Tuesday, January 20, 2015

ज्वालामुखी



अच्छा ही है
जो दूर हो तुम !
धधकते हृदय में इस वक्त
सिर्फ अंगार ही अंगार हैं
ज्वाला ही ज्वाला है
जलन ही जलन है  
और है
उबलते उफनते लावे का
प्रगल्भ, प्रगाढ़, उद्दाम प्रवाह
जिसके स्पर्श मात्र से
झुलस कर सारी संवेदनाएं
निमिष मात्र में
भस्मसात हो जाती हैं !
और शेष रह जाती है
उन कोमलतम भावनाओं की
मुट्ठी भर राख !  
यदि संजो कर रखना है
अपनी मृदुता को  
अपनी कोमलता को
अपनी मधुरता को तो
इस पल न आना मेरे समीप
आज सुन्दर, सुरभित,
सद्य कुसुमित,
कमनीय पुष्पों से सजा
मेरा मन उपवन
भेंट चढ़ गया है
इस ज्वालामुखी की !
और अब तेज हवाओं के साथ
चहुँ ओर उड़ रही है
उन खिले अधखिले जले हुए
फूलों की राख जो
आँखों में घुस कर
दृष्टि को धुँधला रही है
और सृष्टि कर रही है 
अंतर में एक और
नये ज्वालामुखी की !


साधना वैद   





No comments:

Post a Comment