Saturday, October 13, 2012

किताब और किनारे



वह एक किताब थी ,
किताब में एक पन्ना था ,
पन्ने में हृदय को छू लेने वाले
भीगे भीगे से, बहुत कोमल,
बहुत अंतरंग, बहुत खूबसूरत से अहसास थे ।
आँखे बंद कर उन अहसासों को
जीने की चेष्टा कर ही रही थी कि
किसीने हाथ से किताब छीन कर
मेज़ पर पटक दी ।
मन आहत हुआ ।
चोट लगी कि
किताबों पर तो 
औरों का हक़ भी हो सकता हैं !
उनमें संकलित भावनायें 
अपनी कहाँ हो सकती हैं !
कहाँ जाऊँ कि मन के उद्वेग को 
शांति मिले !
इसी निराशा में घिरी 
मैं जा पहुँची नदी के किनारे ।
सोचा प्रकृति तो स्वच्छंद है !
उस पर कहाँ किसी का अंकुश होता है !
शायद यहाँ नदी के निर्मल जल में
मुझे मेरे मनोभावों का 
प्रतिबिम्ब दिखाई दे जाये !
पर यह क्या ?
किनारों से बलपूर्वक 
स्वयम को मुक्त करता हुआ
नदी का प्रगल्भ, उद्दाम, प्रगाढ़ प्रवाह्
बहता जा रहा था पता नहीं
किस अनाम, अनजान, 
अनिर्दिष्ट मंज़िल की ओर
और किनारे असहाय, निरुपाय, ठगे से
अपनी जड़ों की जंजीरों से बँधे
अभागे क़ैदियों की तरह्
देख रहे थे अपने प्यार का इस तरह
हाथों से छूट कर दूर होते जाना ।
और विलाप कर रहे थे 
सिर पटक कर
लेकिन रोक नहीं पा रहे थे 
नदी के बहाव को ।
मन विचलित हुआ ।
मैंने सोचा इससे तो 
बंद किताब ही अच्छी है
उसने कितनी घनिष्टता के साथ
अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को,
अपने सबसे नर्म नाज़ुक अहसासों को
सदियों के लिये
अपने आलिंगन में बाँध कर रखा है !
ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का 
प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।

साधना वैद

27 comments:

  1. ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।


    -वाह, बहुत सुन्दर!

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

    ReplyDelete
  3. किताबों पर तो औरों का हक़ भी हो सकता हैं !
    उनमें संकलित भावनायें अपनी कहाँ हो सकती हैं !

    शांति प्रदान करने में भी पुस्तकों का अपना महत्व है. पुस्तक को विषय बनकर एक बेहतरीन कविता.

    ReplyDelete
  4. किनारों का दर्द और किताब में अभिव्यक्त भावनाएं .... खूबसूरती से लिखे हैं ...

    ReplyDelete
  5. बेहद खूबसूरती से लिखा है आपने बधाई स्वीकारें

    ReplyDelete
  6. ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।

    वाह बहुत खूबसूरत भाव संयोजन

    ReplyDelete
  7. एक अनजानी दिशा सबके लिए है - सब ढूंढते हैं ठौर ! मृत्यु ठौर तो नहीं ... तलाश का दूसरा भाग है . आत्मा भी स्वतंत्र नहीं , बेवजह उसे बाँधने की होती है नाकाम कोशिशें . बंद किताब हो या बंद मन या शरीर - बिना जिए क्यूँ मर जाना ! ठेस ही लगे ..... सत्य न पाया तो जन्म का अर्थ क्या !

    ReplyDelete
  8. वह एक किताब थी ,
    किताब में एक पन्ना था ,
    पन्ने में हृदय को छू लेने वाले
    भीगे भीगे से, बहुत कोमल,
    बहुत अंतरंग, बहुत खूबसूरत से अहसास थे

    khoobsurat rachana ...bahut khoob

    ReplyDelete
  9. वाह सटीक शब्दों को समेटकर लिखी खूबसूरत रचना हर पंक्ति एक सवाल छोड़ती हुई अंतरमन के भावों को बखूबी शब्दों में बयाँ किया है रचना अच्छी बन पड़ी है |

    ReplyDelete
  10. वाह ....
    उसने कितनी घनिष्टता के साथ
    अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को,
    अपने सबसे नर्म नाज़ुक अहसासों को
    सदियों के लिये
    अपने आलिंगन में बाँध कर रखा है !

    बहुत बहुत सुन्दर!!!!
    सादर
    अनु

    ReplyDelete
  11. अभिव्यक्त भावनाएं बड़े जतन से सहेजी गयी कितावों में पर अहसास सहेजे अपने आँचल में | महत्त्व किसका है अधिक इस पर भी आवश्यक लग रहा है सोचना |बहुत ही सुन्दर नाजुक भावनाओं से ओतप्रोत उत्तम रचना
    आशा

    ReplyDelete
  12. ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।

    सुंदर मनोभाव का संयोजन,,,,

    MY RECENT POST: माँ,,,

    ReplyDelete
  13. ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।...बहुत सुन्दर भाव संजोएं हैं.....

    ReplyDelete
  14. कल 14/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  15. http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/10/blog-post_14.html

    ReplyDelete
  16. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 15-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1033 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

    ReplyDelete
  17. बंद किताब ही अच्छी है
    उसने कितनी घनिष्टता के साथ
    अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को,
    अपने सबसे नर्म नाज़ुक अहसासों को
    सदियों के लिये
    अपने आलिंगन में बाँध कर रखा है !
    ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।


    sach kaha aapne

    ReplyDelete
  18. ताकि कोई भी उसमें अपने मनोभावों का
    प्रतिबिम्ब किसी भी युग में ढूँढ सके ।
    सत्य कहा... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

    ReplyDelete
  19. वास्तव में किताबें अनंत की ओर ले जाती हैं !
    लेकिन जोवन की किताब तो जीवंत ही बनी रहती है!

    ReplyDelete
  20. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    ReplyDelete
  21. किनारों से बलपूर्वक
    स्वयम को मुक्त करता हुआ
    नदी का प्रगल्भ, उद्दाम, प्रगाढ़ प्रवाह्
    बहता जा रहा था पता नहीं
    किस अनाम, अनजान,
    अनिर्दिष्ट मंज़िल की ओर
    और किनारे असहाय, निरुपाय, ठगे से
    अपनी जड़ों की जंजीरों से बँधे
    अभागे क़ैदियों की तरह्
    देख रहे थे अपने प्यार का इस तरह
    हाथों से छूट कर दूर होते जाना ।
    और विलाप कर रहे थे
    सिर पटक कर

    kitni utkrisht tulna ki hai. bahut prabhavi bimbo ka prayog karke man ke avsad ko shabdo me dhaal baha diya hai. isi tarah hi ek maa kinara ban khadi rah jati hai aur bacche lehro ka pravaah roop le jiwan ki nadi me aage badh jate hai.kinare to bas sir patak patak kar vahin khade rah jate hain.

    atulneey.

    ReplyDelete
  22. भावमय करते शब्‍दों का संगम ...
    अनुपम अभिव्‍यक्ति

    ReplyDelete
  23. आदरणीया मौसी जी सादर नमन,
    हम अपने दर्द को भवों को शब्दों में पिरो तो सकते है पर .............आपका लेखन सदैव ही प्रभावी होता है आभार |

    ReplyDelete
  24. खूबसूरत अहसास से सजी, बेहद गहन रचना !!!

    ReplyDelete
  25. बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन रचना..
    अति सुन्दर..
    :-)

    ReplyDelete
  26. waah .....
    शुभकामनाएं आपको !

    ReplyDelete