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Friday, June 24, 2016

परछाईं




जहाँ तुम कहोगे वहीं मैं चलूँगी
जिधर पग धरोगे उधर पग धरूँगी !

जो चाहोगे मैं खुद को छोटा करूँगी
मैं पैरों के नीचे समा के रहूँगी !

जो चाहोगे दीवार पर जा चढूँगी
मैं तुमसे भी बढ़ कर ज़मीं नाप लूँगी !

मैं पानी की लहरों पे चलती रहूँगी
मैं दुर्गम पहाड़ों पे चढ़ती रहूँगी ! 

जिधर तुम मुड़ोगे मैं संग में मुड़ूँगी
मैं हर एक कदम संग तुम्हारे बढूँगी !

अंधेरों में तुमको मैं घिरने न दूँगी
अकेला कभी तुमको रहने न दूँगी !

रहूँगी सदा साथ परछाईं बन कर
मगर शर्त है दीप बुझने न दूँगी !

मगर शर्त है दीप बुझने न दूँगी ! 


साधना वैद

Wednesday, June 22, 2016

सम्वेदना की नम धरा पर --- आदरणीया मिथिलेश सक्सेना जी की नज़र से

प्रेम हो ललकार हो या वेदना का संग
साधना की तूलिका ने भर दिये सब रंग।।
संंवेदना की नम धरा पर' इस अनुपम काव्य संग्रह में साधना जी ने अपनी सरल एवं विलक्षण प्रतिभा से जीवन के हर आयाम को151 कविताओं में समेट लिया है। कवितायें सरल शब्दों में होने से पाठक बडी सरलता से उन्हें हृदयंगम कर सकता हे परन्तु भाव इतना सशक्त होता है कि पढते समय अचानक रुक कर सोचना पड़ता है हतप्रभ हो जाते है - उनका भाव जानकर। यह लेखिका की बिलक्षण प्रतिभा का कमाल है।
कविताओं का विषय चाहे नारी हो , माँ हो,परिवार हो, प्रक्रति हो, समाज प्रणय या स्वयं भगवान हों, बड़े गरिमामय शब्दों में एक कुशल कलाकार की तरह बड़े संवेदनशील शब्दो में सजा कर उन्हे जनमानस के सामने परोसना साधनाजी की विशेषता प्रतीत होती है।
अपनी हर कविता में उनके अपने दृढ निश्चयी व्यक्तित्व की छाप देखने को मिली है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही विदित होता है - हर कविता में संवेदनाओं का गुबार है - शिकायत है तो सहमति भी है, प्रेम है तो ललकार भी है -तकरार है तो समर्पण भी है।
साधनाजी को मै बहुत करीब से तो नही जानती हूँ पर मुझे उनकी हर कविता में उनके उत्कृष्ट व्यक्तित्व की छाप देखने को मिली और शायद इसीलिये कवितायें हृदय को बहुत करीब से छूती हुई प्रतीत हुई।
कुल मिलाकर यह काव्य संग्रह एक अनुपम पुस्तक है जिसे हमारे हाथो मे बहुत पहले होना चाहिये था। जीवन के हर पड़ाव के व्यक्ति के लिये यह परम उपयोगी है। मैं इस धरहर की सफलता के लिये हृदय से ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ एवं आशा करती हूँ कि इसी प्रकार के और नये काव्य संग्रह जनमानस को पढने के लिये उपलब्ध होते रहें - यह मेरा प्रेमपूर्ण आग्रह है प्रिय साधनाजी से।

मिथिलेश सक्सेना
रिटायर्ड व्याख्याता
(अँग्रेजी साहित्य)




