिये ? अगर वे उसे ग़लत मानते हैं तो उसे मुसीबत का सामना कैसे करना चाहिये था इसके लिये उनके सुझाव आमंत्रित हैं जो निश्चित रूप से ऐसे ही दुश्चक्रों में फँसे किसी और व्यक्ति का मार्गदर्शन ज़रूर करेंगे ।

साधना वैद

Wednesday, April 22, 2009

समाचार पत्र अपना दायित्व पहचानें

चुनाव का मौसम है और प्रत्याशियों का प्रचार प्रसार पूरे ज़ोर पर है । सभी अपने बारे में झूठ सच बढ़ा चढ़ा कर बता रहे हैं । लेकिन वास्तविकता यह है कि आम जनता में से शायद किसी को भी अपने क्षेत्र के सभी प्रत्याशियों के नाम तक नहीं मालूम हैं उनके इतिहास की तो बात ही छोड़ दीजिये । यही कारण है कि जो उम्मीदवार अशिक्षित और ग़रीब मतदाताओं को जाति और धर्म का वास्ता देकर भरमा लेता है या भौतिक वस्तुओं का प्रलोभन देकर अपनी मुट्ठी में कर लेता है मतदाता उसीके
पक्ष में वोट दे देते हैं चाहे फिर वह योग्य हो या ना हो । इंटरनेट पर सब के बारे में सूचना उपलब्ध है लेकिन भारत जैसे देश में कितने घरों में इंटरनेट की सुविधा सुलभ है और जीवन की आपाधापी में किसके पास इतना समय है कि वे साइबर कैफे में जाकर प्रत्याशियों के इतिहास भूगोल की जाँच पड़ताल अपनी जेब ढीली करके हासिल करें । आज के परिदृश्य में सूचना प्राप्त करने के लिये आम जनता के लिये जो सबसे सुलभ और स्थाई माध्यम है वह समाचार पत्र ही हैं । टी. वी. भी एक माध्यम है जिसकी पहुँच काफी विस्तृत है लेकिन उसकी भी सीमायें हैं कि वे समय विशेष पर ही सूचना प्रसारित कर सकते हैं और कोई आवश्यक नहीं कि उस समय सारे दर्शक अपना पसंदीदा कार्यक्रम छोड़ कर प्रत्याशियों की जानकारी जुटाने में दिलचस्पी लें । ऐसे में सभी समाचार पत्रों का दायित्व और बढ़ जाता है कि वे अपने पाठकों तक समस्त आवश्यक और अनिवार्य सूचनायें उपलब्ध करायें क्योंकि समाचार पत्रों में प्रतिदिन जो कुछ छपता है उस पर दिन भर में कभी न कभी तो नज़र पड़ ही जाती है ।
मेरे विचार से सभी प्रमुख समाचार पत्रों में प्रतिदिन नामांकित प्रत्याशियों के बारे में इस प्रकार की सूचनायें प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये -
नाम
आयु
शिक्षा आपराधिक मामलों का विवरण
राजनैतिक इतिहास
सम्पत्ति का विवरण
व्यावसायिक अनुभव
उपलब्धियाँ और विफलतायें
