निस्पंद जलनिधि ,
मौन पर्वत ,
नीरव पवन ,
विवर्ण गगन ,
क्लांत, शिथिल
निस्तेज अस्ताचलगामी
भुवन भास्कर
सभी जैसे साँस रोके
जोहते हैं राह
उस एक पल की
जिस पल में
जड़ हो चुकी सृष्टि
किसी जादू से सहसा ही
प्राणवान हो जाये और
अन्यमनस्क रत्नाकर के
उमंगहीन ह्रदय में
आल्हाद की उत्ताल तरंगें
उठने लगें !
स्थिर जल के दर्पण में
अपना कुरूप प्रतिबिम्ब देख
विक्षुब्ध हुए पर्वत
सागर की लोल लहरों के
तरंगित दर्पण में अपना
आंदोलित प्रतिबिम्ब देख
अपने सौंदर्य पर
अभिमान कर सकें !
पवन के हलके से
झोंके से स्थिर खड़े
वृक्षों के अन्यमनस्क पल्लव
अपनी करतल ध्वनि से
विस्तृत व्योम में विचरते
विहग वृन्दों को पुकार उन्हें
शुभकामना सन्देश दे सकें
और निस्तब्ध वातावरण में
ऐसा मधुर संगीत गूँज उठे
जो छद्म नीरवता के
इस दु:सह्य आवरण को
निमिष मात्र में
छिन्न-भिन्न कर दे !
साधना वैद
No comments:
Post a Comment