Saturday, June 18, 2016

हमारे बाबूजी



पितृ दिवस पर सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई

विश्वास का आधार – बाबूजी
अनुशासन की पुकार – बाबूजी
सह्माती फटकार – बाबूजी
प्यार की फुहार – बाबूजी  
समस्या का समाधान - बाबूजी
हर फ़िक्र का निदान – बाबूजी
काँटों की सीत्कार – बाबूजी
फूलों का हार - बाबूजी
सूरज की अगन – बाबूजी
सावन का घन – बाबूजी  
हौसले की ईंट – बाबूजी
बारिश की छींट – बाबूजी
जीवन के रक्षक – बाबूजी
सद्गुणों के शिक्षक – बाबूजी
सबकी मिसाल – बाबूजी
अँधेरे में मशाल – बाबूजी
ज्ञान का भण्डार – बाबूजी
खुशियों का संसार – बाबूजी
तपस्वी का ध्यान – बाबूजी
गीता का ज्ञान – बाबूजी
परिवार की शान – बाबूजी
हमारा अभिमान – बाबूजी
बाबूजी, बाबूजी, बाबूजी
हमारे आदर्श, हमारे गुरू
हमारे जीवनाधार - बाबूजी !

पितृदिवस पर आपकी पुण्य स्मृति को हमारा भावभीना नमन बाबूजी !
इस भौतिक जगत में हमारा वजूद आप ही से है और इसके लिये हम
जन्मजन्मांतर सदैव आपके ऋणी रहेंगे !

साधना वैद

Wednesday, June 15, 2016

ज़रा ठहर तो बच्चू




ठहर ज़रा
कितना हँसायेगा
पागल दोस्त !

तेरी औ’ मेरी
कितनी प्यारी दोस्ती
जाने ना कोई

रुक जा भाई
न मचा गुदगुदी
पेट ना दुखा  

अपने दाँत  
गिन लेने दे मुझे
काटना मत

बुद्धू कहीं का
मत हँस इतना
मम्मा मारेगी

रुक जा बच्चू
खूब खबर लूँगा
डाँट पड़ी तो


पागल है क्या
पिटवाएगा मुझे
माँ आ रही है

खड़ा हुआ हूँ
तुम्हारी वजह से
तीन टांग पे

कैसे दोस्त हो
कितना छकाओगे
थक गया हूँ

हँसी हँसी में
उँगली न काटना
कान खींचूँगा

टेढ़ी सी पूँछ
डरी डरी सी आँखें
जोकर है तू

साधना वैद

Saturday, June 11, 2016

सुरभित प्रेम




दिग दिगंत
सुरभित प्रेम से
दिव्य है भाव
सागर से गहरा
आकाश से व्यापक !


प्रीत की ज्योत
सदा बाले रखना
उर अंतर
तृप्त रहेगा मन
आलोकित जीवन !


रही निहार
खिड़की पर खड़ी
बूंदों की लड़ी
कब आयेगी पिया
तेरे आने की घड़ी !


प्रेम के रंग
भावों की पिचकारी
रंग दे पिया
अपने ही रंग में
मेरी चूनर कोरी !


दिव्य प्रकाश
प्रेम मय जगत
धरा प्रफुल्ल
करे अभिनंदन
नवोदित रवि का !


रास की रात
मंत्रमुग्ध राधिका
विमुग्ध कान्हा
हर्षित ग्वाल बाल
आल्हादित यमुना !



साधना वैद  

चित्र --- गूगल से साभार




Thursday, June 9, 2016

तीन अध्याय


जीवन की नाट्यशाला के निर्गम द्वार पर खड़ी हो देख रही हूँ पीछे मुड़ के एक नन्ही सी बच्ची को ! बुलबुल सी चहकती, हिरनी सी कुलाँचे भरती, तितली सी उड़ती फिरती ! निर्बंध उन्मुक्त बिंदास ! ढलान से उतरती एक वेगवान पहाड़ी नदी सी कलकल छलछल करती ! गाती गुनगुनाती थिरकती ! बादलों से बातें करती ! पूनम के चाँद के सलोने से प्रतिबिम्ब को अपनी लहरों के आँचल में समेटती सहेजती सँवारती, घंटों अपलक निहारती ! सितारों से अथक निरंतर ढेर सारी बातें करती ! हवाओं के उजले पन्नों पे भावनाओं की पैनी नोक से जाने क्या-क्या उकेरती ! सुन्दर सी सुनहरी डायरी में कभी कवितायें लिखती कभी कहानियाँ ! दर्पण में अपनी छवि को निहार कभी मुस्कुराती, कभी खिलखिलाती, कभी इठलाती तो कभी शर्माती ! और फिर सुख के झूले पर खूब ऊँची-ऊँची पींगें भरती हुई वो नन्ही सी लड़की एक दिन बड़ी हो गयी ! दुल्हन बनी, डोली सजी ! नन्ही सी नाज़ुक सी वो चंचल लड़की आँखों में ढेर सारे सपने सँजोये साजन के घर चली ! जीवन यात्रा का पहला अध्याय खत्म हुआ ! 



