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Saturday, October 30, 2010
टूटे घरौंदे
गहराई से फूटती व्याकुल,
सुरीली, भावभीनी आवाज़ को
हवा के पंखों पर सवार कर
मैंने तुम्हारा नाम लेकर
तुम्हें पुकारा था !
लेकिन मेरी वह पुकार
वादियों में दूर दूर तक
ध्वनित प्रतिध्वनित होकर
मुझ तक ही वापिस लौट आई
तुम तक नहीं पहुँच सकी !
जब तीव्र प्रवाह के साथ बहती
वेगवान जलधारा की
चंचल चपल लहरों पर
अपनी थरथराती तर्जनी से
मैंने तुम्हारा नाम लिखा था
और जो अगले पल ही पानी में
विलीन हो गया और
जिसे तुम कभी पढ़ नहीं पाये !
जब जीवन सागर के किनारे
वक्त की सुनहरी रेत पर
मैंने तुम्हारे साथ एक नन्हा सा
घरौंदा बनाना चाहा था
लेकिन उसे बेरहम चक्रवाती
आँधी के तेज झोंके
धरती के आँचल के साथ
अपने संग बहुत दूर उड़ा ले गये
और तुम उस घरौंदे को
कभी देख भी ना सके !
और अब जब ये सारी बातें
केवल स्मृति मंजूषा की धरोहर
बन कर ही रह गयी हैं तो
कैसा दुःख और कैसी हताशा !
जहाँ नींव ही सुदृढ़ नहीं होगी
तो भवन तो धराशायी होंगे ही
फिर चाहे वो सपनों के महल हों
या फिर यथार्थ के !
साधना वैद !
Thursday, October 28, 2010
चुनौती
मौन की निशब्द बहती धारा में
मुझे बहुत गहरे उतरना है
और अंगार सी धधकती सीपियों से
शीतल, सुमधुर, सुशांत शब्दों के
माणिक मुक्ता चुन कर लाने हैं !
दर्द भरे स्वरों के आरोह अवरोह पर
सवार हो वेदना के गहरे सागर में
डूब कर भी मुझे अपने कंठ के
अवसन्न मृतप्राय स्वरों में
उमंग और उल्लास के
जीवन से भरपूर उन
स्वरों को जिलाये रखना है
जो सुखों की सृष्टि कर सकें !
कड़वाहट के बदरंग घोल में
डूबे अपनी चाहतों के
जर्जर आँचल को मुझे
बाहर निकालना है
और उसे झटकार कर
दायित्वों की अलगनी पर
इस तरह सुखाना है
कि किसी पर भी उस
बदरंग घोल के छींटे ना आयें
और मेरे उस जर्जर आँचल से
हर्ष और उल्लास के
खुशनुमां सुगन्धित फूल
चहुँ ओर बिखर जाएँ !
साधना वैद
Sunday, October 24, 2010
संकल्प
आँखों के आगे पसरे
मंज़रों को झुठलाना होगा,
कानों को चीरती
अप्रिय आवाजों को भुलाना होगा,
मन पर पड़ी अवसाद की
शिलाओं को सरकाना होगा,
दुखों के तराने ज़माने को नहीं भाते
कंठ में जोश का स्वर भर
कोई मनभावन ओजस्वी गीत
आज तम्हें सुनाना होगा !
ऐ सूरज
आज मुझे अपने तन से काट
थोड़ी सी ज्वाला दे दो
मुझे अपने ह्रदय में विद्रोह
की आग दहकानी है,
मुझे बादलों की गर्जन से,
सैलाब के उद्दाम प्रवाह से,
गुलाब के काँटों की चुभन से
और सागर की उत्ताल तरंगों की
भयाक्रांत कर देने वाली
वहशत से बहुत सारी
प्रेरणा लेनी है !
अब मुझे श्रृंगार रस के
कोमल स्वरों में
संयोग वियोग की
कवितायें नहीं कहनी
वरन् सम्पूर्ण बृह्मांड में
गूँजने वाले
वीर रस के ओजस्वी स्वरों में
जन जागरण की
अलख जगानी है !
और सबसे पहले
स्वयं को नींद से जगाना है !
साधना वैद
Wednesday, October 20, 2010
कोई तो होता
जिसे अपने पैरों के छाले
मैं दिखा पाती और
जो महसूस कर पाता कि
कितने दिनों से अंगारों पर
मैं अकेली चली जा रही हूँ,
वो आगे बढ़ कर मुझे सहारा देकर
इन अंगारों से बाहर खींच लेता
और मेरे जलते पैरों पर
प्यार की बर्फ फेर कर
उन्हें शीतल कर देता !
