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Saturday, July 31, 2021

गोदान

 



‘गोदान’ शब्द सुनते ही एक दिव्य भाव 

एक पवित्र विचार से मन भर जाता है, 

एक अलौकिक सा आत्मबोध 

एक पारलौकिक सी परम्परा का भान 

मन की हर दुविधा हर असमंजस को हर जाता है ! 

कितनी पवित्रता कितने गहरे संस्कार 

मन को उल्लसित कर जाते हैं,

मन मस्तिष्क में और हमारे नेत्रों में 

पूजनीय गोमाता के कितने हार फूलों से 

सुसज्जित चित्र पल पल आकर तिर जाते हैं ! 

इन्हीं विचारों में लीन निकल पड़ी थी 

मैं मंदिर की ओर जहाँ 

फूलों के ढेर पर मुँह मारने के जुर्म में 

लाठी से पीटी जा रही थी एक क्षुधित गाय, 

सुबह के अखबार में सबसे पीछे के पृष्ठ पर 

लहरा रहा था एक चित्र जिसमें 

कूड़े के ढेर से भूख मिटाने की चेष्टा में 

सब्जी के छिलकों से भरे पोलीथीन के पैकेट 

निगल जाने वाली निश्चेष्ट पड़ी थी एक मृत गाय ! 

सामने से जा रहा था एक बड़ा सा ट्रक 

कंकाल प्राय वृद्धा गायों के समूह से भरा 

किसी ‘विशेष’ प्रयोजन से किसी ‘विशेष स्थान’ पर 

नहीं जानती ये गोमाताएं विधि विधान से 

धार्मिक अनुष्ठान के साथ ‘गोदान’ में दी गयी थीं 

या पूर्ण रूप से सूख जाने पर घर से निकाली गयी 

वो वृद्धा ‘माताएं’ थीं जिनकी उपयोगिता 

घर में पूरी तरह से समाप्त हो चुकी थी 

और अब इस बोझ को उठाने में कोई लाभ नहीं था !  

कलयुग में शायद ऐसा ही होता हो ‘गोदान’ 

क्योंकि ट्रक में भरी इन गायों का क्या होगा भविष्य

इससे तो शायद कोई भी नहीं है अनजान ! 


चित्र -- गूगल से साभार 

साधना वैद   

Thursday, July 29, 2021

पावस ऋतु – चंद हाइकु

 



पावस ऋतु

हुआ मन मगन

आये सजन

 

भीगा मौसम

हर्षाये क्षितिज पर

धरा गगन

 

बूँदों के हार

पहन उल्लसित

मुग्ध वसुधा  

 

हुई बावरी

रोम रोम से पीती

मादक सुधा

 

फ़ैली सुरभि

खिल उठे सुमन

गाता पवन

 

सृष्टि हर्षाई

हुआ संगीतमय

वातावरण

 

बूँदों की थाप

टीन की छत पर

बजने लगी

 

घेवर खीर 

मेंहदी की खुशबू

बढ़ने लगी

 

बागों में झूले

कोयल की कूक के

दिन आ गए

 

बेटियाँ आई 

कजली मल्हार के

सुर छा गए


कैसे समेटूँ

सारा शीतल जल 

नन्ही हथेली 


बूँदों का साज़ 

सुन के नाच उठी 

धरा नवेली 

 

गरजी घटा

बरसी रिमझिम

धरा हर्षित

 

उसका प्रेम

फसल के रूप में

हुआ अर्पित !



साधना वैद 

 

 


Friday, July 23, 2021

फैमिली कोर्ट - लघुकथा

 



फैमिली कोर्ट के छोटे से कमरे में अधेड़ वय के पति पत्नी बैठे हुए थे ! पति अत्यंत क्षुब्ध और अप्रसन्न दिखाई दे रहा था पत्नी बेहद असंतुष्ट और दुखी ! मजिस्ट्रेट शालिनी उपाध्याय बारीकी से उनके हाव भाव निरख परख रही थीं ! उन्होंने दोनों से इस उम्र में तलाक के लिए आवेदन करने का कारण पूछा –

शालिनी – “विवाह के पैंतीस साल बाद आप एक दूसरे से तलाक क्यों लेना चाहते हैं ?”

पति – “ये हद दर्जे की झगडालू, बदमिजाज़ और ज़िद्दी हो गयी हैं ! कोई भी लॉजिकल बात इन्हें समझ में नहीं आती ! घर का वातावरण बहुत ही खराब हो गया है ! मेरी कोई बात नहीं सुनतीं जीना दूभर हो गया है !”

