चंचल, बेकाबू, मतवाला
भागा करता सपनों के संग,
रुकता ही नहीं पल भर को भी
उड़ता फिरता विहगों के संग !
कैसे रोकूँ दीवाने को
सुनता ही कहाँ ये पागल मन,
हाथों से छूटा जाता है
यह चिर चंचल यायावर मन !
नापा करता आकाश क्षितिज
सारी धरती सारे सागर,
विचरा करता परियों के संग
किस्सों से भरता है गागर !
पल भर में सागर के तल की
वह नाप जोख कर आता है,
अगले पल ग्रह नक्षत्रों की
वह छान बीन कर आता है !
फिर जूल्स वारने के संग वह
खुद धरती में घुस जाता है,
सागर की गहराई में जा
जल परियों से मिल आता है !
है भरा हुआ जिज्ञासा से
नित अन्वेषी उत्साही मन,
कैसे इसको मैं बहलाऊँ
है पागल यह यायावर मन !
हर पर्वत, झरने, गाँव, नदी
वन पंछी इसे लुभाते हैं,
किस्सों के सारे पात्र इसे
पुस्तक से निकल बुलाते हैं !
हर दूर देश की वादी में
इसका मन यूँ रम जाता है,
जैसे कितने ही जन्मों से
इसका उस थल से नाता है !
फिर भूला भूला रहता है
यह नादाँ खाम खयाली मन,
मुझको तो प्यारा लगता है
यह भोला सा यायावर मन !
किस्से हर राजा रानी के
परियों के इसको भाते हैं,
महलों, दुर्गों, दालानों के
इसके मन को ललचाते हैं !
इतिहास, सभ्यता, संस्कृति की
बातों में मन इसका रमता,
हो ज़िक्र किसी अन्वेषण का
इसका उत्साह नहीं थमता !
हर शै में डूबा रहता है
मेरा यह अति उत्साही मन,
है मेरे अंतर का दर्पण
मेरा निश्च्छल यायावर मन !
हाथों से छूटा जाता है
यह चिर चंचल यायावर मन !
साधना वैद
सुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteवाह! बहुत खूब।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद तिवारी जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत ही खूबसूरत और प्यारी रचना! पढ़कर बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मनीषा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत बढियां रचना
ReplyDeleteआपका दिल से बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद भारती जी ! सप्रेम वन्दे !
Deleteअद्भुत
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहृदय से बहुत बहुत आभार आपका उर्मिला जी ! दिल से धन्यवाद !
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