कोई तो होता
जिससे मैं अपने मन की
हर बात कह पाती
और वह अपनी ओर से
कुछ भी जोड़े घटाए बिना
सिर्फ मुझे बोलने देता
और मैं अपना सारा गुबार
उसके सामने बाहर निकाल कर
बिलकुल रिक्त हो जाती !
कोई तो होता
जो मेरे दग्ध ह्रदय की
हर बात बिन बोले ही
समझ लेने का माद्दा रखता,
मेरी हर ख्वाहिश को
पूरा करने की चाहत रखता ,
जिसे मेरी बातें सुनना अच्छा लगता,
जिसे मेरे साथ समय बिता कर
मुस्कुराने का मन होता,
जो मन से मेरे साथ की लालसा
अपने ह्रदय में संजो कर रखता !
कोई तो होता
जो मेरे व्यथित ह्रदय की
वेदना की भाषा को समझता
मेरे मस्तक पर प्यार से हाथ फेर
मुझे आश्वस्त कर देता,
और मेरी आँखों से बहती
अविरल अश्रुधारा को
अपनी उँगलियों से पोंछ
मेरे मन को पीड़ा के भार से
हल्का कर देता !
कितना प्राणान्तक है
यह ख़याल कि
किसी को मेरी चाहत नहीं,
किसीको मेरी ज़रूरत नहीं,
किसीको मेरे होने ना होने से
कोई फर्क नहीं पड़ता,
मैं बस व्यर्थ में जिए जा रही हूँ
बेवजह, बेज़रूरत,
बेआस, बेआवाज़
सिर्फ इसलिए कि
साँसों के विस्तार पर
अपना कोई वश नहीं है !
कोई तो होता
जो सिर्फ एक बार कह देता
ऐसा तो बिलकुल नहीं है
मेरे लिये तुम
बहुत कीमती हो
और मुझे तुम्हारी
बहुत ज़रूरत है !
साधना वैद
Thursday, October 7, 2010
* क्या है मेरा नाम *
उस दिन अपनी एक डॉक्टर मित्र संजना के यहाँ किसी काम से गयी थी ! संजना अपने क्लीनिक में मरीजों को देख रही थी ! मुझे हाथ के संकेत से अपने पास ही बैठा लिया ! सामने की दोनों कुर्सियों पर एक अति क्षीणकाय और जर्जर लगभग ८० वर्ष के आस पास की वृद्ध महिला और एक नौजवान लड़की, लगभग १६ -१७ साल की, बैठी हुईं थीं ! वृद्धा की आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा चढ़ा हुआ था ! कदाचित वह अपनी पोती के साथ अपनी किसी तकलीफ के निदान के लिये संजना के पास आई थीं ! संजना ने उनकी सारी बातें ध्यान से सुनीं और प्रिस्क्रिप्शन लिखने के लिये पेन उठाया ! आगे का वार्तालाप जो हुआ उसे आप भी सुनिए –
संजना - अम्मा जी अपना नाम बताइये !
पोती - आंटी ज़रा जोर से बोलिए दादी ऊँचा सुनती हैं !
संजना - अम्मा जी आपका नाम क्या है ?
पोती - दादी आंटी आपका नाम पूछ रही हैं !
दादी - नाम ? मेरो नाम का है ? मोए तो खुद ना पतो !
संजना – तुम ही बता दो उन्हें याद नहीं आ रहा है तो !
पोती – आंटी दादी का नाम तो मुझे भी नहीं पता ! हम तो बस दादी ही बुलाते हैं !
संजना – अम्माजी आपको घर में किस नाम से बुलाते हैं सब ?
इतनी देर में वार्तालाप के लिये सही वोल्यूम सेट हो गया था !
दादी – घर में तो सब पगलिया पगलिया कहत रहे ! छोट भाई बहन जीजी जीजी कहके बुलात रहे ! सादी के बाद ससुराल में अम्माजी बाऊजी दुल्हन कह के बुलात रहे ! मोकूँ कबहूँ मेरो नाम से काऊ ने ना बुलायो ! तो मोए तो पतो ही नईं है ! ना जाने का नाम रखो हतो बाउजी ने !
संजना – घर में और रिश्तेदार भी तो होंगे जो आपसे बड़े होंगे वो कैसे बुलाते थे ?
दादी – हाँ बुलात तो रहे पर कोई को मेरो नाम लेबे की कबहूँ जरूरत ही ना परी ! सब ऐसे ही बुलात रहे बिसेसर की दुल्हन, के रोहन की माई और के रजनी की माई ! बच्चा बच्ची सब अम्मा, माई कहके बुलात रहे !
