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Monday, October 28, 2013

इंतज़ार




तुम ज़मीं पर सितारों से मिलते रहे
मैं फलक के सितारों को गिनती रही
तुम बहारों में फूलों से खिलते रहे    
मैं खिज़ाओं में शूलों को चुनती रही 
न बुलाया ही तुमने न दस्तक ही दी  
मैं खलाओं में तुमको ही सुनती रही  
वो जो ख़्वाबों खयालों में मिलना हुआ 
मैं उन्हीं चंद लम्हों में जीती रही 
कि जिन राहों से होकर गुज़रते थे तुम
मैं वहीं नक्शे कदमों को तकती रही 
बेसबब यूँ सवालों में उलझे रहे
कशमकश में उमर यूँ ही कटती रही 
कि न साहिल पे रुकना गवारा हुआ
मैं समंदर की लहरों पे चलती रही ! 

साधना वैद

Tuesday, October 22, 2013

हरसिंगार की अभिलाषा




इससे पहले कि
मेरी निर्मल धवल कोमल
ताज़ा पंखुड़ियाँ कुम्हला कर
मलिन हो जायें ,
मेरी सुंदर सुडौल खड़ी हुई
नारंगी डंडियाँ तुम्हारे 
मस्तक का 
अभिषेक करने से पहले ही 
मुरझा कर
धरा पर बिखर जायें
मुझे बहुत सारा स्थान
अपने चरणों में और
थोड़ा सा स्थान
अपने हृदय में दे दो प्रभु
कि मेरा यह अल्प
जीवन सुकारथ हो जाये
और मेरी इस क्षणभंगुर
नश्वर काया को
सद्गति मिल जाये !



   साधना वैद   

Sunday, October 20, 2013

चलो भर लें उड़ान





आओ ना,
भोर की सुनहरी आभा से
धरती और आकाश
उजागर हो चुके हैं !  
चलो मिल कर गायें
कुछ सुरीले गीत !
भर दें इस संसार को
संगीत की अलौकिक
मधुर स्वर लहरियों से !
भर लें अपने 
मन और आत्मा में
यह दिव्य उजास
जो हमारे उर अंतर के
कोने-कोने को जगमगा दे
और नाप लें अपने
नन्हे-नन्हे पंखों से
यह गगन विशाल कि
आँखों में समाया हर स्वप्न
साकार होने के लिये
नव ऊर्जा से स्फुरित हो
प्राणवान हो सके !
चलो ना,
भर लें उड़ान !



साधना वैद

Tuesday, October 15, 2013

उच्छवास





सघन वन

छिपा जीवन धन

 व्याकुल मन !



 शिथिल तन

  उजड़ा मधुबन

    हारा जीवन ! 


दिवस रैन

अब झरते नैन

  आये न चैन ! 


अँखियाँ रोईं

पल भर न सोईं

   तुम न आये ! 


किस्मत रूठी  

साँसों की डोर टूटी  

सूखे सागर ! 





साधना वैद  

Sunday, October 13, 2013

गठरी



कितनी भारी है यह गठरी
कर्तव्यों और दायित्वों की ! 

प्राण प्रण से
अपनी सामर्थ्य भर
दोनों हाथों से 
इसे अब तक
सम्हाले रही हूँ ! 

लेकिन लगता है
आयु के साथ-साथ
अब क्षमताएं चुक गयी हैं,
शक्ति घट गयी है
और जिजीविषा थक चली है !

मेरी हथेलियों की पकड़
ढीली हो चली है
और जतन से सम्हाली
यह गठरी मेरे
हाथों से धीरे-धीरे
अब सरकने लगी है !

दर्द से टीसती उंगलियों को
चकमा दे
नीचे गिरने को तैयार
इस गठरी को
पूरे जी जान से
मैं कलेजे से लगाये
बचाने के लिये
भरसक प्रयत्नशील हूँ!

लेकिन लगता है
सब कुछ हाथों से 
छूट चला है
और मेरी हर कोशिश
नाकाम हो चली है ! 

तुम्हारी बहुत ज़रूरत
महसूस हो रही है !
तुम होते तो
शायद मेरा यह बोझ
कुछ हल्का हो जाता !

साधना वैद