आपराधिक मामलों के विवरण के तहत उन पर कितने मुकदमें चल रहे हैं, उन अपराधों की प्रकृति क्या है, कितने विचाराधीन हैं और कितनों में वे बरी हो चुके हैं इन सबका उल्लेख होना आवश्यक है ।
राजनैतिक इतिहास के विवरण के तहत यह जानकारी होना नितांत आवश्यक है कि इससे पहले वे किस पार्टी के लिये काम कर चुके हैं, कितनी बार दल बदल की राजनीति कर चुके हैं, उनकी निष्ठायें किसी भी पार्टी के लिये कितनी अवधि तक समर्पित रहीं, वे राजनीति में पहले से ही सक्रिय किस परिवार से सम्बद्ध हैं और सार्वजनिक सेवा का उनका इतिहास कितना पुराना है ।
पारदर्शिता की मुहिम के चलते सम्पत्ति का व्यौरा देना तो अब चलन में आ ही चुका है लेकिन जन साधारण के लिये यदि इसको अनिवार्य रूप से व्यक्ति विशेष की समस्त जानकारियों के साथ जोड़ कर लिखा जायेगा तो लोगों को तुलनात्मक अध्ययन करने में आसानी होगी ।
व्यावसायिक अनुभव के उल्लेख से यह विचार करने में आसानी होगी कि संसद में वे किस वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं । जैसे एक वकील कानून के सम्बन्ध में, एक डॉक्टर चिकित्सा के सम्बन्ध में, एक शिक्षक शिक्षा के सम्बन्ध में, एक व्यवसायी उद्योग के सम्बन्ध में, एक कलाकार संस्कृति और कला के सम्बन्ध में, एक जन सेवक आम आदमी के सरोकारों के सम्बन्ध में, एक सैन्य अधिकारी रण कौशल से जुड़ी नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।
उपलब्धियों और विफलताओं के बारे में यह लिखना आवश्यक है कि अब तक वे किन महत्वपूर्ण मुद्दों के लिये प्रयासरत रहे हैं और उनमें कितनी सफलता या असफलता उनके हिस्से में आयी है ।
समाचारपत्रों में जब प्रत्येक प्रत्याशी के बारे में यह जानकारी प्रतिदिन अनिवार्य रूप से छपेगी तो कोई कारण नहीं है कि मतदाता स्वविवेक का प्रयोग किये बिना भेड़चाल की तरह किसी ऐसे प्रत्याशी के पक्ष में अपना वोट डाल आयें जिसने उनको भाँति भाँति के प्रलोभन देकर प्रभावित कर लिया हो, या वह किसी जाति विशेष का प्रतिनिधि हो ।
यह भी आवश्यक है कि यह सारी सूचना पूर्णत: विशुद्ध सूचना ही हो उसमें किसी नेता या पार्टी की सोच, राय, धारणा या छवि का तड़का न लगा हो । मेरे विचार से यदि इस दिशा में ठोस कदम उठाये जायेंगे तो आम जनता को अपने विवेक का प्रयोग करने का सुअवसर अवश्य मिलेगा और तब ही शायद सर्वोत्तम प्रत्याशी की जीत सम्भव हो पायेगी जिसके लिये हम सब कृत संकल्प हैं । जय भारत !
साधना वैद