पत्नी – “ये एकदम तानाशाह हो गए हैं ! मेरी किसी इच्छा का इनके आगे कोई मोल नहीं है ! सबको अपनी उँगली पर नचाना चाहते हैं ! ये जो चाहें जैसा चाहें बस वही हो घर में ! मैं बिलकुल तंग आ गयी हूँ घर नहीं जेल हो जैसे ! न कहीं घूमने जाना, न किसीसे मिलना जुलना न कभी कोई फिल्म देखने या चाय कॉफ़ी पीने जाना ! पूछिए ज़रा इनसे मेरे लिए कभी कोई उपहार ये कितने साल पहले लाये थे ! हमसे अच्छे तो जेल के कैदी होते हैं अपना काम ख़त्म कर एक दूसरे से हँस बोल तो लेते हैं ! इन्होंने तो खुद अपना व्यवहार ऐसा कड़क बना लिया है कि चहरे पे मुस्कान देखे हुए बरसों बीत गए ! कुछ कहो तो काटने दौड़ते हैं ! कोई भी तो नहीं है घर में जिससे बोल बतिया कर मन हल्का कर लूँ ! बेटियाँ अपनी ससुराल की हो गयीं और बेटे अपनी नौकरी और बहुओं के !” बोलते बोलते पत्नी की आँखों से धाराप्रवाह गंगा जमुना बह रही थी !

पति ने फ़ौरन कमीज़ की जेब से काम्पोज़ की गोली निकाल कर जल्दी से पत्नी के मुँह में रखी और सामने रखा पानी का गिलास उसके होंठों से लगा दिया !

पति - “यही तो है मुसीबत है ज़रा ज़रा सी बात पर रोना धोना शुरू हो जाता है और बी पी बढ़ा लेती हैं ! खुद तो पट हो जाती हैं हम रात रात भर पागलों की तरह सम्हालते फिरें !” झल्लाते हुए पति बोला !

पत्नी – “और आपका ख़याल कौन रखता है ? सारी सारी रात पीठ की सिकाई कौन करता है ? घुटनों में तेल की मालिश कौन करता है ? मेरा किया तो कुछ नज़र ही नहीं आता ना आपको !” पत्नी का रोना और तीव्र हो गया था !

पति – “अच्छा अच्छा ठीक है ! चलो घर चलें ! जैसे इतनी गुज़र गयी लड़ते झगड़ते बाकी भी गुज़र ही जायेगी ! न मुझे तुझ सी कोई और मिलेगी न तुझे मुझसा कोई और !”  मजिस्ट्रेट की ओर देखे बिना दोनों एक दूसरे की बाहों का सहारा लिये कमरे से बाहर आ गये थे ! 


चित्र - गूगल से साभार 

 

साधना वैद


Tuesday, July 20, 2021

मत कुरेदो घाव मन के


 

मत कुरेदो घाव मन के

फिर वही शिकवे गिले और चाँदमारी

हर समय ज़िल्लत सहें किस्मत हमारी  

अब न बाकी ताब है जर्जर हृदय में

कह नहीं पायेंगे शब कैसे गुज़ारी !

बस तुम्हें तो दोष देना सोहता है 

भूल कर भी फ़िक्र कब की है हमारी  

हम अगर कहने पे कुछ जो आ गए तो

खामखाँ जग में हँसी होगी तुम्हारी !

इसलिए तुम मत कुरेदो घाव मन के

दर्द सहना बन चुकी आदत हमारी

तुम रहो खुशहाल अपनी ज़िंदगी में

रंजो गम से दोस्ती है अब हमारी !



चित्र - गूगल से साभार  

साधना वैद  

Tuesday, July 13, 2021

सार्थक चिंतन - कुछ हाइकु

 



मुँह में राम

बगल में खंजर

आम मंज़र

 

आम के आम

गुठलियों के दाम

मौके की बात

 

अब न मिलें

ऐसे सुअवसर

वक्त की घात

 

माता का प्यार

चोंचला अमीरों का

खाते हैं मार

 

सुख न दुःख

निस्पृह है जीवन

बैरागी हम

 

नन्हा परिंदा

उड़ चला गगन

मन मगन 

 

मन पतंग

ज़िंदगी थामे डोर

मंझा हालात

 

कटी पतंग 

भरे आसमान में 

हुई निसंग  

 

साधना वैद

 


Friday, July 2, 2021

कितनी सुन्दर होती धरती

 



कितनी सुन्दर होती धरती, जो हम सब मिल जुल कर रहते

झरने गाते, बहती नदिया, दूर क्षितिज तक पंछी उड़ते

ना होता साम्राज्य दुखों का,  ना धरती सीमा में बँटती

ना बजती रणभेरी रण की, ना धरती हिंसा से कँपती !

पर्वत करते नभ से बातें, जब जी चाहे वर्षा होती

सूखा कभी ना पड़ता जग में, फसल खेत में खूब उपजती

निर्मम मानव जब जंगल की, हरियाली पर टूट न पड़ता

भोले भाले वन जीवों के, जीवन पर संकट ना गढ़ता

जब सब प्राणी सुख से रहते, एक घाट पर पीते पानी

रामराज्य सा जीवन होता, बैर भाव की ख़तम कहानी

पंछी गाते मीठे सुर में, नदियाँ कल कल छल छल बहतीं

पेड़ों पर आरी ना चलती, कितनी सुन्दर होती धरती !



साधना वैद