विश्वेश्वर उनके पति का और रोहन और रजनी उनके बच्चों का नाम था !
संजना – अरे कोई तो होगा आस पड़ोस में जो आपको किसी नाम से बुलाता होगा !
दादी सोच में डूबी कुछ असहज हो रही थीं !
दादी – हाँ बुलात काहे नहीं रहे ! रामेसर और दुलारी दोऊ देबर ननद भाभी कहत रहे ! उनके बाल गोपाल बबलू, बंटी, गुडिया, मुनिया सब ताईजी कहत रहे ! भाई बहिन के बच्चा कोऊ बुआ तो कोई मौसी कहत रहे ! नन्द के बच्चा मामी कहके बुलात रहे ! आस पड़ोस के लोग कोई काकी तो कोई चाची कहके बुलात रहे ! मेरे को अपनो नाम सुनबे को कोई काम ही ना परो कबहूँ ! मोए सच्चेई याद ना परि है कि मेरो का नाम है !
पोती – अच्छा दादी दादाजी आपको किस नाम से बुलाते थे ?
दादी सकुचा गईं !
दादी – जे कैसो सवाल है लली ? हमार जमाने में मरद अपनी जोरू को नाम ना ले सकत थे ! ना उन्होंने कभी मोए पुकारो ! बस पास आयके काम बता देत थे सो हम कर दिया करती थीं ! कभी बहुत जरूरत परी तो ‘नेक सुनियो’ से काम चल जात थो !
दादी घोर असमंजस में थीं ! मैं भी सोच रही थी वाकई स्त्री की क्या पहचान है ! उसका अपना सारा परिचय इतने टुकड़ों में बँट जाता है कि वह स्वयं अपनी पहचान खो देती है ! वृद्धा दादी की याददाश्त क्षीण हो गयी थी ! वे शायद इसीका इलाज कराने आयी थीं ! विडम्बना देखिये उन्हें बाकी सबके नाम याद थे लेकिन अपना नाम ही याद नहीं था ! शायद इसलिये कि अपनी याददाश्त में उन्हें उनके अपने नाम से कभी किसीने पुकारा ही नहीं ! शायद इसलिए कि उन्होंने कभी अपने लिये जीवन जिया ही नहीं ! अनेक रिश्तों में बंधी वे अपने दायित्व निभाती रहीं और अपनी पहचान खोती रहीं और उससे भी बड़ी बात बच्चों तक को उनका नाम याद नहीं है जैसे स्त्री का अपना कोई स्थान, कोई वजूद या कोई पहचान नहीं है वह महज एक रिश्ता है और उसका दायित्व उस रिश्ते के अनुकूल आचरण करना है ! इन सारे रिश्तों की भीड़ में वह कभी ढूँढ नहीं पाती कि उसका स्वयं अपने आप से भी कोई रिश्ता है जिसके लिये उसे सबसे अधिक जागरूक और प्रतिबद्ध होने की ज़रूरत है !
यह संस्मरण सत्य घटना पर आधारित है ! हैरानी होती है यह देख कर कि आज के युग में भी ऐसे चरित्रों से भेंट हो जाती है जो सदियों पुरानी स्थितयों में जी रहे हैं ! ग्रामीण भारत में जहाँ आज भी शिक्षा का प्रसार यथार्थ में कम और सरकारी फाइलों में अधिक है ऐसे उदाहरण और भी मिल सकते हैं ! सोचिये, जागिये और कुछ ऐसा करिये कि कम से कम आपके आस पास रहने वाली हर स्त्री सबसे पहले खुद से रिश्ता जोड़ना सीख सके !
साधना वैद
Monday, October 4, 2010
* अंतर्व्यथा *
मेरी सपनीली आँखों के बेहद
सुन्दर उपवन में अचानक
सूने मरुथल पसर गए हैं
जिनमें ढेर सारे ज़हरीले
कटीले कैक्टस उग आये हैं ,
ह्रदय की गहरी घाटी में
उमंगती छलकती अमृतधारा
वेदना के ताप से जल कर
बिल्कुल शुष्क हो गयी है,
और अब वहाँ गहरे गहरे
गड्ढे निर्मित हो गए हैं,
भावना के अनंत आकाश में
उड़ने के लिये आतुर मेरे
अधीर मन पंछी के पंख
टूट कर लहू लुहान हो गए हैं
और वह भूमि पर आ गिरा है,
बहुत प्यार से परोसी गयी
"तुम्हारी" अत्यंत स्वादिष्ट
व्यंजनों
रेत ही रेत मिल गयी है,
जो मेरे मुख को किसकिसा
कर घायल कर गयी है !