Wednesday, April 15, 2009

दिक्भ्रमित मतदाता

मतदान का समय नज़दीक आ रहा है । चारों ओर से मतदाताओं पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें । इस बार चूक गये तो अगले पाँच साल तक हाथ ही मलते रह जायेंगे इसलिये सही प्रत्याशी को वोट दें, सोच समझ कर वोट दें, जाँच परख कर वोट दें, यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि प्रत्याशी का कोई आपराधिक अतीत ना हो, वह सुशिक्षित हो, चरित्रवान हो, देशहित के लिये निष्ठावान हो, जनता का सच्चा सेवक हो और ग़रीबों के हितों का हिमायती हो, आम आदमी की समस्याओं और सरोकारों का जानकार हो और संसद में उनके पक्ष में बुलन्द आवाज़ में अपनी बात मनवाने का दम खम रखता हो ।
बात सोलह आना सही है लेकिन असली चिंता यही है कि इन कसौटियों पर किसी प्रत्याशी को परखने के लिये मतदाता के पास मापदण्ड क्या है ? वह कैसे फैसला करे कि यह प्रत्याशी सही है और वह नहीं क्योंकि जिन प्रत्याशियों को चुनावी मैदान मे उतारा जाता है उनमें से चन्द गिने चुने लोगों के ही नाम और काम से लोग परिचित होते हैं । बाकी सब तो पहली ही बार पार्टी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखने के इरादे से चुनावी दंगल में कूद पड़ते हैं या निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से अपना ढोल बजाने लगते हैं और जनता के दरबार में वोटों के तलबगार बन जाते हैं । ऐसे में मतदाता क्या देखें ? यह कि कौन सा प्रत्याशी कितने भव्य व्यक्तित्व का स्वामी है, या फिर कौन विनम्रता के प्रदर्शन में कितना नीचे झुक कर प्रणाम करता है, या फिर कौन फिल्मों मे या टी वी धारावाहिकों में ग़रीबों का सच्चा पैरोकार बन कर लोकप्रिय हुआ है, या फिर किसके बाप दादा पीढ़ियों से राजनीति के अखाड़े के दाव पेंचों के अच्छे जानकार रहे हैं, या फिर कौन चुनाव प्रचार के दौरान अपनी जन सभाओं में बड़े बड़े नेताओं और अभिनेताओं का बुलाने का दम खम रखता है, या फिर कौन क्षेत्र विशेष की लोक भाषा में हँसी मज़ाक कर लोगों का दिल जीतने में सफल हो जाता है । या फिर पार्टी विशेष के वक़्ती घोषणा पत्र के आधार पर ही प्रत्याशी का चुनाव करना चाहिये जिसका क्षणिक अस्तित्व केवल चुनाव के नतीजों तक ही होता है और जिनके सारे वायदे और घोषणायें चुनाव के बाद कपूर की तरह हवा में विलीन हो जाते हैं । आखिर किस आधार पर चुनें मतदाता अपना नेता ?
सारे मतदाता इसी संशय और असमंजस की स्थिति में रहते हैं और शायद मतदान के प्रति लोगों में जो उदासीनता आई है उसका एक सबसे बड़ा कारण यही है कि वे अपने क्षेत्र के अधिकतर प्रत्याशियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते और जिनके बारे में जानते हैं उन्हें वोट देना नहीं चाहते । वे किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते और चरम हताशा की स्थिति में किसी भी अनजान प्रत्याशी को वोट देकर किसी भी तरह के ग़लत चुनाव की ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं ।
हमें आगे आकर इन दोषपूर्ण परम्पराओं में बदलाव लाने की मुहिम को गति देना चाहिये । चुनाव के चंद दिन पूर्व प्रत्याशियों की घोषणा किये जाने का तरीका ही ग़लत है । क़ायदे से चुनाव के तुरंत बाद ही अगले चुनाव के उम्मीदवार की घोषणा हो जानी चाहिये और अगले पाँच साल तक उसे लगातार जनता के सम्पर्क में रहना चाहिये । प्रत्येक भावी उम्मीदवार को जन साधारण की समस्याओं और सरोकारों को सुनने और समझने में समर्पित भाव से जुट जाना चाहिये । सभी पार्टीज़ के प्रत्याशी जब प्रतिस्पर्धा की भावना के साथ आम आदमी के जीवन की जटिलताओं को सुलझाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जायेंगे तब देखियेगा विकास की गति कितनी तीव्र होगी और आम आदमी का जीवन कितना खुशहाल हो जायेगा । तब किसी प्रत्याशी के प्रति जनता के मन में सन्देह का भाव नहीं होगा । हर उम्मीदवार का काम बोलेगा और जो अच्छा काम करेगा उसे जिताने के लिये जनता खुद उत्साहित होकर आगे बढ़ कर वोट डालने आयेगी । हमेशा की तरह खींच खींच कर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । इस प्रक्रिया से अकर्मण्य और अवसरवादी लोगों की दाल नहीं गल पायेगी । सारे गाँवों और शहरों की दशा सुधर जायेगी और आम आदमी बिजली, पानी, साफ सफाई इत्यादि की जिन समस्याओं से हर वक़्त जूझता रहता है उनके समाधान अपने आप निकलते चले जायेंगे । पाँच साल बीतने के पश्चात चुनाव के परिणाम के रूप में सबको अपनी अपनी मेहनत का फल मिल जायेगा । अगर ऐसा हो जाये तो भारत विकासशील देशों की सूची से निकल कर सबसे विकसित देश होने के गौरव से सम्मानित हो सकेगा और हम भारतवासी भी गर्व से अपना सिर उठा कर कह सकेंगे जय भारत जय हिन्दोस्तान !

