मेरे अंतर की बंजर धरती,
भावों के खोखले बीज,
विरक्ति का शुष्क सा मौसम,
मन पर छाया अवसाद का
पल पल घना होता साया
पूरी तरह से उजड़ गया है
मेरे मन का उपवन !
अब कविता की पौध नहीं
उगती
मन के किसी भी कोने में !
कभी जहाँ यह फसल लहलहाती
थी
वहाँ सन्नाटों के डेरे
हैं
सूखे मुरझाये फूलों के
मृतप्राय पौधे धरा पर
बिखरे पड़े हैं !
अब यहाँ सुगन्धित फूल
नहीं खिलते
अब यहाँ तितलियाँ नहीं मँडराती
अब यहाँ बुलबुल गीत नहीं
गाती
अब यहाँ भँवरे नहीं
गुनगुनाते
अब यहाँ कोई नहीं आता !
यह मेरे अंतर का वह अभिशप्त
कोना है
जहाँ सिर्फ मैं हूँ और है
मेरी
नितांत निसंग एकाकी
परछाईं
जिसका होना न होना किसी
के लिए
शायद कोई मायने नहीं रखता
!
साधना वैद