‘विश्वास’
कितना आभासी है ना
यह शब्द !
कितना क्षणिक,
कितना छलनामय,
कितना भ्रामक !
विश्वास के जिस धागे से
बाँध कर
कल्पना की पतंग को
आसमान की ऊँचाइयों तक
पहुँचा कर मन अत्यंत
हर्षित और उल्लसित था
मेरी मुट्ठी में कस कर
लिपटा विश्वास का वह सूत्र
उँगलियों में ही उलझा
रह गया और
किसी और की पतंग
विश्वास के उस धागे को
आसमान में ही काट
मेरी भावना की पतंग को
अनजान वीरानों में
भटकने के लिये
विवश कर गयी !
कैसा था यह विश्वास
जो मन की सारी आस्था
सारी निष्ठा को
निमिष मात्र में हिला गया !
किस विश्वास पर भरोसा करूँ
काँच से नाज़ुक विश्वास पर या
ओस की बूँद जैसे नश्वर
विश्वास पर ?
सुदूर वीराने से रह रह कर
आती भ्रामक
पुकार की आवाज़ से
विश्वास पर या
आसमान में लुका छिपी का
खेल खेलते टिमटिमाते सितारों की
धुँधली सी रोशनी से
विश्वास पर ?
अनंत अथाह सागर के
सीने पर उठती त्वरित तरंगों से
क्षणिक विश्वास पर या
वृक्ष की हर टहनी पर विकसित
अल्पकालिक सुन्दर सुकोमल
सुगन्धित फूलों के
लघु जीवन से
विश्वास पर ?
जो भी हो ‘विश्वास’ शब्द
जितना सम्मोहक है
उतना ही भ्रामक भी !
दृढ़ होने पर यह जिस तरह
जीवन जीने के लिये
प्रेरित करता है
टूट जाने पर यह उसी तरह
जीवन जीने की
सम्पूर्ण इच्छा को ही
पल भर में मिटा जाता है !
साधना वैद
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