अचानक
यह कैसा सन्नाटा
छा गया जीवन में
ना कोई आहट
ना कोई दस्तक
ना कोई आवाज़
ना कोई साथ
बस चहुँ ओर
पसरा हुआ एक शून्य
धरती से आसमाँ तक
एक बहुत
बड़ा सा शून्य !
जैसे जीने के लिये
कोई वजह ही नहीं
जैसे हर सुबह
हर शाम के
अर्थ ही खो गये !
ना कोई सवाल
ना कोई जवाब
ना कोई ध्वनि
ना कोई प्रतिध्वनि !
बाकी जो बचा है
वह है सन्नाटा
एक दम घोंटू
जानलेवा सन्नाटा !
हवा के झोंके से
खड़कना कुंडी का
और द्वार खोल
बेवजह पहरों
खड़े रहना उसका
एक अंतहीन निर्जन
सुनसान राह पर
टकटकी लगाये
एक निष्फल सी
आस लिये कि
शायद तू आ जाये
या शायद तेरा
संदेसा ही आ जाये !
लेकिन क्या कभी
बहती धारा को
पलट कर पहाड़ों पर
चढ़ते देखा है ?
उसकी आस का सूरज
उदित हुए बिना
साँझ से पहले ही
अस्त हो चुका है !
और प्रतीक्षा
वह बेचारी भी अब
थक कर सो चुकी है
चिरनिंद्रा में
शायद कभी ना
उठने के लिये !
साधना वैद
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