घर बदला, भूमिका बदली, संगी साथी बदले, प्राथमिकताएं बदलीं ! अब दिन भर उसका साथ देते चाय नाश्ते खाने के इंतजाम में खनखनाते रसोईघर के बर्तन और समय बीतता दिन भर घर की साफ़ सफाई करते, खाना बनाते, कपड़े धोते या साग सब्जी काटते ! लिखने के लिये भी थीं कई चीज़ें ! आटा, दाल, चावल, चाय, चीनी, घी, तेल, मसालों की सूचियाँ, दूधवाले, प्रेस वाले, किराने वाले, अखबार वाले के हिसाब, घर खर्च की प्रविष्टियाँ और रिश्तेदारों की औपचारिक चिट्ठियों के औपचारिक जवाब ! हवाओं के उजले पन्नों पर नहीं बच्चों की भरी हुई कॉपियों में से बचे कोरे पन्नों की हाथ की सिली पुरानी कॉपी में ! घर गृहस्थी के खर्चों की चिंता उसके माथे पर स्थाई सिलवटें डाल गयी थी ! बच्चों की स्कूल की फीस, यूनीफार्म, बैग, टिफिन, पानी की बोतल, कॉपी किताबों का खर्च, दवा इलाज का खर्च, आये गये मेहमानों की खातिरदारी का खर्च और एक बड़े संयुक्त परिवार में किसी भी समय आकस्मिक रूप से घटित हो जाने वाली आपातकालीन स्थिति का खर्च ! सुबह के चार पाँच बजे से रात के ग्यारह बजे तक की उसकी दिनचर्या का हर पल निर्धारित था ! घर गृहस्थी के कामों के अतिरिक्त बच्चों के रोज़ के लैसंस की रिवीज़न और होमवर्क, हर समय होने वाले टेस्ट्स और इम्तहान क तैयारी और बच्चों को पढ़ाते हुए पूरी-पूरी रातों के रतजगे ! बच्चे सो जाते और वह जाग कर कभी इसे जगा कर चाय देती कभी उसे ! घर के बुजुर्गों की समय से दवा और जोड़ो के दर्द से पीड़ित अंगों की मालिश ! ज़िम्मेदारियों की एक लंबी सूची ! उसके रात दिन पंख लगा इसी तरह उड़ते जाते ! दूर-दूर तक फैले खानदान में कभी इसकी शादी, उसका भात, इसका जन्मोत्सव, उसका श्राद्ध ! घर परिवार, बाल बच्चे, नाते रिश्तेदारों के दायित्वों को वहन करने की चिंता में रात दिन की जी तोड़ मेहनत ! उसके पास सुलझाने को थीं अनेकों रिश्तों की ढेर सारी अनसुलझी पहेलियाँ ! वह जैसे एक निमित्त मात्र थी परिवार के बाकी सारे सदस्यों की सुख सुविधा जुटाने के लिये ! कुछ उसे भी चाहिए इसकी चिंता कहाँ थी किसीको ! जीवन के संघर्षमय इस अध्याय में रिश्तों के एक बड़े से हुजूम में सबके संग होते हुए भी वह थी नितांत निसंग और एकाकी ! मुरझाई सी वह लड़की धीरे-धीरे खामोश होती जा रही थी ! उसके होंठ मुस्कुराना भूल गये थे ! मन और चेतना पर छाया हुआ बस एक कर्तव्यबोध था जो उसे जिलाए हुए था और दिन रात उसे एक पैर पर खड़ा रखता था ! जीवन की समस्याओं से जूझते कभी हारते कभी जीतते वह नन्ही सी लड़की अब एक अधेड़ स्त्री बन चुकी थी ! जीवन का दूसरा अध्याय भी सिमट चुका था !