साधना वैद

Monday, April 13, 2009

बाल श्रमिक ! सिक्के का दूसरा पहलू

बच्चे देश का भविष्य हैं, आने वाले वक़्तों में भारत के कर्णधार हैं और बदलते खुशहाल भारत की बहुत सुन्दर सी तस्वीर हैं ऐसे जुमले बाल दिवस पर या श्रमिक दिवस पर बहुत सुनने को मिल जाते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर जब देश के इन्हीं ‘कर्णधारों’ को भूख से बिलखते और चोरी उठाईगीरी जैसे अपराधों में लिप्त पाते हैं तो ऐसी बातें अपना महत्व और विश्वसनीयता खोती हुई प्रतीत होती हैं ।
अपने दो दिन पहले के अनुभव से पाठकों को अवगत कराना चाहती हूँ । मेरे घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है । सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक श्रमिक काम करते हैं । दिन में तीन बजे के करीब एक श्रमिक थक कर बैठ गया । क़ारण पूछा तो बोला पेट में दर्द हो रहा है । मैने दवा देनी चाही तो उसने बताया कि सुबह से खाना नहीं खाया है सिर्फ पानी पीकर काम कर रहा है । मुझे दुख हुआ । सबसे पहले तो उसको भरपेट खाना खिलाया फिर कारण पूछा तो उसने बताया कि घर में आटा ही नहीं था इसलिये खाना नहीं लाया था । मेरा दिल करुणा से भर गया । पूछने पर उसने बताया कि घर में एक बीमार पिता हैं , बूढी माँ है, एक बहन है शादी के लायक और दो छोटे भाई हैं । घर में आटा ना होने से सभी का उपवास हो गया था । मैंने कहा भाइयों को भी क्यों नहीं ले आते हो काम पर साथ में ? बोला कैसे लायें दोनों चौदह् बरस से छोटे हैं साथ में ले आवें तो टोले वाले शिकायत की धमकी देते हैं क्योंकि छोटे बच्चों से काम कराना जुर्म है । उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । क़्या यही भूखी, लाचार और दुर्बल पीढी देश की बागडोर अपने कमज़ोर हाथों में थामने वाली है ? क़ुछ विशिष्ट दिवसों पर बस्तियों में मिठाई वितरत कर देने से या पाँच सितारा होटलों के वातानुकूलित सभागारों में सम्मेलन और गोष्ठियाँ आयोजित कर बड़ी-बड़ी घोषणायें करने से हालात नहीं बदलने वाले हैं । उसके लिये समस्याओं की तह में जाकर उनके निवारण के लिये प्रयत्न करने होंगे तभी बदलाव की कोई उम्मीद दिखाई देगी । आज भी देश का बड़ा प्रतिशत ग़रीबी की रेखा के नीचे गुज़र बसर करता है । आज भी उनके यहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाने की समस्या विकराल रूप से उन्हें जकड़े हुए है ऐसे में एक व्यक्ति की कमाई से सबका पेट भरना असम्भव है वह भी तब जब साल में कई दिन उसे बेरोज़गार घर में बैठना पड़्ता है । इतनी मँहगाई के समय में अच्छे अच्छे लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है तो ग़रीबों का तो भगवान ही मालिक है । पेट में जब भूख की आग सुलग रही हो तो आदर्शों की बातें बड़ी बेमानी लगती हैं । घर के वयस्क सदस्य काम की तलाश में निकल जाते हैं और नबालिग भाई बहन ऐसे ही गली मौहल्लों में निरुद्देश्य लवारिस भटकते रहते है । और अगर ग़लत सोहबत में पड़ जाते हैं तो चोरी, जुआ, लड़ाई झगड़ों में लिप्त हो अपना बचपन बिगाड़ लेते हैं जिसकी सम्भावनायें निश्चित रूप से कहीं अधिक हैं । बच्चे स्कूल गये या नहीं, उन्हें कुछ खाने को मिला या