समस्या गंभीर है और जल्दी ही यदि इसका निराकरण नहीं किया गया तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं ! ऐसा क्यों है कि बच्चों में मासूमियत और बचपना गुम होता जा रहा है ! इस समस्या पर चिंतन करें तो कई बातें ऐसी उभर कर सामने आती हैं जो हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि समस्या की जड़ कहाँ है और कितनी गहरी है !
सबसे पहला कारण है संयुक्त परिवारों का टूटना !
पहले जब समाज की बुनियाद संयुक्त परिवार पर टिकी हुई थी बच्चों के सामने कभी अकेले रहने की समस्या ही नहीं आती थी ! घर परिवार में चचेरे, तयेरे, फुफेरे कई बच्चों का साथ होता था जिनके साथ दिन रात खेल कूद, शरारतों और ऊधमबाजी में बच्चों का खूब वक्त बीतता था ! दादी बाबा की कहानियाँ सुनते उनके साथ बोलते बतियाते बच्चे सदैव प्रसन्न रहते और उनके अन्दर सामाजिकता और सद्गुणों का खूब विकास होता ! दादी नानी कहानियों के साथ साथ खूब पहेलियाँ भी पूछतीं जिनसे बच्चों का खूब बौद्धिक विकास भी होता साथ ही मनोरंजन भी खूब होता ! लेकन संयुक्त परिवारों के टूटने से अब बच्चों को स्कूल से घर आने पर कोई हमवयस्क नहीं मिलता ! या तो घर में अपने आप में उलझी थकी हुई माँ मिलती है या माता पिता दोनों ही कामकाजी हों तो या तो घर में सन्नाटा पसरा होता है या किसी आया का साथ मिलता है ! दोनों ही स्थितियाँ बच्चों के लिए हानिकारक होती हैं ! बच्चों को घर में खुल कर हँसते हुए चहकते हुए देखना अब बहुत ही विरल वस्तु हो गयी है ! माता पिता भी गाम्भीर्य का मुखौटा पहने बच्चों से खिंचे खिंचे से रहते हैं और बच्चे उम्र से पहले ही अपना बचपन और चंचलता खोकर खामोश हो जाते हैं !
माता पिता बच्चों की सुरक्षा के प्रति इतने सचेत हो गए हैं कि अब पार्क में खेलने वाले बच्चों के समूह कम ही देखने को मिलते हैं ! अधिकतर वे घरों में अकेले ही रहने लगे हैं ! इसकी भरपाई के रूप में माता पिता उन्हें वीडियो गेम्स दिला देते हैं या मँहगे वाले मोबाइल फोन दिला देते हैं ! बच्चे उन्हींके साथ खेलते हुए एकान्तप्रिय होते जाते हैं ! वे घंटों उसीमें उलझे रहते हैं और समूह में खेलने की भावना क्या होती है सामाजिकता के मायने क्या होते हैं इन मूल्यों को भूलते जा रहे हैं ! ज़ाहिर है ऐसे बच्चे कुंठित हो जाते हैं और समय से पहले ही बुढ़ा जाते हैं !
एक तो करेला कड़वा ऊपर से नीम चढ़ा ! एक तो वैसे ही आजकल के बच्चे अकेले ही रहना पसंद करने लगे हैं उस पर कोरोना की इस आपदा ने बच्चों को बिलकुल अकेला कर दिया ! घर से बाहर निकलने पर बिलकुल पाबंदी हो गयी ! पार्क, बाग़ बगीचे, खेलों के मैदान और गलियाँ सब सूने हो गए और ऑनलाइन क्लासेस के बहाने सभी बच्चों के हाथों में मोबाइल फोन आ गए और खुल गया उनके सामने ऐसी तिलस्मी दुनिया का दरवाज़ा जिसमें घुसने से किसी समय में बड़ों को भी डर लगता था ! जब इतनी छोटी सी उम्र में बच्चे बाल सुलभ कहानियों और खेल कूद की जगह ऐसी वर्जित बातों की तरफ आकृष्ट होने लगेंगे तो उनमें बचपना, मासूमियत और भोलापन कहाँ रह जाएगा ! जैसे कार्यक्रम बच्चे देखने लगे हैं उनसे बच्चों के मन में नकारात्मकता को अधिक प्रश्रय मिलता है और उनकी सोच इससे प्रभावित होने लगती है !
बच्चों में सुसाहित्य के प्रति कम होती रूचि भी इसका एक बड़ा कारण है ! बच्चों की पत्रिकाएँ अब कहाँ इतनी लोकप्रिय रह गयी हैं ! हम लोग जब छोटे थे तो घर में चन्दा मामा, पराग, नंदन, चम्पक, बाल भारती ढेरों पत्रिकाएँ आती थीं जिनमें बहुत ही सुन्दर कहानियाँ आती थीं जो बच्चों के चारित्रिक विकास के लिए बहुत सहायक होती थीं और बच्चे उनसे बहुत कुछ सीखते थे ! अब ज़रा टी वी पर देखिये ! बच्चों के कार्यक्रम में छोटे छोटे बच्चे बड़ों की भूमिका में अभिनय करते हैं तो कितनी निम्न स्तरीय भाषा का प्रयोग करते हैं ! क्योंकि घर में अब सिर्फ उन्हें बड़ों की ही कंपनी मिलती है बच्चों की नहीं ! संवाद लिखने वाले लेखकों की कल्पना यहीं तक दौड़ पाती है कि पत्नी बनी छोटी सी बच्ची पति बने छोटे से बच्चे को खूब खरी खोटी सुनाये और खूब लड़ाई झगड़ा करे ! जब हमने इसे ही मनोरंजन का पर्याय समझ लिया है तो फिर बच्चों के मन से मासूमियत को खँरोंच कर फेंकने का इलज़ाम हम किस पर थोपें ! हमें खुद अपनी सोच, अपने व्यवहार और अपनी महत्वाकांक्षाओं का आकलन नए सिरे से करना होगा कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हम अपने बच्चों के जीवन से जिस तरह से खिलवाड़ कर रहे हैं ! क्या यह वास्तव में उचित है ?
साधना वैद