‘गोदान’ शब्द सुनते ही एक दिव्य भाव
एक पवित्र विचार से मन भर जाता है,
एक अलौकिक सा आत्मबोध
एक पारलौकिक सी परम्परा का भान
मन की हर दुविधा हर असमंजस को हर जाता है !
कितनी पवित्रता कितने गहरे संस्कार
मन को उल्लसित कर जाते हैं,
मन मस्तिष्क में और हमारे नेत्रों में
पूजनीय गोमाता के कितने हार फूलों से
सुसज्जित चित्र पल पल आकर तिर जाते हैं !
इन्हीं विचारों में लीन निकल पड़ी थी
मैं मंदिर की ओर जहाँ
फूलों के ढेर पर मुँह मारने के जुर्म में
लाठी से पीटी जा रही थी एक क्षुधित गाय,
सुबह के अखबार में सबसे पीछे के पृष्ठ पर
लहरा रहा था एक चित्र जिसमें
कूड़े के ढेर से भूख मिटाने की चेष्टा में
सब्जी के छिलकों से भरे पोलीथीन के पैकेट
निगल जाने वाली निश्चेष्ट पड़ी थी एक मृत गाय !
सामने से जा रहा था एक बड़ा सा ट्रक
कंकाल प्राय वृद्धा गायों के समूह से भरा
किसी ‘विशेष’ प्रयोजन से किसी ‘विशेष स्थान’ पर
नहीं जानती ये गोमाताएं विधि विधान से
धार्मिक अनुष्ठान के साथ ‘गोदान’ में दी गयी थीं
या पूर्ण रूप से सूख जाने पर घर से निकाली गयी
वो वृद्धा ‘माताएं’ थीं जिनकी उपयोगिता
घर में पूरी तरह से समाप्त हो चुकी थी
और अब इस बोझ को उठाने में कोई लाभ नहीं था !
कलयुग में शायद ऐसा ही होता हो ‘गोदान’
क्योंकि ट्रक में भरी इन गायों का क्या होगा भविष्य
इससे तो शायद कोई भी नहीं है अनजान !
चित्र -- गूगल से साभार
साधना वैद