अपने बदन को जिस बेहद
मुलायम, मखमली, रेशमी
आँचल से लपेट मैं आँखें मूँद
उसकी स्निग्ध उष्मा और नरमाई
को महसूस कर रही थी
किसीने अचानक झटके से
उसे मेरे बदन से खींच डाला है
और अनायास ही वह
मखमली आँचल रेगमाल सा
खुरदुरा हो मेंरे सारे जिस्म को
खँरोंच कर रक्तरंजित कर गया है !
जीवन खुशनुमाँ हो न हो
पर इतना भी बेगाना
इससे पहले तो कभी न था
जैसा आज है !
साधना वैद
Friday, October 1, 2010
* कहाँ हो तुम बापू *
बापू के पुण्य जन्म दिवस २ अक्टूबर पर उन्हें एक भावभीनी श्रद्धांजलि एवं एक सविनय प्रार्थना !
बापू तब तुमने जिनके हित बलिदान दिया,
अपने सुख, अपने जीवन को कुर्बान किया,
अब देख पतन उनका दिल तो दुखता होगा,
अपने सपनों का यह दुखांत चुभता होगा !
सच को अपने जीवन में तुमने अपनाया,
सच पर चलने का मार्ग सभी को दिखलाया,
पर भटक गए हैं बापू तेरे शिष्य सभी,
वो भूल चुके हैं जो शिक्षा थी मिली कभी !
है उनका इष्ट आज के युग में बस पैसा,
वह काला हो या फिर सफ़ेद बस हो पैसा,
जो सत्ता की कुर्सी पर जम कर बैठे हैं,
वो आदर्शों की चिता जला कर बैठे हैं !
सच की अवहेला उनका पहला धर्म बना,
हिंसा के पथ पर चलना उनका कर्म बना,
अब नहीं रहे वो वैष्णव पर दुःख कातर जो,
वो नहीं बाँटते पीर पराई कुछ भी हो !
भोली जनता है फिर से शोषित आज हुई,
वह अपनों के ही हाथों फिर से गयी छली,
भारत है फिर से वर्ग भेद में बँटा हुआ ,
पैसे वाला औ धनी, गरीब गरीब हुआ !
है जनता संकटग्रस्त कहाँ हो तुम बापू,
हैं भ्रष्ट हमारे नेता, तुम आओ बापू,
क्या जात पाँत का भेद भाव सह पाओगे ?
हिंसा का तांडव देख सहम ना जाओगे ?
अपने स्व;राज में भी जनता है शोषित क्यों,
जैसी तब थी उसकी हालत है ज्यों की त्यों,
बापू है जनता हिंसक और अराजक गर,
इसको विरोध का ढंग सिखाओ तुम आकर !
पर हित तुमने सुख अपने सब बिसराए थे,
तन ढँक सबका खुद एक वस्त्र में आये थे,
पर खुद से आगे नहीं देख ये पाते हैं,
मानवता की बातें भी ना सुन पाते हैं !
जब करते हैं विकास की नकली सी बातें,
जब शतरंजी चालों की हैं बिछती बीसातें,
जब आम आदमी प्यादे सा मारा जाता,
जब मँहगाई की मार नहीं वह सह पाता !
जब धर्म जाति के नाम लहू है बह जाता,
जब निज लालच के हित इमान है बिक जाता,
जब आधा भारत भूखा ही है सो जाता,
जब टनों नाज गोदामों में है सड़ जाता !
जब घटती है थाली में सब्जी की गिनती,
जब सुनता कोई नहीं गरीबों की विनती,
तब याद तुम्हारी आती है प्यारे बापू,
तुम होते तो कर देते कुछ ऐसा जादू !
सब जोर जुल्म का विलय दिलों में हो जाता,
छल कपट ह्रदय का पल में ओझल हो जाता,
तुम सत्य, अहिंसा, प्रेम, त्याग का पाठ नया,
फिर से सिखला दो और दिखा दो मार्ग नया !
भारत का गर्त हुआ गौरव दिखता होगा,
इस धूमिल छवि को देख ह्रदय जलता होगा,
तुम आओ बापू, एक बार फिर आ जाओ,
अपने भारत को फिर से मान दिला जाओ !
तुम आओ बापू, एक बार फिर आ जाओ,
अपने भारत को फिर से मान दिला जाओ !
साधना वैद