नहीं इसकी सुध लेने की फुर्सत किसी के पास नहीं है । ऐसे में इन बच्चों का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय दिखाई देता है । अगर ये किशोर बच्चे अपने माता पिता के साथ उनके कार्य स्थल पर जाकर उनके साथ काम करके उनका हाथ बटाते हैं और खुद भी कुछ कमा कर घर की आमदनी के संवर्धन में कुछ योगदान करते हैं तो उसमें हर्ज ही क्या है ? यही वह आयु होती है जब बच्चे एकाग्र चित्त से किसी हुनर को मन लगा कर सीख सकते हैं । समाज के अन्य वर्गों के बच्चे क्या इस आयु में पढ़ाई के अलावा अपनी रुचि के अनुसार विविध प्रकार की कलायें नहीं सीखते ? फिर अगर ये बच्चे अपने माता पिता के साथ कारखानों में जाकर उनकी निगरानी में रह कर उंनकी कारीगरी की बारीकियों को सीखते हैं तो क्या यह ग़लत है ? जब तक वे वयस्क होंगे अपने काम में पूरी तरह से दक्ष हो जायेंगे जो निश्चित रूप से यह उनके लिये फायदे का सौदा ही होगा । बच्चे श्रम की महिमा को समझेंगे और आत्मनिर्भरता का मधुर फल चख सकेंगे । बच्चे जब तक छोटे होते हैं तभी तक वे एकाग्रता से कुछ सीख सकते हैं । एक बार ध्यान भटक गया तो फिर कुछ सीखना असम्भव हो जाता है । कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर । जो बच्चे ना तो स्कूल में जाकर पढ़ाई कर रहे है और ना ही किसी किस्म का व्यावसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं उनका बचपन तो बर्बाद ही हो रहा है ना ? मैं बच्चों को काम के बोझ के तले पिसते कतई देखना नहीं चाहती लेकिन दिशाहीन भटकते बचपन को प्रतिदिन देखना भी उतना ही कष्टप्रद है । मेरा सामाजिक संस्थाओं से अनुरोध है कि वे इस विकराल समस्या का उचित निदान ढूढें । साल में दो चार दिन बस्तियों में जाकर बच्चों की सुध लेने से काम नहीं चलेगा । 365 दिन के साल में बाकी के 360 दिन वे क्या करते है, क्या खाते हैं, कैसी सोहबत में रहते हैं, उनका किस तरह का विकास हो रहा है, किस तरह की गतिविधियों में वे संलग्न रहते है और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति क्या इतनी मजबूत है कि वह इन बच्चों का लालन पालन बिना किसी अतिरिक्त आमदनी के सुचारू रूप से कर सकते हैं इन बातों पर भी विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है । क्या समाजसेवी संस्थायें ईमानदारी से यह कर्तव्य निभाती हैं या उनकी निष्ठा सिर्फ साल के दो चार दिनों तक ही सीमित होती है ? मेरे विचार से यदि किसी की आर्थिक स्थिति अनुमति नहीं देती है तो बच्चों को काम पर जाने देने में कोई हर्ज नहीं है । ज़रूरत इस बात की है कि उनके लिये कार्यस्थल पर काम करने की शर्तें और स्थितियाँ अनुकूल और आसान हों, वहाँ सभी तरह की स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध हों, खाने पीने का उचित प्रबन्ध हो, उनसे उनकी क्षमता से अधिक काम ना लिया जाये और उनके लिये कुछ समय खेल कूद और मनोरंजन के लिये भी सुनिश्चित किया जाये । यदि इन बातों पर ध्यान दिया जायेगा तो निश्चित ही यह समाज अपराध मुक्त हो सकेगा और समाज का हर सदस्य आत्मसम्मान और आत्मविश्वास से भरा होगा । तब ही हम निश्चिंत होकर देश की बागडोर इस पीढ़ी को सौंप सकेंगे ।


