डाल से बंधा झूला तो
पूरी पाबंदी और विनम्रता
के साथ आज भी लटका
है
अपनी जगह पर
जिस तरह सालों पहले
बांधा था आपने बाबा
!
लेकिन झूले की उन
आसमान छूती पींगों
के साथ
मन सुदूर आकाश में
कितनी ऊँची और कितनी
लम्बी
अनंत यात्राएं कर
आया है
उन्हें कैसे बताऊँ
बाबा !
काश कभी मेरी
जिजीविषा
की उड़ान भी इस
झूले की तरह ही
किसी पल में रुक कर
स्थिर हो जाती और
लीक पर बंधी बंधाई
सीमित परिधि में
विचरण कर वापिस
लौट आती
सामाजिक परम्पराओं
और
मान्यताओं की
अपनी उसी कोठरी में
जिसमें सदियों पहले
रस्म-ओ-रिवाज़ की
जंजीरों
से जकड़ कर
आपने उसे निरुद्ध करके
रख दिया था बाबा !
लेकिन यह जिद्दी,
निरंकुश,
स्वच्छंद, बेलगाम मन
कोई अनुशासन नहीं
मानता
कोई नियंत्रण नहीं
मानता
कोई कहना नहीं मानता
और उड़ता फिरता है
उन आसमानों में
जहाँ इनका ना तो
कोई आशियाँ है
ना ही कोई मंज़िल
शायद इस बार इसने
समझौते के किसी भी
इकरारनामे पर
अपना नाम ना लिखने
की
कसम खा ली है और
अपनी तकदीर और तदबीर
दोनों को ही बदलने
की
ठान ली है !
साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार
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