तीसरे अध्याय की आमद के साथ एक बार फिर सन्नाटों, रिक्तता और एकाकीपन का साम्राज्य उसके जीवन में पसर चुका था ! बच्चे अपने-अपने उज्जवल भविष्य की तलाश में उसके नेह नीड़ को छोड़ दूर उड़ चुके थे ! इतने सालों की हाड़ तोड़ मेहनत ने उसकी कमर तोड़ दी थी ! माइग्रेन, स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका और ढेर सारी छोटी बड़ी बीमारियों ने उसके शरीर में स्थाई आवास बना लिया था ! आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था ! धुँधली आँखें, दुर्बल काया और उच्च रक्तचाप से ग्रस्त वह उदास अनमनी सी कभी टी वी के धारावाहिकों से जुड़ने की कोशिश करती, कभी पत्र पत्रिकाओं और उपन्यासों में मन की दुश्चिंताओं के समाधान ढूँढती ! पहले मन में आस थी बच्चे दूर चले गये हैं तो क्या हुआ ! अपनी जड़ों से अलग कोई कैसे पनप सकता है ! यह सब कुछ तो थोड़े समय के लिये अस्थाई व्यवस्था है ! जल्दी ही सब लौट कर अपने घर आ जायेंगे ! उसे व्यग्रता के साथ इंतज़ार रहता उनके फोन का ! भरोसा था उसे दुःख तकलीफ में उसके बच्चे उसका सबसे बड़ा सहारा होंगे ! लेकिन धीरे-धीरे यह भ्रम भी टूटने लगा ! गंभीर संकट की स्थिति में भी सूचना मिलने पर यही प्रत्युत्तर मिलता, “इतनी दूर से तुरंत आना मुश्किल है माँ ! छुट्टी नहीं मिल रही है ! जैसे ही मिलेगी आने का प्रोग्राम बनाते हैं ! आप अपना और पापा का ध्यान रखना !” धीरे-धीरे उसने इस कटु यथार्थ को भी स्वीकार कर लिया कि अपना हर कष्ट हर मुसीबत उसे अकेले ही भोगनी है ! ऐसा कभी न होगा कि संकट बच्चों की सुविधा को देख कर आये या बच्चे उसकी ज़रूरत के अनुसार अपने प्रोग्राम में परिवर्तन कर लें ! वह भगवान से खैर मनाती कि जब बच्चों के घर आने का वक्त आये तो उसे कभी सिर में भी दर्द न हो ताकि बच्चे अपनी छुट्टियों का भरपूर आनंद उठा सकें ! 


कभी चिड़ियों सी चहकती वह नन्ही सी लड़की जीवन के इस तीसरे अध्याय में प्रवेश करने के बाद बिलकुल मौन हो गयी है ! फोन अपने हाथ में ही पकड़े रहती है ! कहीं ऐसा न हो कि बच्चों का फोन आये और वह सुन ही न पाये ! निगाहें गेट पर लगी रहती हैं कि शायद कोई समाचार कोई सन्देश कोरियर से आ जाए ! वैसे सालों से कोई चिट्ठी पत्री नहीं आयी है वह यह भी जानती है ! लेकिन पता नहीं आस की यह डोर किस धागे से बनी है जो कभी टूटती नहीं ! इस अध्याय के कितने पन्ने और बचे हैं कोई नहीं जानता ! लेकिन वृद्धावस्था के डगमगाते जर्जर पुल पर खड़ी सूर्यास्त को अपलक निहारती अब वृद्ध हो चुकी वह नन्ही सी लड़की मुझे किसी गहन तपस्या में लीन दिखाई देती है !





साधना वैद