साधना वैद

Friday, April 10, 2009

अन्यायपूर्ण न्याय प्रणाली

हमारी न्याय व्यवस्था का पहला उद्देश्य है कि चाहे कोई गुनहगार भले ही छूट जाये लेकिन किसी बेगुनाह को दण्ड नहीं मिलना चाहिये । निश्चित ही यह करुणा और मानवता से परिपूर्ण एक बहुत ही पावन भावना है । लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है ? क्या इस बात को आधिकारिक तौर पर प्रमाणित किया जा सकता है कि आज भारतीय जेलों में जितने भी कैदी हैं उन पर लगे सारे आरोप बाक़ायदा सिद्ध हो चुके हैं और जो बाइज़्ज़त बरी होकर बेखौफ बाहर घूम रहे हैं वे वास्तव में निरपराध हैं ?
हमारी न्याय व्यवस्था तो इतनी लचर और लाचार है कि जिन लोगों के अपराध सिद्ध हो चुके हैं और जिनको देश की सर्वोच्च अदालत से दण्डित भी किया जा चुका है उनको भी सज़ा देने से डरती है । संसद पर हमला करने वाले अपराधियों को क्या आज तक सज़ा मिल पाई है ? कुछ हमारी न्याय प्रक्रिया धीमी है कुछ सरकार की नीतियाँ दोषपूर्ण हैं जो न्याय प्रक्रिया को बाधित करने के लिये किसी न किसी तरह से आड़े आ जाती हैं ।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है Justice delayed is justice denied . अगर यह सत्य है तो हमारे यहाँ तो शायद न्याय कभी हो ही नहीं पाता । एक तो मुकदमे ही अदालतों में सालों चलते हैं दूसरे जब तक फैसले की घड़ी आती है तब तक कई गवाह , यहाँ तक कि चश्मदीद गवाह तक अपने बयानों से इस तरह पलट जाते हैं कि वास्तविक अपराधी सज़ा से या तो साफ साफ बच जाता है या बहुत ही मामूली सी सज़ा पाकर सामने वाले का मुहँ चिढ़ाता सा लगता है । ऐसे में क्या हम सीना ठोक कर यह कह सकते हैं कि फैसला सच में न्यायपूर्ण हुआ है । ऐसे में समाज में न्याय प्रणाली के प्रति असंतोष और आक्रोश की भावना जन्म लेती है । लोगों में निराशा और अवसाद घर कर जाता है और वक़्त आने पर ऐसे चोट खाये लोग खुद अपने हाथों में कानून लेने से पीछे नहीं हटते । गृह मंत्री श्री चिन्दम्बरम पर पत्रकार वार्ता में पत्रकार द्वारा जूता फेंके जाने का प्रसंग इसका ताज़ातरीन उदाहरण है । इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद जिस तरह से उस पत्रकार को आम जनता का समर्थन और शाबाशी मिली वह कहीं न कहीं न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों में पनपते अविश्वास और असंतोष को प्रकट करता है ।
भयमुक्त और अपराध मुक्त समाज की परिकल्पना को यदि साकार रूप देना चाहते हैं तो सबसे पहले मुकदमों के त्वरित निपटान की दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की सख्त ज़रूरत है । आये दिन समाचार पत्र दिल दहला देने वाली लोमहर्षक घटनाओं के समाचारों से भरे होते हैं । पाठकों के दिल दिमाग़ पर उनका गहरा असर होता है । लोग प्रतिदिन कौतुहल और उत्सुकता से उनकी जाँच की प्रगति जानने के लिये अख़बारों और टी. वी. के समाचार चैनलों से चिपके रहते हैं लेकिन पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियों की जाँच प्रक्रिया इतनी धीमी और दोषपूर्ण होती है कि लम्बा वक़्त गुज़र जाने पर भी उसमें कोई प्रगति नज़र नहीं आती । धीरे धीरे लोगों के दिमाग से उसका प्रभाव घटने लगता है । तब तक कोई नयी घटना घट जाती है और लोगों का ध्यान उस तरफ भटक जाता है । फिर जैसे तैसे मुकदमा अदालत में पहुँच भी जाये तो फैसला आने में इतना समय लग जाता है कि लोगों के दिमाग से उसका असर पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और अपराधियों का हौसला बढ जाता है । आम आदमी समाज में भयमुक्त हो या न हो लेकिन यह तो निश्चित है कि अपराधी पूर्णत: भयमुक्त हैं और आये दिन अपने क्रूर और खतरनाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं । य़दि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जायेगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी । गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद कर , उन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा । कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिये । समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे । त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जायेगी ।
इसके लिये आवश्यक है कि न्यायालयों में सालों से चल रहे चोरी या इसी तरह के छोटे मोटे अपराधों वाले विचाराधीन मुकदमों को या तो बन्द कर दिया जाये या जल्दी से जल्दी निपटाया जाये । ऐसे मुकदमों के निपटान के लिये समय सीमा निर्धारित कर दी जाये और भविष्य में और तारीखें ना दी जायें । न्यायाधीशों की वेतनवृद्धि और पदोन्नति उनके द्वारा निपटाये गये मुकदमों के आधार पर तय की जाये । अनावश्यक और अनुपयोगी कानूनों को निरस्त किया जाये ताकि अदालतों में मुकदमों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके और उनके कारण व्यवस्था में व्याप्त पुलिस और वकीलों के मकड़्जाल से आम आदमी को निजात मिल सके । न्यायालयों की संख्या बढ़ायी जाये और क्षुद्र प्रकृति के मुकदमों का निपटान निचली अदालतों में ही हो जाये । अपील का प्रावधान सिर्फ गम्भीर प्रकृति के मुकदमों के लिये ही हो ।
इसी तरह से कुछ कदम यदि उठाये जायेंगे तो निश्चित रूप से समाज में बदलाव की भीनी भीनी बयार बहने लगेगी और आम आदमी चैन की साँस ले सकेगा।

साधना वैद

Tuesday, April 7, 2009

कैसे हों हमारे सांसद !

हम लोगों के सौभाग्य से चुनाव का सुअवसर आ गया है और यही सही वक़्त है जब हम अपनी कल्पना के अनुसार सर्वथा योग्य और सक्षम प्रत्याशी को जिता कर भारतीय लोकतंत्र के हितों की रक्षा करने की मुहिम में अपना सक्रिय योगदान कर सकते हैं । इस समय यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि जिन लोगों को हम वोट देने जा रहे हैं उनका पिछला रिकॉर्ड कैसा है, क्या वे आपराधिक छवि वाले नेता हैं, सामाजिक सरोकारों के प्रति वे कितने प्रतिबद्ध हैं और अपनी बात को दम खम के साथ मनवाने की योग्यता रखते हैं या नहीं । मात्र सज्जन और शिक्षित होना ही वोट जीतने के लिये काफी नहीं है । प्रत्याशी का जुझारू होना परम आवश्यक है वरना वह संसद में मिमियाता ही रह जायेगा और कोई उसकी बात को सुन ही नहीं सकेगा । सर्वोपरि यह भी सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि सत्ता में आने के बाद उसका लक्ष्य जनता की सेवा करना होगा या उसके दायरे में सिर्फ उसका अपना परिवार और नाते रिश्तेदार ही होंगे ।
संसद में केवल हल्ला गुल्ला करने वाले और मेज़ कुर्सी माइक फेंकने वाले लोगों के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये जो विश्व बिरादरी में हम सब के लिये शर्मिंदगी का कारण बनते हैं । वहाँ ज़रूरत है ऐसे लोगों की जो बिल्कुल साफ और स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हों और जिनकी आस्थायें और मूल्य दल बदल के साथ ही बदलने वाले ना हों । संसद में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होना बह्त ज़रूरी है ताकि वे अपने वर्ग के हितों की रक्षा कर सकें और उसकी हिमायत में वज़न के साथ अपनी बात रख सकें । इसके लिये प्रखर बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों और पैनी नज़र रखने वाले ईमानदार आलोचकों की आवश्यक्ता है जो संसद में पास होने वाले ग़लत निर्णयों का डट कर विरोध कर सकें । संसद में हमारे खेतिहर किसान भाइयों की पैरवी के लिये ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े प्रतिनिधियों, व्यापारियों के हितों की रक्षा के लिये उद्योग जगत से जुड़े उद्यमियों, बच्चों के हितों के लिये प्रतिबद्ध शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों, सैन्य गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने के लिये सेना से जुड़े रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों, जनता के हित में पास होने वाले कानूनों के कड़े विश्लेषण के लिये सुयोग्य कानूनविदों, जनता पर थोपे जाने वाले करों की उचित समीक्षा के लिये अनुभवी अर्थशास्त्रियों तथा कलाकारों से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिये सुयोग्य कलाकारों का प्रतिनिधित्व होना बहुत ज़रूरी है । मतदाताओं से मेरा अनुरोध है कि अपना अनमोल वोट देने से पहले वे यह अवश्य सुनिश्चित कर लें कि वे जिस प्रत्याशी को वोट देने जा रहे हैं वह उपरोक्त वर्णित किसी भी कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं । यह अवसर इस बार हाथ से निकल गया तो फिर अगले पाँच साल तक हाथ मलने के सिवा और कुछ बाकी नहीं रहेगा । वोट ना देने या खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी के प्रति अपनी असहमति को व्यक्त करने का मतलब है कि आप अपने अधिकारों को व्यर्थ कर रहे हैं । आपके इस निर्णय से चुनाव प्रक्रिया पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा । कोई न कोई तो चुन कर आ ही जायेगा फिर आपके पास अगले पाँच साल तक उसीको अपने सर माथे पर बिठाने के अलावा कोई चारा न होगा और फिर नैतिक रूप से अपने नेता की किसी भी तरह की आलोचना करने का अधिकार भी आपके पास नहीं होना चाहिये क्योंकि उसे जिताने मे आपकी भूमिका भी यथेष्ट रूप से महत्वपूर्ण ही होगी भले ही वह प्रत्यक्ष ना होकर परोक्ष ही हो ।

साधना वैद्